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सियासत

हां, मैंने ट्रीटमेंटिस्टिक जर्नलिज्म किया है

वो सच में परिवर्तन के दिन थे। मेरे निजी जीवन के परिवर्तनों के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तनों ने भी दस्तक देना शुरु कर दिया था। अब यह बात और है कि मेरी ही तरह बाकी लोग भी इन परिवर्तनों को नजर अंदाज कर रहे थे या इनकी गंभीरता को हल्के से ले रहे थे।

<p>वो सच में परिवर्तन के दिन थे। मेरे निजी जीवन के परिवर्तनों के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तनों ने भी दस्तक देना शुरु कर दिया था। अब यह बात और है कि मेरी ही तरह बाकी लोग भी इन परिवर्तनों को नजर अंदाज कर रहे थे या इनकी गंभीरता को हल्के से ले रहे थे।</p>

वो सच में परिवर्तन के दिन थे। मेरे निजी जीवन के परिवर्तनों के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तनों ने भी दस्तक देना शुरु कर दिया था। अब यह बात और है कि मेरी ही तरह बाकी लोग भी इन परिवर्तनों को नजर अंदाज कर रहे थे या इनकी गंभीरता को हल्के से ले रहे थे।

यही वह समय था जब नरसिम्हा राव के नेतृत्व में मनमोहन सिंह देश की आर्थिक नीतियों को उदार पूंजीवाद की तरफ मोड़ रहे थे तो टाइम्स ऑफ इण्डिया के नए मालिक के रूप में समीर जैन ने घोषणा कर दी थी कि उनकी नजर में अखबार केवल एक उत्पाद है और अखबार का काम समाज की बेहतरी नहीं बल्कि बेहतर मुनाफा कमाना है।तब पत्रकारों ने इसे किस्से की तरह लिया था…या इसका मजाक बनाया था पर असल में हुआ क्या।

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पत्रकारिता का व्याकरण ही दबे पांव बदलता चला गया।पत्रकारों के आदर्श जो चाहे रहे हों…मालिकों का आदर्श समीर जैन बन चुके थे…और समीर जैन अपनी सफलता पर इतने आत्ममुग्ध हैं कि अब वो कहते हैं कि वो खबर के लिए अखबार नहीं छापते ,बल्कि विज्ञापन के लिए छापते हैं।इस बड़े बदलाव के दौर में हम तो जैसे पूरी तरह अनफिट थे।अब पत्रकारिता के मायने बदल रहे थे…जैसे युद्ध और शांति के लिए सेना के जनरल अलग-अलग होते हैं…वैसे ही सामाजिक प्रतिबद्धता,विशेष खोजी रिपोर्ट और कमाकर देने वाले पत्रकार भी अलग-अलग होते हैं और बदले मूल्यों के चलते अब अखबारों में कमाकर देने वाले पत्रकारों की अहमियत बढ़ने लगी थी। 

संपादक पर मार्केटिंग मैनेजर हावी होने लग गए थे….इधर मीडिया का रूप भी बदल रहा था….कुछ स्थापित पत्रिकाएं तेजी से बंद हो रहीं थीं तो टीवी पर नए निजी न्यूज चैनल पहचान बनाने लगे थे……यह खोजी पत्रकारिता के अंत का दौर था…खोजी पत्रकारिता की जोर-शोर से शुरुआत का श्रेय इंडियन एक्सप्रेस को जाता है…फिर यह फैशन की तरह ऐसा परवान चढ़ा कि जनसत्ता ने खोज खबर और खासखबर के नाम से विशेष पेज ही शुरु कर दिए थे..नवभारत टाइम्स के जयपुर संकरण ने भी इसी तरह के पेज शुरु किए….जिसके जबाव में पत्रिका ने फीचर पेज शुरु कर पाठकों को जोड़ा।माया में मैंने और श्रीपाल शक्तावत ने भी नए-नए विषयों पर यथाशक्ति रिपोर्टें लिखीं।

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उस समय खोजी खबर लाने के लिए रिपोर्टर रात दिन एक कर देते…..नए-नए तरीके इस्तमाल करते……जैसे एक मशहूर रिपोर्टर गवर्मेंट प्रेस की रद्दी में पड़े प्रूफ रीडिंग के कचरे से सरकार की तैयारियों की खबरें निकालते थे….तो एक रिपोर्टर सचिवालय के आसपास चाय की थड़ियों पर होने वाली मंत्रियों और अफसरों के ड्राइवरों की गपशप में से खबर ढ़ूंढ़ लाते…..कुछ प्रियजन यूपी और एमपी के अखबारों को खंगाल कर आइडिया लेते और उस स्टाइल की खबर की स्थानीय सिमली तलाश कर अपनी नई खबर बनाते थे…. पर असल में इस काम में सबसे ज्यादा मददगार विभागों के मित्र सूत्र ही होते थे…यानिकि जितने ज्यादा सोर्स…उतनी ज्यादा खबर।पर सबसे महत्वपूर्ण सोर्स विभागीय प्रतिद्वन्दी अफसर ही होते हैं जो एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए विरोधी से संबधित कागजात इकठ्ठे करके रिपोर्टरों को मुहैया कराते हैं।ऐसे माहौल में जब मैं अपनी रिपोर्टों पर नजर डालता हूं तो उन्हें खोजी रिपोर्ट कहने का मन नहीं होता…हो सकता है मेरी कुछ रिपोर्ट खोजी श्रेणी डाली जा सकतीं हों पर जब भी मैं अपनी समग्र रिपोर्टों पर चिंतन करता हूं तो मुझे उनके लिए ट्रीटमेंटिस्टिक शब्द ज्यादा उपयुक्त लगता है ….यानि कि शायद मैं कहना चाहता हूं कि हां मैंने ट्रीटमेंटिस्टिक जर्नलिज्म किया है।

धीरज कुलश्रेष्ठ के एफबी वाल से

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