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उत्तर प्रदेश

भाजपा और मोदी को कोसने में बीत गया सपा का राष्ट्रीय अधिवेशन

कुछ बड़े राजनेताओं का जब मुंह खुलता हैं तो उनके श्रीमुख से जहरीली वाणी ही निकलती है। मनोरोगी की तरह व्यवहार करने वाले इन नेताओं को अपने अलावा सारी दुनिया साम्प्रदायिक, चोर, भ्रष्टाचारी, खूनी, वहशी नजर आती है। न यह उस मिट्टी का मान रखते हैं जिसमें वह पल कर बढ़े हुए हैं, न ही इन्हे देश-समाज की प्रतिष्ठा की चिंता रहती है। भारत मां को डायन कहने वाले ऐसे नेता अपने आप को बहुत ही समझदार और काबिल मानते हैं, लेकिन किसी गंभीर मसले पर बात करते समय इनके मुंह पर ताला जड़ जाता है। हां, बात का बतंगड़ बनाने की महारथ इन्हें जरूर हासिल होती है, जिसकी नुमाईश यह समय-समय पर करते रहते हैं। दूसरों की बैसाखियों के सहारे अपनी राजनीति चमकाने वाले इन नेताओं की भले ही उनके अपने जिले में कोई न पूछता लेकिन यह अपने आप को राष्ट्रीय नेता समझने का मुगालता पाले रहते है।

<p>कुछ बड़े राजनेताओं का जब मुंह खुलता हैं तो उनके श्रीमुख से जहरीली वाणी ही निकलती है। मनोरोगी की तरह व्यवहार करने वाले इन नेताओं को अपने अलावा सारी दुनिया साम्प्रदायिक, चोर, भ्रष्टाचारी, खूनी, वहशी नजर आती है। न यह उस मिट्टी का मान रखते हैं जिसमें वह पल कर बढ़े हुए हैं, न ही इन्हे देश-समाज की प्रतिष्ठा की चिंता रहती है। भारत मां को डायन कहने वाले ऐसे नेता अपने आप को बहुत ही समझदार और काबिल मानते हैं, लेकिन किसी गंभीर मसले पर बात करते समय इनके मुंह पर ताला जड़ जाता है। हां, बात का बतंगड़ बनाने की महारथ इन्हें जरूर हासिल होती है, जिसकी नुमाईश यह समय-समय पर करते रहते हैं। दूसरों की बैसाखियों के सहारे अपनी राजनीति चमकाने वाले इन नेताओं की भले ही उनके अपने जिले में कोई न पूछता लेकिन यह अपने आप को राष्ट्रीय नेता समझने का मुगालता पाले रहते है।</p>

कुछ बड़े राजनेताओं का जब मुंह खुलता हैं तो उनके श्रीमुख से जहरीली वाणी ही निकलती है। मनोरोगी की तरह व्यवहार करने वाले इन नेताओं को अपने अलावा सारी दुनिया साम्प्रदायिक, चोर, भ्रष्टाचारी, खूनी, वहशी नजर आती है। न यह उस मिट्टी का मान रखते हैं जिसमें वह पल कर बढ़े हुए हैं, न ही इन्हे देश-समाज की प्रतिष्ठा की चिंता रहती है। भारत मां को डायन कहने वाले ऐसे नेता अपने आप को बहुत ही समझदार और काबिल मानते हैं, लेकिन किसी गंभीर मसले पर बात करते समय इनके मुंह पर ताला जड़ जाता है। हां, बात का बतंगड़ बनाने की महारथ इन्हें जरूर हासिल होती है, जिसकी नुमाईश यह समय-समय पर करते रहते हैं। दूसरों की बैसाखियों के सहारे अपनी राजनीति चमकाने वाले इन नेताओं की भले ही उनके अपने जिले में कोई न पूछता लेकिन यह अपने आप को राष्ट्रीय नेता समझने का मुगालता पाले रहते है।

धर्म गुरुओं को गाली देना, लोकतंत्र का उपहास उड़ाना, न्यायपालिका और संवैधानिक संस्थाओं पर छींटाकशी, जिस थाली में खाये उसी में छेद करना, हिन्दू-मुस्लिमों के बीच नफरत के बीज बोना, समय-समय पर गड़े मुर्दे उखाड़ना, विरोधियों को नीचा दिखाना इनका शगल है। एक-दो नहीं तमाम राजनैतिक दलों में ऐसे कई नेता मिल जायेंगे जो राजनीति की सीढ़िया मेहनत की बजाये शार्टकट से चढ़ना ज्यादा पंसद करते हैं। या यह कहा जाये कि इनमें इतनी काबिलियत ही नहीं होती है कि यह जनता का दिल जीत कर राजनीति कर पायें। ऐसे नेताओं के कारण ही देश-प्रदेश का साम्प्रदायिक माहौल खराब होता है, दंगे-फंसाद होते हैं। फिर यह लोग दंगों की पिच पर राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं। आम आदमी मरे या जिये, इनको इससे मतलब नहीं रहता है। हिंसा में जितने अधिक से अधिक लोगों का घर-व्यापार जलते हैं उतना ही इनकी राजनीति को खाद-पानी मिलता है।

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चुनावी मौसम में तो ऐसे नेताओं की बाढ़ ही आ जाती है। इसका नजारा पिछले कुछ महीनों में खूब देखने को मिला। 2014 के लोकसभा और उसके बाद हुए उप-चुनाव में इन नेताओं की जहरीली जुबान ने खूब कोहराम मचाया। कुछ जगहों पर जनता इनके बहकावे में आ भी गई, जिसकी परिणिति दंगे-फंसाद के रूप में हुई, लेकिन अधिकांश मौकों पर यह अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सके। बात यूपी की कि जाये तो पिछले छः महीने में अपने विवादित बयानों से भाजपा के साक्षी महाराज, कांग्रेस के इमरान मसूद, जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी, भाजपा के योगी आदित्यनाथ, सपा के आजम खॉ ही नहीं कद्दावर नेताओं में शुमार कांग्रेस के राहुल गांधी, बेनी प्रसाद वर्मा, सलमान खुर्शीद, सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, बसपा सुप्रीमों मायावती, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, राष्ट्रीय लोकदल के अजित सिंह, सपा के रामगोपाल यादव, शिवपाल यादव, नरेश अग्रवाल ने भी खूब सुर्खियां बटोरी थी। कई नेता तो आचार संहित के दायरे में भी आये, लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा।

उक्त नेताओं ने एक से एक बढ़कर विवादित बयान दिये, इनके बयानों का मकसद यही था कि किसी भी तरह से उनको रातोंरात पहचान मिला जाये और पार्टी को जीत हासिल हो जाये। इन नेताओं की विवादित बयानबाजी का मतदाताओं पर कितना असर पड़ा, इसको जांचने और नापने का तो कोई पैमाना नहीं है, लेकिन चुनाव सम्पन्न होते ही ऐसे नेताओं के मुंह से जहर बुझे तीन छुटना बंद जरूर हो गये। परंतु समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव और अखिलेश कैबिनेट के मंत्री आजम खॉ, शिवपाल यादव और राज्यसभा सदस्य रामगोपाल यादव की जुबान आज भी जहर उगल रही है। अगर ऐसा न होता तो यह नेता समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपने दल की खामियां दूर करने की बजाये मोदी और भाजपा को कोसने में समय न बिताते। अखबार वालों और खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया की यह खासियत है कि वह दो नेताओं के बीच की बयानबाजी की कवरेज करते हैं तो ‘सबसे बड़ा या तीखा, तगड़ा हमला’ जैसे शब्दों का तो खूब इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इनके शब्दकोश से बेतुका हमला जैसे शब्द नहीं निकलते हैं। मीडिया के पास शायद स्टैडर्ड मापने का कोई पैमाना नहीं होगा इसी लिये वह दो नेताओं की तुलना को काफी हास्यास्पद बना देते हैं। भले ही नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी की सोच, राजनीति काबलियत में जमीन आसमान का फर्क हो लेकिन यह अंतर मीडिया को दिखाई नहीं देता है। वह दोनों की तुलना करते नहीं थकता।

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अब समाजवादी पार्टी के अधिवेशन का ही उदाहरण ले लिया जाये। समाजवादी नेता लखनऊ में जुटे तो थे आत्म मंथन करने के लिये लेकिन उनका सारा ध्यान भाजपा और मोदी पर लगा रहा। यहां तक की मोदी के खिलाफ एक निंदा प्रस्ताव तक पास कर दिया गया। मंच पर जिसको भी मौका मिला उसने मोदी को कोसने के अलावा शायद ही कोई सार्थक बात-बहस की होगी, लेकिन इस हकीकत को अनदेखा करते हुए लिखा यह गया कि सपा ने प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस पर अब तक का सबसे तगड़ा हमला बोला। आजम खॉ ने मोदी को दंगा कराने वाला बताया तो एक महासचिव किरनमय नंदा ने आरएसएस को आतंकी संगठन करार दे दिया। अधिवेशन की शुरूआत में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव अधिवेशन के एजेंडे से भटके तो उनके बाद आने वाले वक्ता भी नेताजी जैसी ही गलती करते चले गये। मोदी पर हमला शुरू हुआ तो उनके स्वच्छ भारत अभियान का उपहास उड़ाते हुए यहां तक कह दिया गया कि मोदी झाड़ू वालों की रोजी छीन रहे हैं। मंगलयान की लाचिंग के मौके पर वैज्ञानिकों के बीच मोदी की उपस्थिति भी समाजवादियों को रास नहीं आई और आरोप लगाया गया कि प्रधानमंत्री दूसरों की कामयाबी का सेहरा अपने सिर बांधने की कोशिश कर रहे हैं।

अधिवेशन के अंतिम दिन मुलायम और अखिलेश यादव का ही भाषण हुआ। दोनों ने ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे समाजवादियों का मनोबल बढ़ता। मुलायम सिंह ने सभी हदें पार करते हुए आरोप लगाया कि भारत-पाक सीमा पर चल रही गोलीबारी के बीच कुछ ताकतें इस बहाने देश में साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ना चाहती है। नेताजी ने भाजपा और उससे जुड़े संगठनों की ओर इशारा करते हुए कहा कि यह लोग सद्भावना तोड़ना चाहते हैं। यह बात और थी कि जब मुलायम और उनके सेनापति लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में विरोधियों पर चुन-चुन कर हमले कर रहे थे, तभी हाईकोर्ठ की लखनऊ पीठ अखिलेश सरकार की नियत पर सवाल खड़े कर रही थी। एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति वीके शुक्ला और न्यायमूर्ति बीके श्रीवास्तव द्वितीय की खंडपीठ ने समाजवादी पेंशन योजना के तहत अल्पसंख्यकों को 25 फीसदी कोटा तय करने पर सरकार को जवाबी हलफनामा दाखिल करने का आदेश सुना दिया। इसी तरह की हरकत अखिलेश सरकार ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए दंगे के बाद मुआवजे का ऐलान करते की थी।तब भी सरकार की तरफ से कहा गया था कि मुआवजा सिर्फ मुस्लिम पीड़ितों को दिया जायेगा।बाद में उसे यह आदेश वापस लेना पड़ा था।

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बड़े मियां तो बड़े मियॉ, छोटे मियां भी धार्मिक भावनाओं का बंटवारा करने में पीछे नहीं रहे। गंगा की धार्मिक और सामाजिक मान्यता से शायद ही किसी हिन्दुस्तानी को गुरेज होगा, मगर मुख्यमंत्री अखिलेश इस बात से नाराज दिखे कि उनकी नजर में जो गंगा समाजवादी है, उसे मोदी धर्म से जोड़कर साम्प्रदायिक रूप दे रहे हैं। लगता है अखिलेश यादव को ऐसा कहते समय अपने संस्कार भी याद नहीं रहे। अगर ऐसा न होता तो उन्हें अच्छी तरह से पता होता कि हिन्दू धर्म में गंगा की क्या महत्ता बताई गई है।

हॉ, राज्यसभा सदस्य जया बच्चन ने जरूर बिना किसी का नाम लिये कहा कि जिन्हें आगे नहीं बढ़ाना होता है उन पर ज्यादा नहीं बोला जाता है, जिससे दूरी रखनी है उस पर चर्चा नहीं होनी चाहिए। जया ने तो अपनी बात साफगोई से कह दी, लेकिन अन्य नेता ऐसा नहीं कर पाये और उनका सारा ध्यान एक-दूसरे को खुश करने में ही रहा। सबसे अफसोसजनक बात यह रही कि सपा के अधिवेशन में काफी मंथन हुआ होगा, लेकिन इस मंथन से ‘अमृत’ कम  हलाहल ज्यादा निकला। यही वजह थी राज्यपाल राम नाइक ने समाजवादी पार्टी के अधिवेशन के उस प्रस्ताव को मंगा कर पढ़ा, जिसमें उन पर तीखे हमले किये गये थे। भारतीय जनता पार्टी ने भी जबाब देने में देरी नहीं की। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने समाजवादी सोच पर हमला करते हुए कहा कि लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार से सपाई बौखला गये हैं। ऐसे में अपनी कमी खोजने के बजाये इनके छोटे-बड़े नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, सर्वोच्च न्यायालय, राज्यपाल और मीडिया पर भड़ास निकाल रही है। राज्यपाल पर हमले से भाजपा तिलमिला गई और उसके प्रदेश प्रवक्ता डॉ. चन्द्रमोहन ने सपा नेताओें पर निशाना साधते हुए कहा कि सत्ता के नशे में चूर होकर सपा बौखला गई है जिसके चलते उसे राजनैतिक और संवैधानिक शिष्टाचार की भी चिंता नहीं रही।

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खैर, लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का सफाया होने के बाद भी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव का यह बयान आना अचंभित करने वाला रहा कि जनता का विश्वास उनके परिवार के ऊपर से उठा नहीं है। यह बात मुलायम अपने परिवार के पांच सदस्यों के लोकसभा चुनाव जीतने के संद्रर्भ में कह रहे थे। किसी बड़े नेता को इस तरह का बयान शोभा नहीं देता है। स्पष्ट सोच नहीं होने के कारण ही संभवता अधिवेशन का रंग फीफा ही रहा। अलबत्ता मुलायम ने अपनी परिपक्व राजनीति के सहारे इतना संकेत जरूर दे दिया कि उनके बाद समाजवादी पार्टी अखिलेश यादव के हाथों में ही महफूज रहेगी। अधिवेशन में अखिलेश की युवा टीम ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया जिससे यह समझने में देरी नहीं लगी कि एक तरफ कांग्रेस और भाजपा में जबर्दस्ती पुरानी पीढ़ी को पीछे धकेलने की कोशिश की जा रही है, वहीं सपा के बड़े नेता स्वयं युवा नेताओं के लिये मंच तैयार कर रहे हैं। अधिवेशन में मुलायम के साथ-साथ तमाम बुर्जुग नेताओें ने युवाओं को आगे आकर पार्टी संभालने की हिदायत दी। कुल मिलाकार समाजवादी नेता अपनी चाल-चरित्र और चेहरा दुरूस्त करने में ही लगे रहे।

 

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लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार की रिपोर्ट।

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