अमरेन्द्र राय-
अस्त हो गया आदित्य
विक्रम जी नहीं रहे। करीब अस्सी साल की उम्र में आज उन्होंने सुबह लगभग साढ़े आठ बजे अंतिम सांस ली। अब आप इसे जो समझें। इनका जीवन चक्र पूरा हुआ या कि इनकी आत्मा कोई नया वस्त्र धारण करने के लिए निकल पड़ी। पर मुझे लगता है इन्हें मुक्ति मिल गई। जीवन के तमाम संघर्षों से।
विक्रम जी एक पत्रकार थे। मुझे तो मालूम भी नहीं था कि इनका पूरा नाम विक्रमादित्य था। जिस वृद्धाश्रम में ये रहते थे उसकी संचालिका सुदर्शना जी का कल ही फोन आया था। कहा आकर एक बार मिल लें। पिछले करीब महीने भर से लिक्विड डाइट पर थे। दो दिन पहले डॉक्टर ने कहा कि अब ये जो मांगें इन्हें सो खिलाइये। इसका मतलब होता है अब इनका जीवन दो-चार दिन का बचा है।
पत्रकार सैय्यद अली मेहदी कभी हिंट में काम कर चुके थे। उनसे कहा कि चलो विक्रम जी से मिलकर आते हैं। अब वो ज्यादा दिन के मेहमान नहीं हैं। उन्होंने पूछा कौन विक्रम जी ? मैंने जब उनके बारे में बताया तो उन्होंने कहा उनका पूरा नाम विक्रमादित्य जी है। विक्रम नाम के मेरे कई मित्र हैं। सबको अलग-अलग पहचान के हिसाब से मोबाइल में सेव किये हुए हूं। इन्हें मैं विक्रम जी ही जानता था इसलिए इनका नाम विक्रम जी हिंट करके सेव कर लिया था जो अभी भी मेरे मोबाइल में पड़ा हुआ है।
बहरहाल आज शाम को उनसे मिलने का तय हुआ था लेकिन सुबह से ही तीन मिस्ड कॉल मेरा इंतजार कर रही थीं। एक सुदर्शना जी का, दूसरा सुभाष अखिल जी का और तीसरा आलोक यात्री जी का। पहले दो फोन देखते ही समझ गया जिस बुरी खबर की आशंका थी उसी की सूचना देने के लिए ये सब फोन हैं। बात सच साबित हुई।
करीब 12 साल पहले विक्रम जी से गाजियाबाद के हिंट अखबार के दफ्तर में मुलाकात हुई। मैंने सीएनईबी ( न्यूज चैनल ) छोड़ा था और सोच रहा था कि सर्दियां बीत जाएं तो नई नौकरी ढूंढी जाए। इसी बीच अपने अनुज समान मित्र चमन जी एक दिन आए और बोले भाई साहब बैठे क्यों हैं…जब तक कहीं ज्वाइन करने का मन नहीं है यहीं हिंट अखबार में ज्वाइन कर लें। उन्हें एक व्यक्ति की जरूरत है। आप कहें तो मैं बात कर लूं। और आपको जब जाना हो तब चले जाइयेगा। इस तरह मैंने हिंट ज्वाइन कर लिया। विक्रम जी वहीं काम करते थे।
हिंट का जहां दफ्तर था उसके ऊपर ही अतुल गर्ग जो बाद में यूपी सरकार में मंत्री बने का दफ्तर था। विक्रम जी वहीं रहते थे और उनका कुछ काम संभालते थे। पता चला कि विक्रम जी अतुल गर्ग के पिता और गाजियाबाद के मेयर रहे दिनेश चंद्र गर्ग का मीडिया का काम संभालते थे। उन्होंने ही बाद में उन्हें अतुल गर्ग के सुपुर्द कर दिया था यह कहकर कि बुजुर्ग आदमी हैं अब कहां जाएंगे, इनका खयाल रखियेगा। तब विक्रम जी की उम्र 67-68 साल थी। लेकिन मेरा अंदाजा था कि वे अपनी उम्र थोड़ा कम करके बता रहे हैं। उनकी उम्र सत्तर पार लग रही थी।
अतुल गर्ग ने उनका बखूबी खयाल भी रखा। लेकिन जब उनको हिंट वाला दफ्तर छोड़ना हुआ तो उन्होंने विक्रम जी को अपने पिलखुवा वाले किसी फ्लैट में जाकर रहने को कहा। वहां उन्होंने अपने पिता दिनेश चंद्र गर्ग के नाम पर कम लागत वाले सैकड़ों फ्लैट बना रखे हैं। शायद उसका नाम भी दिनेश चंद्र गर्ग नगर रख दिया है। लेकिन विक्रम जी ने कहा कि वहां जाकर मैं रह तो सकूंगा लेकिन खाउंगा-पीउंगा क्या…. आप मेरे रहने की व्यवस्था यहीं करा दीजिए ताकि मैं कुछ काम कर सकूंगा। अतुल गर्ग ने हिंट के मालिक और संपादक कमल सेखरी से बात करके हिंट हाउस में ही उनके रहने की व्यवस्था करा दी और काम भी हिंट में दिलवा दिया।
लेकिन हिंट की माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी। जो पैसे विक्रम जी को मिलते थे उसमें वो ढंग से खा भी नहीं सकते थे। हिंट में काम करने की अल्प अवधि के दौरान विक्रम जी से अपना बहुत अपनापा हो गया था। इसलिए हिंट छोड़ने के बावजूद उनसे मिलना जुलना होता रहा। उन्हें सादर अपने घर ले आता था और रोत को रोकता था ताकि उन्हें घर जैसा महसूस हो। उनसे मिलने हिंट भी जाता था। बाद के दिनों में वे अक्सर चाय की दुकान पर मिल जाया करते थे। चाय बहुत पीते थे।
सच कहिए तो चाय और बिस्कुट या फैन पर ही उनका जीवन चल रहा था। जब हिंट के ऊपर अतुल जी के पास रहते थे तो भी वे रात को खाना नहीं खाते थे। कहते थे चाय बिस्कुट से ही काम चल जाता था। पर तब शायद पैसे की कमी नहीं थी। लेकिन बाद में जब मेरी मुलाकात हुई तो पहले उन्होंने चाय पी और फिर चार बजे के करीब सड़क पार करके सामने छोले कुल्चे वाले ठेले पर दो कुल्चे खाए। मैंने कहा कि पूरा खाना क्यों नहीं खाते। बोले नहीं। मैंने पैसा देना चाहा तो देने भी नहीं दिया। बहुत स्वाभिमानी थे। बाद में कभी बातों बातों में बताया कि अब चार बजे के करीब दो कुल्चे छोले खा लेता हूं। रात में चाय बिस्कुट से काम चला लेता हूं।
आप ये भी समझ सकते हैं कि खाने की इच्छा नहीं होती और ये भी समझ सकते हैं कि पैसा नहीं है तो खाना दोनों वक्त कैसे खा सकते हैं। मुझे बहुत पीड़ा होती थी। पर कुछ समझ में नहीं आता था कि क्या करें। वे मदद लेने को तैयार नहीं होते थे। उसी समय एक बार मैंने उन्हें बहुत समझाया कि आपकी उम्र ज्यादा हो चुकी है। कूल्हा भी टूट चुका है। चलने में भी परेशानी है। आगे उम्र और बढ़नी है। शरीर कमजोर होना है। आप कहें तो किसी वृद्धाश्रम में आपके लिए बात करूं। लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया।
लॉक डाउन लगने से कुछ समय पहले उनका फोन आया। कहा कि मुझे कुछ दिन के लिए रहने की व्यवस्था करा दीजिए। हिंट छोड़ना है। विक्रम जी को गुस्सा जल्दी आता था। दुर्वासा ऋषि थे। मुझे लगा कमल सेखरी से किसी बात पर कहा सुनी हो गई होगी। पूछा तो बताया नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। यह बिल्डिंग बैंक कर्ज के एवज में अपने कब्जे में ले रहा है। इसे हर हाल में खाली करना है।
उन्हीं दिनों मेरी मुलाकात नवभारत टाइम्स के रिटायर पत्रकार सुभाष अखिल जी से हुई थी। कुछ ही समय में उनसे मित्रता हो गई और प्रगाढ़ता में बदल गई। उन्होंने बताया था कि वे एक संस्था आंगन और आंचल से जुड़े हैं। वह संस्था वृद्धाश्रम भी चलाती है। मैंने उनसे पूरी बात बताई और वे सहर्ष तैयार हो गए। लॉक डाउन थोड़ा ढीला होने पर वे आए और विक्रम जी को ले गए। मुझसे आग्रह किया कि आप इनकी खैर खबर लेते रहें ताकि इन्हें कभी अकेलापन महसूस न हो। उनके आखिरी दिनों में मैं और अखिल जी ही थे जो उनके संपर्क में रहे। लेकिन तीन चार महीने से उनसे फोन पर बात कम होने लगी। वे कभी फोन उठाते थे कभी नहीं। लेकिन फोन करके बताते थे कि तबीयत ठीक नहीं रह रही इसलिए अब फोन नहीं उठा पाता। बाद में तो उनसे फोन पर बात होनी ही बंद हो गई।
उनका हालचाल जानने के लिए आश्रम की संचालिका सुदर्शना जी को फोन करना पड़ता। उन्होंने अपने ही फोन से बात कराई। विक्रम जी का स्वभाव आखिर तक नहीं बदला। वे बहुत जल्दी बिगड़ जाते थे। लेकिन समझाने पर जल्दी ही मान भी जाते थे। पिछले दो-तीन महीनों से उनका अपने पिशाब और शौच पर नियंत्रण नहीं रह गया था। वे हमेशा डाइपर पर रहते थे। लेकिन कई बार वे डाइपर न पहनने की जिद करते थे। आश्रम के लोग परेशान हो जाते थे। लेकिन सचमुच उन्होंने उनकी जो सेवा की उस तरह की सेवा तो अपने घर वाले सगे भी नहीं करते। उनकी सेवा देखकर मन आश्रम और सुदर्शना जी के प्रति नतमस्तक हो जाता है।
विक्रम जी मूल रूप से बांदा के रहने वाले थे। पिताजी यूपी सरकार में कहीं नौकरी करते थे। लेकिन जल्दी ही ये बागी हो गए। हाई स्कूल तो किया था पर आगे का पता नहीं। पिताजी से नाराजगी के बाद उन्होंने झांसी से अपना अखबार निकाला। उस दौरान की कई जोरदार कहानियां उनके पास थीं। बाद में लखनऊ में पत्रकारिता की। उनकी पत्नी की काफी पहले मौत हो गई थी। एक लड़की थी। वह आईआरएस हुई। बाद में उसने एक आईआरएस से ही शादी की। पति-पत्नी दोनों शायद भारत सरकार की ओर से जर्मनी गए और लंबे समय तक रहे। डेपुटेशन खत्म होने के बाद उन्होंने वहीं बसने का फैसला कर लिया। उसे कोई संतान नहीं थी। कुछ समय बाद पति-पत्नी में तनाव हुआ और दोनों अलग-अलग रहने लगे। बाद में जैसा कि विक्रम जी बताते थे इनकी बेटी की भी मौत हो गई।
बीच में विक्रम जी अहमदाबाद भी गए। गाजियाबाद आने से पहले वे वहीं रहते थे। वहां वे वायस ऑफ अमेरिका के संवाददाता थे। गाजियाबाद में रहते हुए भी वे कई बार दिल्ली जाते थे और अपनी बेटी की सहेलियों के यहां रुकते थे। उनकी बेटी की सहेलियां यहां इनकम टैक्स कमिश्नर या उससे भी ऊंचे पदों पर थीं। लेकिन विक्रम जी के आखिरी के दस साल नितांत अकेलेपन में बीते। न आगे कोई न पीछे। बस कुछ संगी साथी थे जो उम्र में उनसे बहुत छोटे थे। ज्यादातर हिंट में काम करने वाले या अतुल गर्ग के कर्मचारी।
बहुत पहले मैंने लुशुन की एक कहानी पढ़ी थी। उस कहानी को मैं अपनी पढ़ी गई विश्व की कुछ शानदार कहानियों में से एक मानता हूं। उसमें नायक-नायिका प्रेम विवाह करते हैं। लेकिन विवाह चल नहीं पाता और अलग हो जाते हैं। उसी अलगाव में तकलीफ उठाते हुए उसकी प्रेमिका की भी मौत हो जाती है। जब मौत होती है तो उसके पास कोई उसका अपना नहीं था। नायक सोचता है कि जीवन के आखिरी क्षणों में अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी नितांत अकेली आखिर वह क्या सोच रही होगी। जबसे विक्रम जी की मौत को देखा है तब से लुशुन वाला वही सवाल मस्तिष्क में घूम रहा है कि आखिर नितांत अकेले विक्रम जी आखिरी क्षणों में क्या सोच रहे होंगे।
कल जब सुदर्शना जी से विक्रम जी की हालत की सूचना मिली तो मित्र अखिल जी वहां गए। उनके सिर पर हाथ रखा। विक्रम जी कुछ बोल नहीं पाए। उनकी आवाज दो दिन पहले ही चली गई थी। उन्हें तीन चम्मच पानी पिलाया। मुझे फोन करके रात में बताया कि उनके प्राण नहीं निकल रहे हैं। जैसे किसी का इंतजार कर रहे हों। रात में ही मैंने उनके मित्रों को सूचना दी। उनके एक सहयोगी सुभाष शर्मा से बात भी हुई। मैंने उन्हें भी ये बात बताई। पर सुबह ही सूचना मिल गई कि अब वे नहीं रहे।
सुदर्शना जी ने बताया कि उनकी इच्छा थी कि उनकी देहदान कर दी जाए। उन्होंने मुझसे और अखिल जी से पूछा क्या करना चाहिए। हम दोनों ने भी उनकी अंतिम इच्छा का मान रखना ही उचित समझा। आश्रम में जाने पर उनसे कुछ फॉर्म भरवाए गए थे। आज जब हम पहुंचे तो अपने पते वाले फॉर्म पर उन्होंने अपना नाम, अहमदाबाद का पता, गाजियाबाद में पत्राचार के लिए हिंट वाला पता और बगल में मेरा नाम और फोन नंबर लिखा हुआ था। आंखें भर आईं।
मेरे वे कोई नहीं थे पर मन बहुत भारी है। मन का बोझ हल्का हो ही नहीं रहा। बार-बार लग रहा है कि कहीं वे मेरा भी तो इंतजार नहीं कर रहे थे। लुशुन की कहानी का वो वाक्य लगातार मेरे कान में गूंज रहा है कि नितांत अकेले विक्रम जी आखिरी क्षणों में क्या सोच रहे होंगे।
ASHHAR IBRAHEEM
July 4, 2022 at 9:12 pm
ओह दुःखद सूचना…
विक्रम जी से हिंट में मुलाक़ात हुई थी… कोविड के बाद लाकडाउन होने पर मैं विशेष रूप से उनके पास गया… कुछ जलपान की सामग्री, मैगी के पैकेट , और उनका छोटा गैस सिलेंडर भरवाया चीनी और चाय पत्ती लेकर दी… जिसके वो मुझे रूपये देने लगे.. मैंने कहा अभी नहीं बाद में ले लूंगा… जनता था वो नहीं चाहते के कोई उन पर एहसान करे.. उनसे अक्सर बातों में उनके बारे में जानना चाहा तो इतना ही बताया जो आपने लिखा है.. मेरा मोबाईल नम्बर उनके पास था.. और मैंने हमेशा उनसे कहा कोई भी चीज़ की ज़रूरत हो तो तुरंत बताइयेगा…लेकिन वो हमेशा इंकार करते थे.. सुना था गुस्सैल है.. मगर मुझे हमेशा स्नेह ही मिला उनसे.. उम्र में पिता तुल्य थे तो मैं हमेशा कहता था के आपके पुत्र सामान हूँ। .. तो किसी भी चीज़ का संकोच न करे..
ज़िंदगी की इस भाग दौड़ में पिछले दो सालों से उन का पता नहीं था.. किसी ने कहाँ दिल्ली है किसी ने कहाँ अब नहीं रहे.. मोबाइल कभी बंद तो कभी उठा नहीं.. आज इस खबर से पता चला के विक्रम जी अलविदा कह गए..एक खुद्दार आदमी बड़ी ख़ामोशी से दुनिया से चला गया। ..
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.. R.I.P
अशहर इब्राहीम , 9811448651