Inbox
Dhiraj Kumar [email protected]
Sun, Nov 4, 2012, 8:34 AM
to yashwant, me
Translate message
Turn off for: Hindi
ज़ी-जिंदल प्रकरण पर जब सीएमएस-मीडिया ख़बर ने सेमिनार आयोजित करने के
लिए फेसबुक पर इवेंट बनाया तो संयोगवश मैं भी ऑन लाइन था। मैंने फौरन उसे
ऐक्सेप्ट कर लिया। मुझे लगा, इस मुद्दे पर बहस बेहद जरूरी है। ये भी
देखने की इच्छा हुई कि आख़िर कौन-कौन ऐसा दूध का धुला है जो सुधीर चौधरी
पर पत्थर फेंकने की दावेदारी रखता है?
तयशुदा जगह पर पहुंचा तो देख कर थोड़ा अटपटा लगा कि इस मुद्दे पर
अपने-अपने चैनलों पर चीख-चीख कर खुद को बेदाग साबित करने में जुटा कोई भी
चैनल हेड या उसका प्रतिनिधि (न्यूज़ एक्सप्रेस को छोड़ कर) भी नहीं आया।
टीवी के कुछ बड़े नाम, जैसे क़मर वहीद नक़वी, एन के सिंह, राहुल देव आदि
मौज़ूद तो थे, लेकिन सब ने सीधा ज़ी न्यूज़ या जिंदल को दोषी ठहराने की
बजाय व्यवस्था की कमियों पर ही जोर दिया। सेमिनार एक गोलमेज़ सम्मेलन की
शक्ल में था जिसमें करीब-करीब सबों ने अपनी बातें रखीं।
कुछ ऐसे नौजवानों की टीम भी थी जो बड़े नामों को छोटा दिखा कर ही संतुष्ट
होने में जुटी थी। किसी ने संपादक को गलत माना तो किसी ने मालिक को,
लेकिन ऐसे लोग खुद शान से बता रहे थे कि वे कितने महीनों या कितने सालों
से बेरोज़गार हैं। हालांकि इस मुद्दे पर लगभग सभी एकमत दिखे कि सुधीर
चौधरी ने बड़ा पाप कर डाला और मीडिया वालों की धो डाली। तकरीबन सभी ने ये
भी माना कि सिर्फ सुधीर और समीर ही पकड़े गए हैं, जबकि ऐसे सफेदपोश चोरों
की भरमार है जो बेनकाब नहीं हुए हैं।
बीईए की तरफ़ से महासचिव एन के सिंह ने बड़े ही विस्तार से बताया कि
क्यों और कैसे सुधीर चौधरी को बीईए से निकाला गया, लेकिन ये बताने में
टालमटोल कर गए कि जब वो पहले से ही उमा खुराना मामले के दोषी थे तो
उन्हें सदस्यता और एक्ज़ीक्यूटिव बॉडी में स्थान कैसे मिल गया था? नक़वी
जी ने कहा कि इस तरह के मामलों में पत्रकारों को सेल्फ रेग्यूलेशन यानी
आत्म-नियंत्रण की जरूरत है क्योंकि सरकार से कोई नियम-कानून बनाने को
कहना भी प्रेस की आज़ादी के लिए आत्मघाती कदम होगा।
व्यवस्था और संपादकों पर दोष देने वाले तो लगभग सभी थे, लेकिन कुछ अलग
हटके भड़ास4मीडिया के संपादक यशवंत ने एक ज़िक्र छेड़ा कि आख़िरकार
संपादक बने पत्रकार से जब विज्ञापन लाने के लिए कहा जाता है तो उसे बुरा
क्यों लगता है जबकि सीईओ बनते वक्त उसे कुछ भी बुरा नहीं लगता..? दरअसल
सीईओ एक ऐसा पद है जिसे एडीटोरियल के अलावा मार्केटिंग और डिस्ट्रीब्यूशन
भी रिपोर्ट करते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि सभी विभागों से जवाब मांगने
वाले संपादक महोदय को उन विभागों के काम-काज़ न करने पर मालिक से फ़टकार
तो मिलेगी ही।
अधिकारी ब्रदर्स के अखबार गवर्नेंस नाउ के संपादक बीवी राव शायद सेमिनार
में मौज़ूद इकलौते नौकरीपेशा पत्रकार थे। उन्होंने पश्चिमी देशों, खासकर
अमेरिका का उदाहरण देकर कहा कि भारत में भी मीडिया घरानों को ‘क्रॉस
मीडिया क्रिटिसिज़्म’ यानी एक-दूसरे के बारे में खबरें दिखाने या आलोचना
करने की जरूरत है और तभी वे सेल्फ रेग्यूलेटेड हो पाएंगे। मसलन अगर ज़ी
न्यूज़ ने गलत किया तो दूसरे समाचार चैनलों पर उसके बारे में खबरें दिखनी
चाहिए और अखबार भी एक-दूसरे की नीतियों पर सवाल खड़े करें।
हालांकि ऐसा होने में इस बात का ख़ासा डर है कि अख़बार आपस में ही उलझ कर
न रह जाएं और सरकार या पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतलियां न बन जाएं।