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सियासत

‘आम’ नहीं ‘खास’ हो गए ‘आप’

आम आदमी पार्टी के साथ जो हो रहा है उसे लेकर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में खासी प्रसन्नता है। राजनीति के क्षेत्र में ऐसा कम ही होता है जब कोई नया दल मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को इस तरह हिलाकर रख दे। राजनीति के बने-बनाए तरीके से अलग काम करने और उसके अनुरूप आचरण से किसी को समस्या नहीं होती किंतु जब कोई दल नए विचारों के साथ सामने आता है तो समस्या खड़ी होती है।

<p>आम आदमी पार्टी के साथ जो हो रहा है उसे लेकर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में खासी प्रसन्नता है। राजनीति के क्षेत्र में ऐसा कम ही होता है जब कोई नया दल मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को इस तरह हिलाकर रख दे। राजनीति के बने-बनाए तरीके से अलग काम करने और उसके अनुरूप आचरण से किसी को समस्या नहीं होती किंतु जब कोई दल नए विचारों के साथ सामने आता है तो समस्या खड़ी होती है।</p>

आम आदमी पार्टी के साथ जो हो रहा है उसे लेकर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में खासी प्रसन्नता है। राजनीति के क्षेत्र में ऐसा कम ही होता है जब कोई नया दल मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को इस तरह हिलाकर रख दे। राजनीति के बने-बनाए तरीके से अलग काम करने और उसके अनुरूप आचरण से किसी को समस्या नहीं होती किंतु जब कोई दल नए विचारों के साथ सामने आता है तो समस्या खड़ी होती है।

आम आदमी पार्टी ने जिस तरह जाति, धर्म, क्षेत्र की बाड़बंदी तोड़कर दिल्ली चुनाव में सबका समर्थन प्राप्त किया, वह बात चौंकानेवाली थी। यह बात बताती है कि उम्मीदों और उजले सपनों की उम्मीद अभी भी देश की जनता में बाकी है। लोग चाहते हैं कि बदलाव हों और सार्थक बदलाव हों। लोग साथ आते हैं और साथ भी देते हैं। आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल निश्चय ही इस सपने को जगाने और भुनाने में सफल रहे हैं। किंतु यह मानना कठिन है, यह अकेले अरविंद का करिश्मा है। यह उस समूह का करिश्मा है, जिसने जड़ता को तोड़कर एक नई राजनीतिक शैली का वादा किया। इसमें अरविंद के वे साथी जो दृश्य में हैं शामिल हैं, वे भी हैं जो अदृश्य हैं। वे लोग भी हैं, जिन्होंने अनाम रहकर इस दल के लिए समर्थन जुटाया। वह समर्थन सड़क पर हो, सोशल मीडिया में हो या कहीं और।

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ऐसे में अरविंद केजरीवाल को अपने इन साथियों की उम्मीदों को तोड़ने का हक नहीं है। प्रशांत भूषण,योगेंद्र यादव, मयंक गांधी से लेकर अंजलि दमानिया के सवाल असुविधाजनक जरूर हो सकते हैं, पर अप्रासंगिक नहीं हैं। क्योंकि यह आदत स्वयं आम आदमी पार्टी ने उनमें जगाई है। आम आदमी पार्टी का चरित्र ही पहले दिन से ऐसा है कि वहां ऐसे सवाल उठेंगें ही। रोके जाने पर और उठेंगें। आम आदमी पार्टी का सच यह है कि वह अभी पार्टी बनी नहीं है। वह दल बनने की प्रक्रिया में है। उसका वैचारिक मार्ग भी अभी स्वीकृत नहीं है।वह विविध विचारों के अनुयायियों का एक ऐसा क्लब है, जिसने भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए सपना देखा और एकजुट हुआ। अब इस समूह ने आंदोलन की सीमाएं देखकर खुद सत्ता के सपने देखने शुरू किए हैं और बहुत आसानी से बड़ी सफलताएं पाई हैं। जाहिर है कि उन्हें इसका हक है कि वे सपने देखें और उनकी ओर दौड़ लगाएं। वाराणसी से लेकर अमेठी तक युद्धघोष करने वाली टीम अब दिल्ली की सत्ता में है और संभलकर चलना चाहती है। संभलकर चलना ऐसा कि दिल्ली देखें या देश यहां इसका सवाल भी अहम है।

राजनीतिक दलों में ऐसे वैचारिक द्वंद कोई बड़ी बात नहीं है। यह तो सब दलों में होता है। किंतु अरविंद केजरीवाल ने इन सवालों से निपटने का जो तरीका अपनाया वह सवालों के घेरे में है। “मुखिया मुख सो चाहिए खान-पान में एक” की उक्ति को केजरीवाल सार्थक नहीं कर पाए। उन्हें समस्या से निपटने के लिए व्यक्तिगत संवाद का तरीका अपनाना चाहिए था। वे यहीं चूक गए, उन्होंने अपने ‘गणों’ को यह काम सौंप दिया जो अपने नेता की भक्ति में इतने बावले हुए कि उनको मर्यादाओं का ख्याल भी न रहा। सत्ता और ऐसी बहुमत वाली सरकार किसी में भी अहंकार भर सकती है। अब सही मायने में ‘पांच साल केजरीवाल’ का नारा एक हकीकत है। देखें तो किसी भी सत्ता को सवाल खड़े करने वाले लोग नहीं सुहाते, इसलिए व्यक्तिगत आरोपों की लीला चरम पर है। अरविंद केजरीवाल के खेमे के माने जाने वाले मित्रों ने भी पत्र लिखे, ट्यूटर-फेसबुक पर कमेंट किए, टीवी इंटरव्यू दिए और पार्टी की बातें बाहर ले गए।

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इसी काम के लिए एक पक्ष को सजा और दूसरे पक्ष को मजा लेने की आजादी कैसे दी जा सकती है। यह ठीक है कि अरविंद बीमार हैं, उन्हें अपना स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए बाहर जाने की आजादी है। किंतु वह विवादित बैठक भी टाली जा सकती थीं और संवाद के लिए नए रास्ते खोजे जा सकते थे। क्या ही अच्छा होता कि प्रशांत-योगेंद्र यादव का सर कलम करने से पहले अरविंद इस बैठक को स्थगित करते, स्वास्थ्य लाभ लेने बंगलौर जाते और वहां एक-एक को बुलाकर सीधी बात कर लेते। इससे संवाद के सार्थक क्षण बनते और एक- दूसरे के प्रति प्रायोजित सद्भाव मीडिया में भी दिखता। इससे निश्चित ही रास्ते निकलते। किंतु अरविंद के उत्साही मैनेजरों ने पार्टी को 8-11 में बंटा हुआ साबित कर दिया और यह भी साबित किया कि उनको संवाद नहीं मनमानी में यकीन है। यह आश्चर्य ही है कि पार्टी के भीतर आपसी संवाद से ज्यादा संवाद नेताओं ने टीवी चैनलों पर किया।

आम आदमी पार्टी की यह टीवी चपल और वाचाल टीम आज बेकार वक्तव्यों, ट्वीट्स व आरोपों-प्रत्यारोंपों के बीच फंसी हुयी है।यह बात उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता को ही प्रकट करती है। अरविंद केजरीवाल निश्चय ही पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा हैं। वे इस दल की धुरी हैं किंतु कोई भी संगठन एक नेता की छवि पर नहीं चलता, उसे ताकत देने वाले लोग बड़ी संख्या में पीछे काम करते हैं। नेपथ्य में काम कर रहे लोगों की एक शक्ति होती है और वे दल का आधार होते हैं। आम आदमी पार्टी ने स्टिंग के जो खेल खेले, आज उस पर भारी पड़ रहे हैं। हर व्यक्ति एक- दूसरे को अविश्वास से देख रहा है। एक दल का मुख्यमंत्री और विधायक भी अगर संवाद के तल पर आशंकाओं से घिरे हों तो क्या कहा जा सकता है। विधायक स्टिंग कर रहे हैं और अपने नेताओं को बेनकाब कर रहे हैं। यह अविश्वास राजनीतिक क्षेत्र में पहली बार इस रूप में प्रकट होकर जगह पा रहा है।

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एक राजनीतिक दल के नाते ही नहीं, एक मनुष्य होने के नाते हमारे सारे क्रिया-व्यापार भरोसे की नींव पर चलते हैं किंतु आम आदमी पार्टी इन स्टिंग आपरेशनों की प्रणेता के रूप में उभरी हैं- जहां अविश्वास ही केंद्र में है। भरोसे का यह संकट बताता है कि अभी भी आम आदमी पार्टी को एक दल की तरह, एक परिवार की तरह व्यवहार करना सीखना है। वे सब आंदोलन के साथी हैं, पर लगता है कि इतनी जल्दी सफलताओं ने उन्हें बौखला दिया है। क्या वे जीत को स्वीकार कर विनयी भाव से जनसेवा की ओर अग्रसर होगें या उनकी परिवार की महाभारत और नए रंग दिखाएगी कहना असंभव है। ऐसे कठिन समय में अरविंद केजरीवाल की यह जिम्मेदारी है कि वे जब स्वस्थ होकर लौटें तो कारकूनों के बजाए संवाद की बागडोर स्वयं लें। आज भी बहुत कुछ बिगड़ा नहीं है और लड़कर सबने अपनी हैसियत भी बता दी है कि हमाम में सब नंगें हैं। इन्हें फिर एक मंच पर लाना आम आदमी पार्टी के नेता होने के लिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी अरविंद केजरीवाल की ही है। वे माफी मांगकर दिल्ली का दिल जीत चुके हैं, साधारण संवाद से फिर से अपनों का दिल भी जीत सकते हैं। किंतु इसके लिए उन्हें खुद का दिल भी बड़ा करना पड़ेगा। उम्मीद तो की जानी चाहिए कि वे बंगलौर से कुछ ऐसी ही उम्मीदें जगाते हुए दिल्ली लौटेंगें।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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