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उत्तर प्रदेश

दस मार्च की खलबली : यूपी में किसी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तब किसे बुलाएंगी राज्यपाल?

सुदीप ठाकुर-

भाजपा के वरिष्ठ नेता अमित शाह ने जब जनवरी के आखिरी हफ्ते में राष्ट्रीय लोकदल और सपा के गठबंधन की घोषणा के बाद यह कहा था कि जयंत चौधरी गलत घर में चले गए, तब उनके इस बयान को चुनावी पैंतरे की तरह ही देखा गया था। जयंत चौधरी ने भी अमित शाह के बयान को तुरंत खाजिर कर दिया था और कहा था कि यह मतदाताओं को भ्रम में डालने की कोशिश है। उसके बाद भी दोनों के बीच बयानबाजी होती रही। हाल ही में अमित शाह के एक और बयान ने ध्यान खींचा, जब उन्होंने कहा कि मायावती ने अपनी प्रासंगिकता नहीं खोई है और बसपा को अनेक सीटों पर मुस्लिम भी वोट करेंगे।

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अमित शाह लगातार यह दावा भी कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार दोबारा सत्ता में आएगी। मगर उनके ये दो बयान उन संभावनाओं की ओर भी इशारा करते हैं, जो शायद दस मार्च के बाद के परिदृश्य में नजर आएं।

जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं, उनमें उत्तर प्रदेश पर सबकी नजर है। बृहस्पतिवार को उत्तर प्रदेश में छठे चरण के चुनाव के बाद एक और चरण रह गया है। उत्तर प्रदेश आबादी और विधानसभा क्षेत्र के लिहाज से देश का सबसे बड़ा सूबा है, मगर इतनी लंबी चुनाव प्रक्रिया केंद्रीय चुनाव आयोग की क्षमता पर सवाल खड़ा करती है। वैसे चुनाव आयोग पर अलग से लिखे जाने की जरूरत है।

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उत्तर प्रदेश में सात चरणों में फैली चुनाव प्रक्रिया ने नतीजों को लेकर लगाए जा रहे चुनावी पंडितों और विश्लेषकों के गणित को भी गड़बड़ा दिया है। असल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पहले चरण से लेकर पूर्वांचल के सातवें चरण के आते-आते गंगा, यमुना, गोमती, सरयू, गंडक, केन और बेतवा में काफी पानी बह चुका है!

चुनाव भारतीय लोकतंत्र का यदि सबसे पसंदीदा शगल है, तो उसके नतीजों की अटकलें दिलचस्प बाजी। शायद यही ठीक समय है, जब हम उत्तर प्रदेश के संभावित नतीजों पर बात कर सकते हैं। सात मार्च को अंतिम चरण के बाद खबरिया चैनलों में एक्जिट पोल आ ही जाएगा।

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अव्वल तो यह कि उत्तर प्रदेश का यह चुनाव 2017 से इस मायने में अलग है, कि भाजपा ने स्पष्ट तौर पर योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर चुनाव लड़ा है। 2017 में वह चुनाव जीतने के बाद परिदृश्य में आए थे। जाहिर है, इस बार सबसे बड़ा दांव उनका है। हालांकि उनके साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पूरी मशीनरी लगी रही है।

अब आइये जरा संभावित नतीजों पर बात करते हैं। यदि भाजपा गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिल जाता है, तो राज्यपाल के लिए कोई मुश्किल नहीं होगी और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने रहेंगे। यदि सपा और रालोद के गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिल जाता है, तो इसमें कोई शक नहीं है कि अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बन जाएंगे, भले ही मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों के लिए खींचतान हो।

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मगर विधानसभा में किसी भी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला, तब क्या होगा? राज्यपाल आनंदीबेन पटेल किसे आमंत्रित करेंगी?

आगे बढ़ने से पहले नवंबर 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव पर गौर किया जा सकता है। वहां 288 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा 105 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। शिवसेना को 56, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं।

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राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने 23 नवंबर, 2019 को नाटकीय तरीके से भाजपा के देवेंद्र फड़नवीस को रातों-रात मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला तो दी, लेकिन कुछ घंटे के भीतर ही एनसीपी के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने पाला बदल लिया। तीन दिन के भीतर 26 नवंबर को सरकार गिर गई। उसी दिन शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने महाराष्ट्र विकास अघाड़ी का गठन कर लिया और उद्धव ठाकरे को अपना नेता चुन लिया। इस तरह पिछले ढाई साल से उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं।

उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरण महाराष्ट्र से कम जटिल नहीं हैं। राज्यपाल आनंदीबेन पटेल संभावित नतीजों के आधार पर विधायी स्थितियों का आकलन कर ही रही होंगी। फिर भी, यह देखना दिलचस्प होगा कि यदि किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं मिला तब क्या होगा?

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मोटे तौर पर इस तरह की कुछ तस्वीर उभर सकती हैः

  1. किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन भाजपा सबसे बड़ा दल।
  2. किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन भाजपा गठबंधन को सर्वाधिक सीटें।
  3. किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन सपा गठबंधन को सर्वाधिक सीटें।
  4. किसी गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन सपा सबसे बड़ी पार्टी
  5. किसी गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन सपा गठबंधन को कांग्रेस के साथ बहुमत
  6. किसी को गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन भाजपा गठबंधन को बसपा के साथ बहुमत

यदि हम गणित के Permutation & Combination के आधार पर गणना करें, तो और भी विकल्प उभर सकते हैं। मसलन बसपा यदि सबसे बड़े दल के रूप में उभरी तब? आखिर डेढ़ दशक पहले बसपा ने अपने दम पर उत्तर प्रदेश में बहुमत हासिल किया था। बेशक, संपूर्णानंद लगातार पांच साल 344 दिनों तक अविभाजित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे, मगर लगातार दो कार्यकाल (28 दिसंबर, 1954 से 9 अप्रैल 1957 और फिर 10 अप्रैल, 1957 से छह दिसंबर, 1960 तक) के रूप में। मगर मायावती पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाली सूबे की पहली मुख्यमंत्री बनी थीं।

उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरणों को समझने के लिए यह भी देख लें कि आखिर इस चुनाव में कौन से प्रमुख दल और गठबंधन मैदान में हैंः भाजपा गठबंधन में भाजपा, निषाद पार्टी, अपना दल (सोनेलाल) शामिल हैं। सपा गठबंधन में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल (कमेरावादी), महान दल, राष्ट्रीय लोकदल शामिल हैं। इन दो बड़े गठबंधनों के अलावा बसपा, कांग्रेस और अससुद्दीन ओवैसी की एआईएमएम भी मैदान में है।

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विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में सांविधानिक प्रावधानों और राज्यपाल की भूमिका पर गौर करने से पहले चार साल पहले 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव पर भी नजर डाली जा सकती है।

कर्नाटक में किसी को बहुमत नहीं मिला था। 104 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी। कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए को 80 सीटें मिली थीं और जनता दल (एस) को 37। यूपीए और जनता दल (एस) की सीटें मिला दी जाएं तो उन्हें बहुमत हासिल था। मगर उनके दावे को तरजीह न देकर राज्यपाल वजूभाई वाला ने भाजपा के नेता येदियुरप्पा को 17 मई, 2018 को शपथ दिला दी और बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय दे दिया।

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नाटकीय घटनाक्रम में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया और देर रात चली सुनवाई के बाद येदियुरप्पा मुख्यमंत्री तो बने रहे, लेकिन छह दिन बाद 23 मई, 2018 को बहुमत न जुटा पाने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उनके हटने के बाद कांग्रेस के समर्थन से जनता जल (एस) के कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बन गए।

कांग्रेस के विधायकों का एक धड़ा निकलने के बाद वहां फिर से भाजपा की सरकार बन गई, यह एक अलग कहानी है।

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महाराष्ट्र हो या कर्नाटक, या ऐसे किसी राज्य में जहां विधानसभा चुनाव में किसी दल को बहुमत न मिला हो, सरकारिया कमीशन की सिफारिश पर भी गौर किया गया है। 1983 में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में सरकारिया आयोग ने केंद्र राज्य संबंधों के साथ ही राज्यपाल की भूमिका को परिभाषित किया है।

इसके मुताबिक यदि किसी दल को विधानसभा चुनाव में बहुमत न मिले तो राज्यपाल निम्न तरह से किसी दल या गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं:

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  1. चुनाव पूर्व सबसे बड़े गठबंधन को यदि उसके पास बहुमत हो।
  2. निर्दलीय सहित अन्य दलों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश करने पर सबसे बड़े दल को।
  3. चुनाव बाद बने गठबंधन को, यदि सारे सहयोगी गठबंधन सरकार में शामिल हो रहे हों।
  4. चुनाव बाद बने गठबंधन को जिसमें कुछ सहयोगी तो सरकार में शामिल हो रहे हों और बाकी उसे बाहर से समर्थन देने को तैयार हों।

वैसे जस्टिस मदन मोहन पुंछी की अगुआई वाले पुंछी आयोग ने भी 2010 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में चुनाव के बाद राज्यपाल की भूमिका पर गौर किया। उनकी सिफारिशें भी सरकारिया आयोग की सिफारिश से मिलती-जुलती हैं।

बुनियादी बात यह है कि चुनाव के नतीजे आने के बाद राज्यपाल आश्वस्त हों कि किसी भी दल या बहुमत का जो दावा किया जा रहा है, उसे सदन में साबित किया जा सकेगा। यहीं पेंच फंसा हुआ है, क्योंकि एक बार सरकार बनाने के बाद समर्थन जुटाने के लिए जोड़तोड़ शुरू हो जाती है। गुड़गांव से लेकर गुजरात और बंगलुरू से लेकर देहरादून तक के सितारा होटल और रेसार्ट विधायकों की मेजबानी के लिए तैयार हो जाते हैं।

क्या उत्तर प्रदेश के भावी विधायकों को ऐसी पांच सितारा मेहमाननवाजी का मौका मिलेगा? इसका जवाब जानने के लिए दस मार्च तक इंतजार कीजिए।

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