ख़ुशदीप सहगल-
न्यूज़ मीडिया से नौकरियां जा रही हैं, दिलीप मंडल के मुताबिक़ अगले 6 महीने में 80 फ़ीसदी नौकरियां चली जाएंगी…उन्होंने AI और मशीन लर्निंग को मुख्य वजह बताया है…
कितने फ़ीसदी नौकरियां जाएंगी, ये तो नहीं कह सकता, लेकिन जिस तरह से एक अगली पंक्ति के माने जाने वाले चैनल में छंटनी का दौर चल रहा है, वो आने वाले समय में भयावह स्थिति का संकेत है…
व्यूअरशिप गिरने, विज्ञापन का मोटा हिस्सा यूट्यूब जैसे वैकल्पिक माध्यमों की ओर शिफ्ट होने और मुनाफ़ा गिरने से कास्ट कटिंग के तहत न्यूज़ इंडस्ट्री में ऐसे कुछ कदम उठाए जा सकते हैं जो वर्कफोर्स के लिए शुभ संकेत नहीं है…
दरअसल, पत्रकारिता अब बीते समय की तरह मिशन जैसी बात तो रही नहीं…जैसे बड़े उद्योगपति तेल-साबुन बेचते हैं, वैसा ही न्यूज़ के साथ हो रहा है…हमारे देश में अब ये भी अन्य इंडस्ट्रीज़ की तरह है, विशुद्ध मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था…हमारे देश में बीबीसी जैसा कोई संस्थान नहीं खड़ा हो सका जो एडवरटाइजिंग पर नहीं बल्कि जनता के टैक्स के पैसे से चलता हो… इसलिए उसकी ज़िम्मेदारी भी जनता की ओर ही है, सरकार या मुनाफ़ाखोरी के अन्य कारणों की ओर नहीं…
देश में न्यूज़ इंडस्ट्री की एक ओर हालत विकट है और दूसरी ओर हर दिन हम नए न्यूज़ चैनल्स की घोषणाएं होते देख रहे हैं…ये क्या विरोधाभास नहीं? दरअसल इस साल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना जैसे राज्यों में और फिर अगले साल आम चुनाव होने हैं…ऐसे में आने वाले कुछ महीनों में चैनल्स की ओर से इन राज्यों में कॉन्क्लेव्स की भरमार देखेंगे, जहां वहीं घिसे-पिटे नेता राजनीतिक जुगाली करते नज़र आएंगे…जनता के मुद्दों के नाम पर ये कॉन्क्लेव्स भी और कुछ नहीं मार्केट के अर्थशास्त्र को देख कर ही राज्यों की राजधानियों में जमावड़े के सिवा और कुछ नहीं होते…
जहां तक नए चैनल्स का सवाल है तो साथी मीडियाकर्मियों को यही सलाह दूंगा कि वो मौजूदा संस्थानों से इनमें शिफ्ट करने से पहले ठोक बजा कर सब देख लें, कहीं ये चुनावी चार दिन की चांदनी तो नहीं…बेरोज़गार युवा पत्रकारों को भी ब्रेक के चक्कर में कहीं ज्वाइन करने से पहले उस जगह के बारे में, प्रमोटर्स के बारे में सारी जानकारी जुटा लेना और फिर कोई फ़ैसला लेना ही श्रेयस्कर रहेगा…अन्यथा बाद में कहीं सैलरी के संकट से ही दो-चार न होना पड़े…