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सियासत

मोदी इतने श्रीहीन हो गए हैं कि वे दोबारा सत्ता में शायद ही आ पायें

पी. के. खुराना

उत्तर प्रदेश और राजस्थान में उपचुनावों की हार के बाद से लगता है कि भाजपा की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। दलित असंतोष चरम पर है, दूसरी ओर सवर्ण हिंदू आरक्षण के विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं। भाजपा के अपने सांसद भाजपा की खिल्ली उड़ा रहे हैं। यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा तो पुराने लोग हैं, वे स्वयं को वरिष्ठ मानते हैं और आज उपेक्षित हैं, पर उनकी कही बातें मीडिया में छपने के बावजूद पार्टी पर उसका कोई असर नहीं होता था। अरुण शौरी जैसे वरिष्ठ पत्रकार भी भाजपा के लिए अप्रासंगिक हैं। भाजपा इन में से किसी की परवाह नहीं करती। पर भाजपा के दलित सांसदों की मुखर आवाज़ मोदी और शाह के लिए चिंता का विषय है। व्यापारी वर्ग भाजपा से खुश नहीं है, युवा वर्ग भाजपा से खुश नहीं है, दलित वर्ग भाजपा से खुश नहीं है, सवर्ण हिंदु भाजपा से खुश नहीं हैं, मुसलमान और ईसाई भाजपा के कभी थे ही नहीं। दलितों और सवर्णों का टकराव भाजपा के गले की हड्डी है जो न निगलते बन रहा है न उगलते।

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भाजपा के सहयोगी दल अपनी उपेक्षा से परेशान हैं। तेलुगु देशम अलग हो चुकी है, शिवसेना हालांकि मंत्रिमंडल में शामिल है पर वह किसी विपक्षी दल से कम नहीं और उसने भी अगला चुनाव स्वतंत्र रूप से लड़ने की घोषणा कर दी है। राम बिलास पासवान जैसे सहयोगी भी हवा का रुख पहचान कर हिलने-जुलने लगे हैं। दक्षिणी राज्यों का असंतोष भाजपा के विजय अभियान के लिए बाधा बनकर उभर रहा है।
मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ जिस तरह से सुर्खियों में आये थे और यह लग रहा था कि भाजपा को एक जूनियर नरेंद्र मोदी मिल गया, वह खुशफहमी भी अब नहीं रही। सपा-बसपा मिलन ने विपक्ष को एकजुट रहने का नया मंत्र दिया है। रोज़-रोज नई चुनौतियां सामने आ रही हैं।

अपने शुरू के सालों में हर रोज़ नया नारा देकर मोदी ने अपनी झोली खाली कर ली है। जन-धन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना, नमामि गंगे योजना, सुकन्या समृद्धि योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, जीवन ज्योति बीमा योजना, सुरक्षा बीमा योजना, सांसद आदर्श ग्राम येाजना, फसल बीमा योजना, ग्राम सिंचाई योजना, गरीब कल्याण योजना, जन औषधि योजना, किसान विकास पत्र, स्मार्ट पुलिस योजना, मेक इन इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया, स्मार्ट सिटी योजना, स्वच्छ भारत अभियान आदि घोषणाओं में से कितनी ऐसी हैं जिनके बारे में आपको कोई चर्चा सुनने को मिलती है। अधिकारियों तक को इन योजनाओं का पता नहीं है। व्यवस्था में कोई ऐसा बड़ा परिवर्तन नहीं आया है जिससे हमारा जीवन आसान हो सके। हां, समाज में यह परिवर्तन अवश्य आया है कि सवर्ण हिंदुओं का एक वर्ग अब कट्टर बन गया है और मुसलमानों की ही नहीं बल्कि दलितों की भी शामत आ गई है। समाज बंट रहा है। सत्तापक्ष की शह पर झूठ की बड़ी फैक्ट्री खड़ी हो गई है और सोशल मीडिया पर भद्दी भाषा में धमकी भरे संदेश वायरल हो रहे हैं। असहमति जताने वालों को देशद्रोही बताया जा रहा है। भाजपा शासन के इन चार सालों में विकास के माडल की पोल भी खुल गई है। राज्यों में भाजपा का शासन आया है लेकिन सरकारी ढर्रे में कोई गुणकारी परिवर्तन नहीं आया। लोगों में निराशा है। मोदी की घोषणाओं की असफलता को छुपाने के लिए अजीबो-गरीब तर्क दिये जा रहे हैं। दरअसल, अब मोदी के पास न कोई नई नीति है और न ही नया कार्ड।

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सोशल मीडिया पर मोदी ही मोदी छाये हुए थे। विरोधियों का मज़ाक उड़ाया जा रहा था। उन्हें निकम्मा, हिंदु विरोधी और देशद्रोही तक कहा जा रहा था। गरूर ऐसा कि भाजपा के मुखिया ने विरोधियों को सांप, नेवला, कुत्ता, बिल्ली आदि कहने में भी संकोच नहीं किया। मोदी ने पारंपरिक मीडिया पर भी प्रभावी अंकुश लगा रखा था। बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि के विज्ञापनों की बौछार में नहाया हुआ मीडिया अपना दिमाग गिरवी रख चुका था। ऐसे में कुछ हिम्मती लोगों ने झूठ का प्रतिकार आरंभ किया। छोटी-छोटी कोशिशें धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगीं और झूठ-सच का अंतर सामने आने लगा। कई पत्रकारों ने आनलाइन समाचार पोर्टल शुरू किये और उन्होंने मोदी की राह पर चलने से इन्कार कर दिया। उन्हें बुरा-भला कहा जाने लगा लेकिन तूफान के बावजूद दिया जलता रहा। यह मोदी के प्रभामंडल की क्षीणता का प्रतीक है।
सहयोगियों की नाराज़गी, विभिन्न आंदोलनों और भाजपा के सामने दरपेश नई चुनौतियों का मिला-जुला परिणाम यह है कि मीडिया में ही नहीं, बल्कि भाजपा में भी यह सुगबुगाहट आम है कि मोदी के लिए सन् 2019 के चुनाव में 2014 को दोहराना संभव नहीं है। हां, यह सच है कि 2014 को दोहराना संभव नहीं है, पर क्या यह भी सच है कि मोदी इतने श्रीहीन हो गए हैं कि वे दोबारा सत्ता में न आ पायें? आइये, इसे समझने की कोशिश करते हैं।

कांग्रेस, सपा, बसपा, आरजेडी, टीडीपी और बीजेडी यदि मिल जाएं तो यह पक्का है कि भाजपा के लिए अपने दम पर बहुमत सपना हो जाएगा। अगर विपक्षियों के वोट न बंटें तो मोदी या शाह कुछ भी कह लें, कुछ भी कर लें, कितने ही फतवे दे लें, वे बहुमत नहीं ला सकते। देखना यह बाकी है कि विपक्षी दलों की एकजुटता का भविष्य क्या रहता है। फिर भी यह सच है कि सारी चुनौतियों के बावजूद इस एक तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि जिस तरह राज्यों में विपक्ष की जगह भाजपा की सरकार आने पर व्यवस्था में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं आया कि जनता को राहत महसूस हो, वैसे ही गैर-भाजपा शासित राज्यों में भी शासन-प्रशासन में कोई ऐसा बदलाव देखने को नहीं मिलता कि उसमें और भाजपा शासित राज्यों में कोई अंतर नज़र आये। मोदी की विदेश यात्राओं की आलोचना भले ही हुई हो, लेकिन इस सच की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि विश्व आज भारत को नई नज़रों से देखने लगा है।

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कुछ प्रदेशों में गैर-भाजपा सत्तारूढ़ दलों का अपना प्रभाव है, इसी तरह सपा-बसपा के मिल जाने से उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को नुकसान होगा, लेकिन ज्यादातर विपक्षी दलों के पास अपना कोई ऐसा विज़न नहीं है जो गवर्नेंस को प्रभावित करता हो। कांग्रेस को बिलकुल भी पता नहीं है कि उसके पास जनता को देने के लिए क्या है? जबकि नरेंद्र मोदी नैरेटिव गढ़ने में माहिर हैं, उनके पास अकूत धन है, पूरी सरकारी मशीनरी है, मजबूत और सक्रिय संगठन है। धन-बल, जन-बल और कथन, यानी, नैरेटिव के बल पर वे लोगों का दिल जीत सकते हैं, सारी कमियों के बावजूद जीत सकते हैं, इसलिए प्रधानमंत्री मोदी को कम करके नहीं आंका जा सकता।

मोदी को दूसरी सुविधा यह है कि उनके पास अमित शाह जैसा सहयोगी है जिसकी नज़र बहुत बारीक है। मतदान की तैयारी के लिए अमित शाह का विश्लेषण और रणनीति बहुत सटीक होती है। मोदी शुरू से ही अमित शाह की दो खूबियों के मुरीद रहे हैं। पहली यह कि अमित शाह नंबर वन नहीं होना चाहते, वे मोदी को नहीं काटना चाहते, और दूसरी यह कि कोई भी काम करने से पहले वे उससे जुड़ी छोटी से छोटी बात पर भी ध्यान देते हैं। उनकी ही पार्टी के अन्य नेताओं में यह गुण दुर्लभ है, अन्य दलों के नेताओं में भी यह गुण बहुत कम देखने को मिलता है। इसलिए जनता की नाराज़गी के बावजूद मोदी मजबूत हैं।

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मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही भाजपा और संघ की ओर से एक संयुक्त अभियान चलाया जा रहा है। जब भी कभी किसी बड़ी चुनौती से सामना होता है तो जनता का ध्यान भटकाने के लिए कोई भड़काऊ बयान सामने आ जाता है या कोई अन्य घटना घटित हो जाती है और भाजपा के आईटी सेल की पूरी फौज, भक्तगण तथा पूरा मीडिया उस अप्रासंगिक बयान या घटना पर चर्चा आरंभ कर देते हैं ताकि चुनौतीपूर्ण मुद्दा गौण हो जाए। आज मतदाता की समस्या यह है कि उसके एक तरफ कुंआ है और दूसरी तरफ खाई, उसे अंधों में से काना राजा चुनना है। यह एक बड़ा फैक्टर है और मोदी अब इसी का लाभ लेने की जुगत में हैं।

लेखक पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे. वे फिलहाल कई कंपनियों के संचालक हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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