सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खिल्ली उड़ाने में जुटे हुए हैं भारत के हिंदी-अंग्रेजी समेत दर्जनों भाषाओं के अखबार व पत्र-पत्रिकाएं
: इंडियन एक्सप्रेस लखनऊ के कर्मचारियों को मजीठिया के नाम पर लगा दी गहरी चपत : इंडियन एक्सप्रेस अखबार समूह के मालिक-मैनेजमेंट का एक ही रोना है कि उसकी आय-कमाई इतनी नहीं है कि पत्रकार एवं गैर पत्रकार कर्मचारियों को मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के अनुसार बढ़ाकर वेतन एवं अन्य लाभ-फायदे दिए जा सकें। अपनी इस रोनी अदा को स्थाई रूप देने के लिए उन्होंने बनावटी-झूठी दलीलों का पुलिंदा बना-तैयार करके रखा हुआ है। उन्होंने सबसे पुख्ता, पर उतनी ही झूठी, गैर कानूनी दलील-तर्क, खासकर लखनऊ संस्करण के संबंध में यह गढ़ रखी है कि उनका यह संस्करण कमाई के मामले में फिसड्डी है। इस एडीशन में कमाई इतनी भी नहीं हो रही है कि हम कर्मचारियों को मौजूदा सेलरी ही सहजता से दे सकें, मजीठिया के हिसाब से वेतन देना तो दूर की बात है। लेकिन जब से सुप्रीम कोर्ट का डंडा चलना शुरू हुआ है तो मालिकान ने उसकी चोट से बचने के लिए इस संस्करण में भी मजीठिया देने का एलान किया हुआ है। वो भी पांचवीं श्रेणी का स्केल।
यहां बता देना जरूरी है कि एक कंपनी, संस्थान की इकाइयां, यूनिटें कई हो सकती हैं, लेकिन वे सारी मानीं जाएंगी एक ही कंपनी-संस्थान की। यूनिटों की कमाई कम-ज्यादा हो सकती है लेकिन कर्मचारियों को सेलरी एवं दूसरे लाभ कंपनी की कुल कमाई के आधार पर ही मिलेंगे, मालिकों को देने पड़ेंगे। भारत सरकार का बनाया कानून और सुप्रीम का फैसला-आदेश यही कहता है। इसी तरह इंडियन एक्सप्रेस के नौ संस्करण हैं। इनकी कमाई-आमदनी में अंतर हो सकता है, पर सभी संस्करणों की समग्र आमदनी द इंडियन एक्सप्रेस लिमिटेड की ही होती है। इसलिए सारे संस्करणों के सभी कर्मचारियों को सेलरी मजीठिया वेज बोर्ड के हिसाब से एक ही श्रेणी में मिलनी चाहिए।
लेकिन इस राष्ट्रीय अखबार में ऐसा बिल्कुल नहीं हो रहा है। इसके मालिक विवेक गोयनका साहब नियम-कानून को धता बताते हुए, कंटेम्प्ट के तहत जेल जाने से बचने की जुगत भिड़ाते हुए, एक्सप्रेस के सभी संस्करणों को अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित करके मजीठिया देने की खानापूर्ति कर रहे हैं। मसलन लखनऊ संस्करण को पांचवीं श्रेणी तो चंडीगढ़ एवं दिल्ली संस्करण को तीसरी श्रेणी में डाल दिया है। ऐसे ही अन्य संस्करणों को भी खड्डे में डाल दिया है।
इंडियन एक्सप्रेस लखनऊ के पत्रकार एवं गैर पत्रकार कर्मचारी मालिक-मैनेजमेंट की बदमाशी से बेहद खफा, परेशान एवं उलझन में हैं। हालांकि वे कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं, पर इस आकस्मिक आर्थिक मार से बचने के लिए वे लंबी एवं मजबूत लड़ाई के लिए सोचने को विवश हो गए हैं। कथित विकास के इस माहौल में महंगाई की गहरी मार ने वैसे ही बेहाल कर रखा है, ऊपर से पगार वृद्धि में मालिक-मैनेजमेंट की तिकड़मों ने उनके हौसले को तकरीबन धराशायी कर दिया है। नवाबी शहर लखनऊ में उनके मुस्कराने, जरा सी हंसी का जरिया भी छिनता जा रहा है। ठीक उसी तरह जब ढाई दशक पहले हमारे जैसे लोग लखनऊ में सर्वत्र लिखे उस स्लोगन को देखकर हंसे थे जिसका भाव क्या, स्लोगन ही यही था- ‘मुस्कराइये कि आप लखनऊ में हैं।’ अपनी माली हालत और यूपी की राजधानी लखनऊ में रहने के खर्चे के बीच का अंतर देख-जान-समझ कर हम लोग इस स्लोगन को देखते ही बरबस मुस्करा देते थे।
भूपेंद्र प्रतिबद्ध
Bhupendra Pratibaddh
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