एक बार किसी ने मुझसे पूछा– आप शराब किस लिए पीते हैं। मैंने जवाब दिया– जो वजह मेरे जीने की है वही मेरे पीने की। उनका सर चकरा गया। वे कुछ न समझ पाये। ऐसे आदमी को समझाना भी नहीं चाहिए। असल में वे मुझे समझाना चाहते थे कि शराब पीना बुरी आदत है। इंसानों को बिना मांगे सुझाव देने की बुरी लत होती है, जिसे ठुकरा देने की मुझे लत है। मेरे हालात मेरे हमसफर हैं। मैं अपने हालात के आदेश पर चलता हूं। दूसरों की ही नहीं, मैं अपने दिल के सुझाव भी नहीं मानता। मेरा जनम किसी के सुझाव से नहीं हुआ। किसी के सुझाव को मैं अगले की जिंदगी में दखलंदाजी मानता हूं।
हमारा देश भी अजीब है। यहां एक विभाग है जो मयकशों की मदद करता है और उनकी जेब काटकर सरकारी खजाने का पेट भरता है। एक और विभाग है जो शराब पीने की मुमानियत करने की कोशिश करता है। एक का नाम है आबकारी विभाग और दूसरे का नाम मदिरा निषेध विभाग । खैर, मैं किस लिए पीता हूं, बात यहां पर आन अटकती है। मैं शराब पीता हूं, यह मुझे जानने वाला हर कोई जानता है। यह खुला खेल है। खुले खेल के साथ यूपी के एक जिले का नाम लिया जाता है। कहने को मैं यह भी कह सकता हूं कि यह एक तरह से मेरी देशसेवा है। सरकार के घाटे के बजट को लाभ के बजट में बदलने का एक छोटा सा योगदान।
मेरा एक और मानना है। श्राब न तो गम मिटाने का और न ही खुशी मनाने का साधन है।
तो फिर वही सवाल उठने लगता है कि आखिरकार मैं किस लिए पीता हूं। सच कहूं तो पीने की वजह जानने के लिए पीता हूं। वजह एक अबूझ पहेली है। जब तक यह पहेली सुलझ न जाएगी, पीता रहूंगा। एक बार मेरे एक साथी कमलेश ने सुझाव दिया कि पीने की लत से छुटकारा पाने का एक सरल तरीका है। बस ठान लीजिए कि अपने पैसे की नहीं पीएंंगे। यानी जब कोई मुहैया कर दे तो पी लीजिए। मैंने उनका सुझाव मान लिया और ठान लिया। अपने साथियों और परिचितों को अपने इस प्रण की सूचना दे दी। सारे लोग मिलकर मेरा प्रण तुडवाने पर तुल गये। अंजाम यह हुआ कि मेरी शराबखोरी की बारंबारता और बढ गयी।
मैं किस लिए पीता हूं, यह तो नहीं जानता लेकिन इतना बता सकता हूं कि पीना कैसे सीखा। मुझे अपने वालिद की नौकरी की एवज में 1974 में नेशनल हेरल्ड नामक अखबार में नौकरी मिल गयी। मेरे साथ सैमुएल सिलवानो नाम के एक आदरणीय काम करते थे। बिला नागा पीते थे। शराब की महिमा बताते रहते थे। धरम से ईसाई थे। शराब को होली वाटर कहते थे। यानी पवित्र पानी। मैं महात्मा गांधी के इस कहे पर अमल करने वालों में से था कि शराब शरीर का ही नहीं आत्मा का भी नाश करती है। लेकिन सिलवानों के संसर्ग ने मुझे इस लायक नहीं रखा कि मैं अपने शरीर और आत्मा की रक्षा करता रहूं। तब का दिन है और आज का। मुंह से लगी ये चीज मेरी जीवनसाथी है। तौबा करने की कसम खाता हूं पर तौबा कर नहीं पाता। और बातें फिर कभी। एक शेर अर्ज करता हूं–
एक बादाकश ने तौबा करने की कसम खाई
और इस खुशी में उम्र भर पी और पिलाई।
लेखक विनय श्रीकर वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.