विवेक सत्य मित्रम-
12th Fail देखी। इस दौरान कई बार आँखें नम हुईं। कितना कुछ एक झटके में तैर गया फ़्लैशबैक में। साल 1999 में बीए करने के लिए इलाहाबाद जाते हुए बाबूजी ने कहा था — “हम पीसीएस फीसीएस के कुछु ना जानिला, कुछ बने के होई त आईएएस बन जइह!” तब नहीं मालूम था कि आईएएस क्या होता है। बस इतना समझ आया कि कुछ बहुत बड़ी बात होती होगी क्योंकि बाबूजी की नज़र में इसकी वैल्यू सबसे ज़्यादा है।

लेकिन बाबूजी ने एक और बात कही थी — “पाँच साल बा तोहरा पास, ओही में जवन करे के होई, क लीह, अउरिओ लइका लइकी घर में बान स इलाहाबाद पढ़ें ख़ातिर!” ये बात मेरे मन में चट्टान पर खिंची लकीर की तरह अंकित हो गई। जब सभी बच्चे ग्रेजुएशन की पढ़ाई लिखाई के बारे में सोच रहे थे मैं पहले दिन से आईएएस की तैयारी करने लगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने सबसे पहले अपने सिलेबस की किताबें नहीं ख़रीदी। मैंने एनसीआरटी की इतिहास, भूगोल की किताबें ख़रीदीं और भयावह दिखने वाली जनरल नॉलेज की यूनिक गाइड (शायद यही कहते थे उन दिनों) ख़रीदी। मैं यूनिवर्सिटी सिर्फ़ फ़िलासफ़ी की क्लास करने जाता था। क्योंकि उसमें मेरी अतिरिक्त रूचि थी। बाक़ी समय कमरे पर रहता था। पढ़ता रहता था दिन रात।
सिविल की तैयारी पहले दिन से शुरू हो गई थी। कैंपस में कोई लाइफ़ नहीं थी मेरे लिए। दोस्त यार बहुत ही सीमित थे। मौज मस्ती का कोई मतलब नहीं था। ना तो समय था। ना पैसे थे। ना ऐसे दोस्त यारों की सोहबत थी। ग्रेजुएशन सिर्फ़ नाम के लिए कर रहा था। पढ़ाई सिर्फ़ सिविल के हिसाब से हो रही थी। छह महीने में ही तैयारी ऐसी थी कि सिविल के पुराने पेपर सॉल्व करते हुए मॉक टेस्ट में उन वरिष्ठों से ज्यादा नंबर स्कोर करता था जो कई सालों से लगे हुए थे/ कुछ तो कई बार प्री/ मेन्स क्लीयर कर चुके थे।
अपने दो दोस्तों के साथ रूम शेयर करता था। महीने के खर्च के लिए उनमें से एक को 1500 रूपये मिलते थे और 2-4 सौ माँ से मिल जाते थे पिता से छिपाकर क्योंकि पिताजी सरकारी अफ़सर थे और वो इकलौता बेटा। औसतन कुल मिलाकर उसे 1800 से 2000 तक मिल जाते थे। दूसरे को फ़िक्स 1500 रूपये की रक़म मिलती थी बिना किसी ऊपरी आमदनी के। तीसरा मैं। मुझे औसतन 900 से 1000 रूपये मिलते थे। वो भी कभी समय से नहीं मिले। नतीजा ये होता कि मैं अक्सर उधार लेकर किसी तरह काम चलाता।
हम साथ तो रहते थे लेकिन हमारी लाइफ़स्टाइल में फ़र्क था। क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था में फ़र्क था। खाना तो साथ बनता था लेकिन बाक़ी चीज़ें अलग थीं। मसलन वो दोनों अपने लिए दूध मंगाया करते थे। मैं वो अफोर्ड नहीं कर सकता था। हम सुबह उठते तो साथ ही थे लेकिन नाश्ता करने अलग-अलग जाते थे। सबसे पहले हमारा पहला साथी अकेले निकलता रूम से और चाय, समोसा, जलेबी, ब्रेड पकौड़ा इत्यादि के बाद थोड़ा पान/ गुटखा चबाकर आ जाता। फ़िर मेरा दूसरा साथी निकलता और चाय/ समोसा या ब्रेड पकौड़ा खाकर लौटता। और आख़िर में मैं निकलता और नाश्ते के नाम पर ज्यादातर बार चाय पीकर लौट आता। कभी कभी ये भूल जाता कि मेरे पास समोसा/ ब्रेड पकौड़ा खाने की औक़ात नहीं है। महीने में 5-6 बार वैसे दिन भी आते थे लेकिन आम दिनचर्या ऐसी ही थी। फ़िल्म देखने का प्लान होता तो अक्सर टिकट कोई और लेता और मैं उसे बाद में पैसे लौटाता।
वो भी क्या ग़ज़ब दिन थे। आभाव में जीने वाला मैं कोई अकेला किरदार नहीं था इलाहाबाद में। ज़्यादातर लोग ऐसे ही जी रहे थे। आँखों में नीली बत्ती वाली गाड़ी के सपने लिए। बहुत तो मेरी जैसी स्थिति में भी नहीं थे। कितने लोग कितनी बार मेन्स/ इंटरव्यू तक जाने के बाद भी रह जाते। और अटेंप्ट ख़त्म होने के बाद क्लर्क/ चपरासी जैसी नौकरियों के लिए तैयारी करने लगते। बहुत मुश्किल हालात में जीने वालों को भी देखा। उन्हें देखकर अपनी चीजें काफ़ी बेहतर लगने लगतीं। इलाहाबाद में तीन साल रहा। बहुत कुछ देखा क़रीब से। बहुत कुछ सीखा। सपने पूरे होते देखे। सपने टूटते देखे। मगर उम्मीदें कभी ख़त्म नहीं होती थीं। भयानक आभाव और तनाव के बीच जीते हुए भी लोगों की जीजिविषा में कोई कमी नहीं आती थी। वो फ़िर उठ खड़े होते। कितनों को ही इलाहाबाद से खाली हाथ लौटना पड़ा होगा पर वो जहां भी लौटे वहां अपने आस-पास इलाहाबाद बना दिया।
मैं तीन साल बाद दिल्ली आ गया। क्योंकि आईएएस की तैयारी तो ज़बरदस्त थी। पर मेरी उम्र कम निकली। प्रीलिम्स में अपीयर होने के लिए मेरी उम्र कम पड़ गई। बाबूजी ने सिर्फ़ पाँच साल दिये थे। इसलिए घर लौटने के डर में मैंने IIMC से 9 महीने के पत्रकारिता के कोर्स में दाख़िला ले लिया। और फ़िर आईएएस बनने का सपना कहीं पीछे छूट गया। बतौर पत्रकार काम करते हुए। तमाम ब्यूरोक्रेट्स से मिलने के बाद ये समझ में आ गया कि मैं इनमें से एक हो सकता था। इट वॉज नॉट अ बिग डील। पर ये भी समझ आया कि मैं उसके लिए बना नहीं था। वैसे भी मैंने सोचा था कि नौ महीने बाद वापस इलाहाबाद लौटकर तैयारी करूँगा लेकिन जब मैंने बाबूजी को आईआईएमसी से कोर्स करने के बाद सहारा समय में इंटर्नशिप करते हुए इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा — “इहो त ठीके लागत बा!” और उसके बाद जो कुछ हुआ वो इतिहास है।
12th फेल देखकर ये सब कुछ एक बार में मेरी आँखों के सामने से घूम गया। और सालों बाद याद आया वो इलाहाबाद जिसने दिल्ली में जीने के काबिल बनाया। ये कहने में कोई संकोच नहीं कि अगर मैं इलाहाबाद नहीं जाता तो शायद बहुत कुछ नहीं कर पाता जो कर पाया — बिना डरे, बिना झुके। पाताल के गर्त में पहुँचकर भी आसमान की औक़ात नापने का दम इलाहाबाद से मिला। शुक्रिया विधु विनोद चोपड़ा का जिन्होंने दिल्ली के मुखर्जी नगर के बहाने मुझे मेरे इलाहाबाद से मिलवाया। वैसे अच्छी फ़िल्म है। वन टाइम वॉच।