सौमित्र रॉय-
लोकसभा की 3 और विधानसभा की 30 सीटों के आज के नतीजों के बाद पेडिग्री मीडिया, भक्तों और छुपे हुए संघियों को सांप सूंघ गया है।
लोकसभा उपचुनाव में 1 और विधानसभा की 30 में से 7 सीट ही जीत पाने के बाद इनकी बोलती बंद है।
बंगालियों ने फ़िर 4 में से 3 पर बीजेपी की ज़मानत ज़ब्त करवा दी। हिमाचल में 4-0 की करारी हार के बाद जयराम ठाकुर को महंगाई याद आई।
हिमाचल में बीजेपी का वोट शेयर 49 से घटकर 24% पर आ गया है।
पेडिग्री मीडिया या फ़र्ज़ी पत्रकारों में किसी की जेपी नड्डा से सवाल करने की हिम्मत नहीं है, जो खुद हिमाचल से आते हैं।
असम में 2 सीटें अगर कांग्रेसी बागियों ने बीजेपी की झोली में नहीं डाली होतीं तो और बेइज़्ज़ती होती।
ख़ैर, हिमाचल से लेकर कर्नाटक तक बीजेपी को सतह पर मोदी सरकार विरोधी लहर अगर अभी भी नहीं दिख रही तो 2022 में महाभारत तय है।
शकुनि के पांसे उल्टे पड़ रहे हैं और धृतराष्ट्र की आंखों पर अहंकार की पट्टी है। धर्म की अफीम ज़्यादा दिन चलेगी नहीं, क्योंकि अब लात सीधे पेट पर पड़ रही है।
प्रकाश भटनागर-
कहां जरूरत है भाजपा को शिवराज का विकल्प तलाशने की…..
सचमुच यह तूफान से कश्ती को सुरक्षित तरीके से निकाल लाने जैसी बात है। ऐसा करिश्मा शिवराज सिंह चौहान ने कर दिखाया। शिवराज के इस करिश्मे और पार्टी की जीत की खुशी के बावजूद कई उन लोगों के लिए ये परिणाम निराशाजनक साबित हुए जिन्हें प्रदेश की सत्ता में बदलाव का इंतजार है। उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली जीत आसान नहीं थी। यह देश में हुए तीन लोकसभा और बाकी राज्यों के विधानसभा चुनावों ने भी साफ कर दिया है।
भाजपा के लिए अखरने वाली हार हिमाचल प्रदेश के मंडी लोकसभा सीट की है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नढ्ढा के गृहप्रदेश में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले की यह हार भाजपा के लिए अलार्मिंग है। लेकिन मध्यप्रदेश में एक लोकसभा और तीन विधानसभा सीटों में से तीन पर जीत दर्ज कर शिवराज ने साबित कर दिया कि मध्यप्रदेश में उनकी मौजूदगी पार्टी की चुनावी सफलताओं के लिए जरूरी है।
जरूरी चीजों की महंगाई, खासकर पेट्रोल-डीजल के दामों में लगी आग ने निश्चित ही जनता को परेशान कर रखा है। स्थिति स्वाभाविक रूप से जन आक्रोश पनपने जैसी है। फिर भी यदि मतदाता ने भाजपा को जिताया है तो स्पष्ट है कि उसने अपनी इन समस्याओं की तुलना में उन समाधानकारी योजनाओं को महत्व दिया, जिन्हें केंद्र की नरेंद्र मोदी और मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार ने लागू किया है। आम जनता को सीधे लाभ पहुंचाने की गरज से मकान के लिए पैसा, गैस कनेक्शन और किसानों के खाते में सम्मान निधि डालने की योजनाओं को मध्यप्रदेश के मतदाता ने आज अपना समर्थन प्रदान कर दिया है। मध्यप्रदेश में तो किसानों के खाते में दस हजार रूपए साल आ रहे हैं। यूं भी किसान आंदोलन का मध्यप्रदेश में कोई असर नहीं रहा और अन्नदाता को दस हजार रुपए की सम्मान निधि देकर भाजपा उसका विश्वास कायम रखने में सफल रही है।
जाहिर है कि कम से कम प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में महंगाई लोगों के लिए मुद्दा नहीं बन सकी। ये शिवराज की छवि, संगठन से तालमेल बैठाने की उनकी आदत और चुनाव में जीतोड़ मेहनत करने से ही संभव हो सका है।
वे तमाम लोग वैचारिक रूप से एक बार फिर निठल्ले हो गए हैं, जो आये दिन अफवाहों की रेहड़ी लगाकर शिवराज को हटाए जाने की बात करते हैं। क्योंकि इस नतीजे ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि मध्यप्रदेश में शिवराज के किसी विकल्प को तलाशने का कोई तुक ही नहीं है। मुख्यमंत्री ने दमोह की हार से सबक लिया और कांग्रेस ने इसी सीट पर जीत के चलते मुगालते पालने की बहुत बड़ी गलती कर दी। कांग्रेस ने दमोह के उपचुनाव में अपनी जीत को सरकार के प्रति जनता की नाराजगी से जोड़ लिया। इस उपचुनाव में भी कमलनाथ और कांग्रेस यही प्रचारित करते रहे कि वे दमोह पेर्टन पर चुनाव लडेंगे। जबकि हकीकत यह है कि दमोह भी कांग्रेस का कोई पेर्टन तो था ही नहीं जो कुछ था वो राहुल सिंह लोधी से नाराजगी थी।
इस बार भाजपा में उम्मीदवारों के चयन को लेकर थोड़ा आंतरिक संघर्ष जरूर हुआ लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका जिसे दमोह पेर्टन की सफलता के तौर पर कांग्रेस दोहरा पाती। यह तय है कि यदि राहुल सिंह लोधी उस समय कांग्रेस से ही दोबारा चुनाव लड़ते, तब भी उनका हारना तय था। इस सच को न मांनने का आज कांग्रेस ने खामियाजा भुगता है। दमोह की हार के बाद शिवराज ने सत्ता और संगठन के बीच जिस तरह से संतुलन कायम किया, वह भाजपा की जीत के रास्ते खोलने की महत्वपूर्ण कुंजी बना है। भाजपा ने जोबट और पृथ्वीपुर की दोनों सीटें कांग्रेस से छीन ली हैं लेकिन रैगांव की अपनी सीट कांग्रेस के हाथों गंवा दी है। खंडवा में भी जीत का अंतर अगर लाख से कम पर ही सिमट गया है तो इसका विश्लेषण करने का काम भाजपा संगठन को करना पड़ेगा।
सरकार की तरफ से शिवराज ने चारों सीटों पर धुआंधार तरीके से सभाए लीं। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा भी उनके साथ पूरे समय सक्रिय रहे। इधर, भाजपा चुनाव प्रबंध समिति के संयोजक और मुख्यमंत्री के विश्वसनीय भूपेंद्र सिंह ने पूरी खूबी के साथ सत्ता तथा संगठन के इस संयोजन को और ताकत प्रदान की।
कुल मिलाकर इस को-आॅर्डिनेशन तथा चुनाव प्रबंधन से शिवराज ने स्वयं को ‘आल टाइम ग्रेट’ वाली लाइन में ससम्मान ला बिठाया है।
इस समीक्षा को प्रशंसा से न जोड़ा जाए। बल्कि यह स्थापित फैक्ट है कि शिवराज ने आम जनता के बीच से लेकर संगठन तक अपनी महारत से भाजपा को ये बड़ी सफलता दिलाई है। ये उनका प्रबंधन ही है कि वह जोबट, पृथ्वीपुर और रैगांव में भाजपा प्रत्याशियों के लिए पार्टी के भीतर ही उपजे असंतोष को भी समाधानकारी तरीके से समाप्त कर सके। खंडवा में तो भितरघात की काफी ‘वरिष्ठ स्तरीय’ परिस्थितियां आकार लेने लगी थीं, लेकिन वहां भाजपा को जिस अंतर से जीत मिली, उससे स्पष्ट है कि शिवराज की छवि का दम अब भी बाकी है और उनसे आगे निकलने की कोशिशों में विपक्ष को दम फूलने के अलावा और कुछ हासिल नहीं हो सकेगा।
भाजपा ने यहां कांग्रेस से दो सीटें छीनीं और जिस रैगांव को उसने खोया है, उसमें भी कांग्रेस की ताकत की बजाय भाजपा की आतंरिक गुटबाजी का ही ज्यादा असर हुआ है। यदि राष्ट्रीय परिदृश्य की समीक्षा की जाए, तो यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि शिवराज ने कितनी विपरीत परिस्थितियों को भाजपा के लिए अनुकूल बना दिया। हिमाचल प्रदेश में अपनी सरकार होने के बाद भी भाजपा नाकाम रही। वहां सभी सीटों पर कांग्रेस जीती है।
राजस्थान में भाजपा को जैसे एंटी इनकंबेंसी भुनाना ही नहीं आया। पश्चिम बंगाल में तो खैर इस पार्टी के पास कोई खास संभावनाएं थी ही नहीं। हां, अपनी सरकार वाले असम में भाजपा की कुछ इज्जत बच गयी। इन सभी नतीजों के मुकाबले मध्यप्रदेश की चार में से तीन सीटें सम्मानजनक अंतर से जीतकर शिवराज ने यह साबित कर दिया है कि विरोधी दलों के साथ ही साथ वह पार्टी के भीतर भी अपने कई समकक्षों से काफी आगे चल रहे हैं।
मोहम्मद अनस-
एक हेलीकॉप्टर का प्रति घंटा रेंट का रेट 85000 हजार रूपए से लेकर लगभग 1.50 लाख होता है। बिहार विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने दोनों विधानसभा में अपने प्रत्याशी के लिए चुक चुके कथित शायर तथा अल्पसंख्यक विभाग के अध्यक्ष हेतु हेलीकॉप्टर मुहैया कराया यह सोच कर कि पार्टी के लिए वह मुसलमानों का समर्थन जुटाएगा लेकिन हुआ इसके उल्टा। दोनों ही विधानसभा में कांग्रेस ने नोटा से थोड़ा अधिक वोट हासिल किया और बिल्कुल उस तरह से जमानत जब्त करवाई जिस प्रकार से मुरादाबाद लोकसभा सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार इमरान प्रतापगढ़ी ने इज्जत गंवाई थी।
यह अब सिद्ध हो चुका है कि इमरान प्रतापगढ़ी के भाषणों एवं शायरी से मुसलमान प्रभावित नहीं होता। बिहार जैसे हिंदी भाषी और मुस्लिम बेल्ट वाले प्रदेश में अल्पसंख्यक विभाग का अध्यक्ष यदि कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत न बचा सके तो उसे अपने पद से इस्तीफा देकर ज़मीनी स्तर पर काम करना चाहिए न कि चॉपर से उड़ कर कांग्रेस की कमर तोड़नी चाहिए।
सच पूछिए तो इमरान प्रतापगढ़ी तांगे के लायक भी नहीं है। प्रियंका गाँधी के चरणचाट कॉमरेडों ने इमरान को, कांग्रेस एवं मुसलमानों के बीच का सेतु बना कर पेश किया है जबकि हर एक चुनाव का परिणाम यही बताता है कि इमरान प्रतापगढ़ी मात्र फेसबुक/ट्विटर/यूट्यूब का सेलीब्रेटी है। ज़मीन पर उसका कुछ भी नहीं है। इमरान से अच्छा बेचई चच्चा को यदि प्रियंका गाँधी के निजी सचिव आइसा वाले संदीप सिंह ने अल्पसंख्यक विभाग का चेयरमैन बनाया होता तो वह इससे अधिक वोट कांग्रेस को दिलवा देते। ख़ैर.. बिहार कांग्रेस के नेताओं को शीर्ष नेतृत्व से यह मांग करनी चाहिए कि चॉपर का जो खर्च इमरान को पटना से इन दोनों विधानसभा तक पहुंचाने में हुआ था, चार-पांच जगह मुशायरे करवा कर वसूल करना चाहिए।
Dinesh Prasad Singh
November 4, 2021 at 6:04 pm
29 और 3 लोकसभा सीट पर उपचुनाव में बीजेपी ने एक लोकसभा और 14 विधानसभा की सीटें जीत कर बीजेपी ने साबित कर दिया कि वह विपरीत परिस्थितियों में भी जब इतना अच्छा रिस्पांस कर सकती है तो आने वाले समय में वह अपने में सुधार लाकर और भी बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। पेट्रोल डीजल और महंगाई का मुद्दा कभी इस देश में चुनाव का आधार नहीं रहा है अब जबरिया कोई तर्क गढ़कर अपनी अपनी बात रख रहा है सो अलग है। 2014 और 2019 में भी इसी तरह विपक्षी तरह-तरह के मुद्दे रच कर बीजेपी को घेरने का प्रयास कर रहे थे रिजल्ट जब आया तो दांत खट्टे हो गए। इस सच्चाई को स्वीकार करने में बहुत सारे विपक्षियों को दर्द हो रहा है कि अब चुनाव का आधार धर्म ही बन चुका है इससे आंखें मूंद कर के आगे नहीं बढ़ जा सकता इसका फैसला होना अभी बाकी है अभी तो शुरुआत हुई है आगे और भी यह लड़ाई उग्र होगी।