विजय सिंह ठकुराय-
हम सबके शरीर में “लेरेंजियल नर्व” नामक एक नस होती है, जो दिमाग को हमारे गले में स्थित स्वरग्रंथियों अर्थात “लेरिंक्स” से जोड़ने का काम करती है। इसकी सहायता से जो हम सोचते हैं, वो बोल पाते हैं।
अब होना तो यह चाहिए कि यह नर्व दिमाग से शुरू होकर गले पर खत्म हो जाये – पर नहीं। पहले यह नर्व खामखाह आपके हृदय तक जाती है, फिर महाधमनी के इरगिर्द लपेटा मार कर, फिर ऊपर जा कर, आपके गले पर खत्म होती है।
है न बेफकूफ़ी वाली बात? किसी बुद्धिमान शक्ति द्वारा जीवन के सृजन को मानते हुए इस विसंगति को कभी जायज नहीं ठहराया जा सकता। पर अगर आप इवोल्यूशनरी नजरिये से देखें, तो यह गड़बड़ तुरंत तर्कसँगत प्रतीत होने लगेगी।
ऐसा इसलिए है क्योंकि थल पर मौजूद सभी प्रकार के जीवन का उद्भव जल में पाए जाने वाले मछली सरीखे जीवों से हुआ है। मछलियों में यह नर्व दिमाग से शुरू होकर एक लूप बना कर गले तक जाती थी।
अब एवोल्यूशन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह नया कुछ भी उत्पन्न नहीं कर सकता। बल्कि जो चीज पैदा हो गयी है, उसमें संशोधन मात्र कर सकता है। इसलिए आगे भी एवोल्यूशन ने इस नर्व के पूर्ववत पैटर्न को ही फॉलो किया।
अब मछली चूंकि छोटी जीव होती है, इसलिए वहां कोई समस्या नहीं थी। लेकिन समय के साथ, बड़े-बड़े जीवों के अस्तित्व में आने के कारण इस नर्व की वर्तमान स्थिति बेहद हास्यास्पद हो गयी है। जिराफ जैसे जीवों में तो यह नर्व जरूरत भर की कुछ इंच लंबी होने की बजाय 15 फुट तक अनावश्यक लंबी हो गयी है।
Needless to say… इसी मूर्खतापूर्ण डिज़ाइन, अर्थात इस नर्व के अनावश्यक रूप से हृदय तक जाने के कारण, छाती पर चोट लगने के कारण भी लोगों की आवाज हमेशा के लिए जा सकती है, और जाती भी है।
यह एक उदाहरण मात्र है। ऐसे न जाने कितने उदाहरण मैं पूर्व में दे चुका हूँ, जो साबित करते हैं कि स्थूल रूप से देखने पर मानव शरीर एक बुद्धिमान कृति प्रतीत होता है।
पर ज्यो-ज्यो सूक्ष्मता में आप उतरते हैं – त्यों-त्यों मानव शरीर किसी बुद्धिमान शक्ति की रचना प्रतीत होने की बजाय किसी नौसिखिए द्वारा “जुगाड़बाजी से बनाया हुआ प्रोडक्ट” ज्यादा प्रतीत होता है।
यही कारण है कि मैं हमेशा कहता हूँ – एवोल्यूशन एक मूर्खतापूर्ण प्रक्रिया है – ये परफेक्शन से ज्यादा “कामचलाऊ जीव” उत्पन्न करने में ज्यादा यकीन रखती है।