प्रिय साथियों,
विकास संवाद की ओर से आपको बहुत शुभकामनाएं. पिछले आठ सालों से हम हर साल राष्ट्रीय मीडिया संवाद का आयोजन कर रहे हैं। इसका मकसद है जनसरोकारों के मुद्दों पर पत्रकारों के बीच एक गहन संवाद स्थापित करना है. पचमढ़ी से शुरू होकर संवाद का यह सिलसिला बांधवगढ़, चित्रकूट, महेश्वर, छतरपुर, पचमढ़ी, सुखतवा, चंदेरी तक का सफर तय कर चुका है। इन ऐतिहासिक जगहों पर आयोजित सम्मेलनों में हमने, पत्रकारिता, कृषि, आदिवासी आदि विषयों पर बातचीत की है। इन सम्मेलनों में कई वरिष्ठ पत्रकार साथियो ने भागीदारी की है।
शुरुआती सालों में हमने इस संवाद को किसी एक विषय से बांधकर नहीं रखा, लेकिन आप सभी साथियों के सुझाव पर महेश्वर से हमने इस संवाद को विषय केन्द्रित रखने की शुरुआत की। इस बार हम इस संवाद को स्वास्थ्य के विषय पर बातचीत के लिए प्रस्तावित कर रहे हैं। स्वास्थ्य एक ऐसा विषय है जिससे हर व्यक्ति सरोकार रखता है। स्वास्थ्य पर हमारे देश में जो स्थितियां हैं उससे यह भी निकलता है कि देश में जनस्वास्थ्य की स्थितियां कमोबेश बेहतर नहीं हैं। खासकर मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय समाज में बेहतर स्वास्थ्य रखना और बिगड़े हुए स्वास्थ्य को दुरुस्त करवाना खासा मुश्किल हो रहा है। स्वास्थ्य के निजीकरण ने इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र से लाभ आधारित व्यवस्था का पर्याय बना दिया है। ऐसी स्थितियों में हम स्वास्थ्य के अलग—अलग आयामों को सुनना—समझना चाहते हैं। इस विषय पर बात करने के लिए हमें पश्चिमी मध्यप्रदेश का झाबुआ जिला बेहतर लगता है। यहां पर बैठकर संवाद करना और जमीनी स्थितियां देखना दोनों ही इस सम्मेलन को सार्थकता प्रदान करेंगे निश्चित ही।
इस बार हम आपको ले चल रहे हैं झाबुआ। झाबुआ सुनकर हमारे जेहन में दो ही तस्वीरें सामने आती हैं। एक तो इसका सांस्कृतिक आधार जिसमें भगोरिया से लेकर और भी कई रंग हैं। और दूसरा इसका स्याह पक्ष, गरीब, पिछड़े और बीमारू होने का। यह देश के उन चंद जिलों में है जहां कि आदिवासी आबादी 89 प्रतिशत तक है, लेकिन स्थितियां इतनी भयावह और डरारने वाली हैं जिन्हें यहां पर बहुत सामान्यत: देखा, समझा जा सकता है। गरीबी की स्थितियों ने यहां पर पलायन को विकराल रूप में पेश किया है। पलायन ने यहां पर सिलिकोसिस को जानलेवा बना दिया है। बच्चे बीमार हैं, कुपोषण भयानक है और इसके चलते बच्चे बड़ी संख्या में हर साल मरते हैं। पीने के पानी का संकट यहां पर फ्लोरोसिस पैदा करता है। खेती भी अब वैसी नहीं बची, इससे इलाके की पोषण सुरक्षा लगातार घटी है और उसके चलते सबसे ज्यादा जो स्थितियां दिखाई देती हैं वह किसी न किसी तरह की बीमारी के रूप में सामने आती हैं।
केवल झाबुआ नहीं। स्वास्थ्यगत नजरिए से जब हम देखते हैं तो हमे अगड़े माने जाने वाले संपन्न इलाकों में भी ऐसी ही तस्वीरें दिखाई देती हैं। वरिष्ठ पत्रकार पी साईंनाथ का एक तर्क तो यही है कि हमारा समाज और गरीब इसलिए है, हो रहा है क्योंकि हमारे यहां स्वास्थ्य के मद पर प्रति व्यक्ति खर्चा बहुत अधिक है। हमारे समाज में एक ओर बीमारियों का दायरा और अधिक गंभीर और महंगा हुआ है वहीं दूसरी ओर लोकस्वास्थ्य के लिए काम करने वाली सरकारी संस्थाएं लगातार कमजोर हुई हैं। इससे स्वास्थ्य के निजीकरण को सीधे तौर पर प्रश्रय मिला है। स्वास्थ्य की वैकल्पिक धाराएं भी कमजोर हुई या की गई हैं।
पिछले आठ सालों से हम मीडिया के साथ कुछ—कुछ मुद्दों पर तमाम चुनौतियों के बावजूद लगातार संवाद की प्रक्रिया को आप सभी के सहयोग से ही चला पाए हैं। जिला और क्षेत्रीय स्तर से शुरू होकर साल में एक बार हम एक बड़े समूह के रूप में बैठते हैं। आपकी सकारात्मक उर्जा ही हमें इसे और आगे ले जाने के लिए प्रेरित करती है। तो इस बार 17—18—19 (शुक्रवार, शनिवार, रविवार) जुलाई को हम झाबुआ में मिल रहे हैं। हम अपेक्षा करते हैं कि आप पूरे तीन दिन इस समूह के साथ रहेंगे।
झाबुआ के बारे में: झाबुआ पश्चिमी मध्यप्रदेश का एक आदिवासी बाहुल्य वाला जिला है। यहां पर बस और रेल कनेक्टिविटी उपलब्ध है। इंदौर से यह लगभग 150 किमी की दूरी पर स्थित है। दूसरा नजदीकी शहर गुजरात का दाहौद है। नजदीकी रेलवे स्टेशन मेघनगर है। यहां पर सभी प्रमुख राज्यों के लिए रेल सुविधा उपलब्ध है।
स्वास्थ्य पर संवाद
मध्य प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर एक जुमला बहुत चर्चित रहा है कि यहां के राज्यपाल, मुख्यमंत्री से लेकर तमाम बड़े नेता और रसूखदार अपना मामूली इलाज तक कराने मुंबई के निजी अस्पतालों की ओर भागते हैं। देश के बाकी राज्यों में भी हालात इससे कतई बेहतर नहीं हैं। भारत के शहरों में 70 और गांवों में 67 प्रतिशत लोग इलाज के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भर हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर, नर्सों, उपकरणों और बाकी संसाधनों की भारी कमी है। अगर हम भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में विभिन्न भागीदारों की हिस्सेदारी को देखें तो सरकारी अस्पतालों का हिस्सा 19 प्रतिशत के आसपास बैठता है।
बाकी में बड़े कॉर्पोरेट अस्पताल (40 प्रतिशत), नर्सिंग होम (30 प्रतिशत) और छोटे अस्पताल (11 प्रतिशत) आते हैं। दूसरी तरफ, स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च को देखें तो इसका 85 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा लोगों की जेब से जाता है। सामान्य बीमारियों के इलाज में भी भारी-भरकम खर्च के चलते देश में सालाना 6 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से होते हुए सड़क पर आ जाते हैं। स्वास्थ्य संसाधनों और सुविधाओं तक पहुंच के संदर्भ में सरकारी बनाम निजी क्षेत्र के बीच असमानता की यह खाई यूं ही रातों-रात पैदा नहीं हो गई है।
इसके पीछे एक सोची-समझी नीति है। एक ऐसी नीति, जिसमें शहरी और ग्रामीण वंचित परिवारों के लिए कोई जगह ही नहीं है। भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को जीडीपी के मौजूदा 1.1 प्रतिशत से तीन फीसदी तक लाने की जरूरत है। इसके साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं तक सभी की एक-समान पहुंच का अधिकार बहाल करने की दिशा में ठोस कार्रवाई की भी आवश्यकता है। लेकिन बीते ढाई दशक में सरकारों का रुख निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की तरफ ज्यादा रहा है।
देश में स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन जैसे ढांचागत इंतजामों की बात तो हो रही है, पर 4 लाख डॉक्टरों, 7 लाख बिस्तरों और 40 लाख नर्सों की कमी को पूरा करने की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। बात हो रही है स्वास्थ्य बीमा और ‘मैनेज्ड केयर’ की, जहां सरकार की भूमिका सेवा प्रदाता की नहीं, सेवाओं के खरीदार की होगी। बीमा कराने वाले सभी परिवारों को इन ‘मैनेज्ड केयर’ नेटवर्क से जोड़ा जाना है। सरकार स्वास्थ्य सेवाओं के लगातार दैत्याकार होते बाजार को खत्म करने की बात नहीं कर रही, जिसका निशाना शहरी संपन्न तबके और विदेशी पर्यटक हैं। ये वे लोग हैं, जो 70 हजार रुपए में हो सकने वाली हार्ट सर्जरी के लिए 7-10 लाख रुपए चुकाने को तैयार हैं। अगर हम भारत में सालाना 14 फीसदी की तेज रफ्तार से बढ़ रहे दवा उद्योग पर नजर डालें तो समझ पाएंगे कि ब्रांडेड दवाओं के नाम पर 1 रुपए की मामूली गोली को 1000 रुपए तक में बेचने वाली दवा कंपनियों का कारोबार बीते दो दशक में किस तरह फला-फूला है। साथ ही यह भी कि क्यों हर साल देश के शीर्ष 10 अमीरों में 3-4 नाम दवा उद्योग से होते हैं ?
आखिर क्या कारण है कि भारत में सरकारें इन तमाम चुनौतियों से आंख मूंदकर कभी जरूरी दवाओं के दाम बाजार आधारित कर देती है तो कभी ‘सबको स्वास्थ्य’ के अंतर्राष्ट्रीय वायदों से मुंह मोड़कर मुफ्त दवाओं और जांच सुविधाओं का भार राज्यों को सौंपकर किनारा कर लेती है। आखिर स्वास्थ्य की राजनीतिक अर्थव्यवस्था क्या कहती है और देश को किस तरफ ले जाने वाली है? इस बार पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ में आयोजित राष्ट्रीय मीडिया विमर्श में हमारी चर्चा स्वास्थ्य और इलाज से जुडे इन्हीं कुछ सवालों पर केंद्रित रहेगी।
पिछले साल तक बाकायदा सक्रिय ‘योजना आयोग’ की सौ सर्वाधिक गरीब जिलों की सूची में शामिल झाबुआ भील, भिलाला, मानकर जैसी आदिवासी जातियों और उनकी ‘भगोरिया’ जैसी परंपराओं के नाते पहचाना जाता रहा है। एक तरफ, सरकारी और अधिकांश गैर-सरकारी संस्थाओं की नजर में पिछडा, निरक्षर और नतीजे में दयनीय झाबुआ का आदिवासी छोटे पहाडी नालों को रोककर 11-11 सौ फुट की उंचाई तक पानी पहुंचाने की उस पाट व्यवस्था में माहिर है जिसे बनाने की छोडिए, समझने में भी कई पढे-लिखों को पसीना आ जाता है। आजादी के आसपास बेरहमी से काटे गए जंगलों के साथ-साथ अपनी आजीविका गंवाने वाले आदिवासी आज के विकास की ‘सरदार सरोवर’ जैसी विशालकाय परियोजनाओं की चपेट में अपना सब-कुछ डुबोकर सरकारी पुनर्वास की बाट जोहते दर-दर की खाक छानने को मजबूर हुए हैं। एक भरा-पूरा और अपनी तरह से सम्पन्न समाज ‘विकास’ की मार में कैसे बिखरता, बेहाल होता है, इसकी बानगी देता है, झाबुआ।
इस बार के केंद्रीय विषय स्वास्थ्य के मामले में भी दूसरे आदिवासी बहुल इलाकों की तरह झाबुआ भी बदहाली की कहानी लिखता दिखाई देता है। कुछ साल पहले नारू रोग के आतंक में कुओं, बावडियों जैसे जलस्रोतों को खत्म कर देने के बाद अब सिलिकोसिस एक बड़ी बीमारी के रूप में उभरी है। मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड और मंदसौर में भी व्यापकता से फैली यह जानलेवा बीमारी रोजगार की खातिर ऐसे कामों के नतीजे में पैदा होती है जिनके चलते धूल के बारीक कण धीरे-धीरे फेंफडों में जमते जाते हैं। आसपास के ऐसे अनुभव हमें यह जानने-समझने का अवसर देंगे कि इनके और ‘व्यावसायिक स्वास्थ्य’ के नजरिए से बीमारियों पर स्थानीय स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा कैसे, क्या कर रहा है और अगर वह प्रतिक्रियाशून्य है तो क्यों?
विकास संवाद के आपके साथी
राकेश दीवान
सौमित्र रॉय
सचिन जैन
राकेश मालवीय
संपर्क: [email protected]
anjani kumar jha
July 13, 2015 at 6:06 am
motivated. thanks.