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सुख-दुख

पहले पिटाई और फिर मिठाई, यही औकात रह गई है पत्रकारों की!

CHARAN SINGH RAJPUT-

मीडिया के चाटुकारिता के दल-दल में फंसने का दुष्प्रभाव है पत्रकारों का दमन

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लो लड़ लो पत्रकारों के दमन के खिलाफ लड़ाई। उत्तर प्रदेश के आईएएस अफसर व उन्नाव जिले मुख्य विकास अधिकारी दिव्यांशु पटेल ने पंचायत चुनाव के दौरान पिटाई के मामले में वीडियो पत्रकार से आखिरकार समझौता ही कर लिया। अधिकारी पर कार्रवाई तो अब भूल ही जाओ। बाकायदा पत्रकार कृष्णा तिवारी और अधिकारी का एक दूसरे को मिठाई खिलाते हुए फोटो खूब वायरल हो रहा है। पुलिस बल के साथ मौजूद मुख्य विकास अधिकारी दिव्यांशु पटेल ने टीवी चैनल के पत्रकार को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। यह वीडियो भी जमकर वायरल हुआ। कई पत्रकार संगठन इस पत्रकार के पक्ष में सड़कों पर भी उतरे।

जैसा अक्सर होता है, कृष्णा तिवारी ने भी वही किया। उन्होंने कहा कि अधिकारी ने अनजाने में कुछ भ्रम के कारण उन्हें मारा था और अपने कुकृत्य के लिए माफी मांग ली। पत्रकार ने कहा, अधिकारी ने मेरे परिवार के सदस्यों से भी बात की और इस कृत्य पर खेद व्यक्त किया। मतलब मामला मैनेज हो गया। पहले पिटाई और फिर मिठाई, यही औकात रह गई है पत्रकारों की। बात कृष्णा तिवारी की ही नहीं है। यह पत्रकारों का बनाया गया माहौल ही है कि पूरा का पूरा मीडिया ऐसे ही जलील किया जा रहा है।

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यह अपने आप में दिलचस्प है कि जो मीडिया मोदी सरकार का सबसे बड़ा भक्त है, उसी मीडिया की मोदी राज में सबसे अधिक दुर्गति हुई है। सबसे अधिक पत्रकार भी मोदी समर्थक हैं और सबसे अधिक पत्रकार भी भाजपा शासित प्रदेशों में पिटे हैं। यह प्रश्न अपने आप में बड़ा कठिन है कि जिस पेशे के लोग जिस सरकार के सबसे बड़े चाटुकार हों उस पेशे पर ही उस सरकार का सबसे अधिक कुठाराघात हो रहा है।

दरअसल चाटुकारिता आदमी को कमजोर करती है और खुद्दारी मजबूत। खुद्दार पत्रकार तो नाम मात्र के रह गये हैं। पूरी की पूरी मीडिया चाटुकारिता की दल-दल में धंस चुकी है। हो सकता है कि कुछ की मजबूरी हो पर अधिकतर पत्रकारों ने निजी स्वार्थ के चलते पत्रकारिता के मूल्यों की धज्जियां उड़ा दी हैं। आज मीडिया से जुड़े लोगों के लिए यह मंथन और चिंतन का विषय है कि जिस मीडिया के नाम से पुलिस वालों में हड़कंप मच जाता था वे ही पुलिस वाले पत्रकार को दौड़ा दे रहे हैं। क्यों? लोग कुछ भी कहें पर मेरा मानना है कि आज के हालात में भी यदि पत्रकार स्वाभिमान, खुद्दार, ईमानदार है तो कोई भी अराजक सरकार उसका बाल बांका नहीं कर सकती है।

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देश में ऐसे कई वेब पोर्टल और पत्रकार हैं जो हर सरकार के हर अन्याय का विरोध कर रहे हैं। योगी और मोदी सरकार के खिलाफ लगातार लिख रहे हैं बोल रहे हैं। क्या इनमें से कोई पिटा? क्या किसी पुलिस वाले की हिम्मत इन पर हाथ डालने की है? एफआईआर दर्ज कर सकते हैं पर पीट तो बिल्कुल नहीं सकते! स्वाभिमान औैर खुद्दार पत्रकार को जेल में डाला जा सकता है, उसका उत्पीडऩ हो सकता है, उसकी हत्या हो सकती है पर सार्वजनिक स्थल पर किसी पुलिस वाले की तो औकात नहीं है कि उसे पीट सके। यदि ऐसा होता है तो जब पुलिस वाला कानून हाथ में ले सकता है तो फिर पत्रकार क्यों नहीं? दो खींचकर मारो पुलिस वाले को। भ्रष्टाचारी पुलिस वालों को झुकना ही पड़ेगा।

बात पत्रकार और पत्रकारिता की चल रही तो फिर देश में मजीठिया वेज बोर्ड ऐसा मामला है जिस पर बोलकर लिखकर कोर्ट में जाकर पत्रकार अपना वजूद दिखा सकता था। कितने पत्रकारों ने अपनी पत्रकारिता दिखाई ? जो पत्रकार मजीठिया वेज बोर्ड पर कुछ नहीं बोला या नहीं बोल सकता, उसे मैं पत्रकार मानता ही नहीं। जो लोग अपनी ही लड़ाई नहीं लड़ सकते वे दूसरों की क्या लड़ेंगे ? क्या देश में मजीठिया वेज बोर्ड से बड़ा मामला है ? सुप्रीम कोर्ट का आदेश। जिन लोगों ने नहीं माना, उनके खिलाफ अवमानना का केस भी चला, उन्हें बरी भी कर दिया गया। वह भी यह कहकर कि इन्हें मामले की सही से जानकारी नहीं थी। जिन मीडियाकर्मियों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए मजीठिया वेज बोर्ड की मांग की उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। जिस सुप्रीम कोर्ट को इन कर्मचारियों को संरक्षण देना चाहिए था उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने लेबर कोर्ट भेज दिया।

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हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, अमर उजाला, दैनिक आज के अलावा किसी अखबारों के कितने मीडियाकर्मी नौकरी से निकाल दिये गये। कितने मजीठिया वेज बोर्ड को लेकर कानूनी और जमीनी लड़ाई लड़ रहे हैं। कितने पत्रकारों ने उनका साथ दिया ? कितने पत्रकार उनके पक्ष में बोले ? या कितने पत्रकारों ने उनके पक्ष में लिखा ? जो लोग अपनी और अपनों की लड़ाई नहीं लड़ सकते वे क्या पत्रकारिता कर रहे होंगे ? किसी मीडिया हाउस में काम करके पत्रकारिता की बात करना बेमानी है। जो भी लोग पत्रकारिता कर रहे हैं उन्होंने या तो अपना पोर्टल चला रखा है या फिर अपना अखबार निकाल रहे हैं या फिर स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं ? हां देश में निजी पोर्टल चलाने वाले और स्वतंत्र पत्रकारिता करने वालों को संगठित होने की जरूरत है।

आजकल उन्नाव के मियागंज विकासखंड में टीवी पत्रकार कृष्णा तिवारी की पिटाई का वीडियो खूब वायरल हो रहा है। उन्होंने प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से ब्लॉक प्रमुख चुनाव में चल रही धांधलेबाजी का वीडियो बना लिया। फिर क्या था आईएएस रैंक के मुख्य विकास अधिकारी दिव्यांशु पटेल ने उन पर हमला बोल दिया। पत्रकार अपना परिचय देता रहा। लेकिन मुख्य विकास अधिकारी के हाथ नहीं रुके। इसी बीच उसका साथ देने के लिए सफेदपोश भाजपा नेता भी मैदान में कूद गया और उसने भी पत्रकार पर खूब हाथ सफा किया। एक अधिकारी और नेता ने पत्रकार को जमकर धोया।

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ऐसे में प्रश्न उठता है कि यह माहौल किसने बनाया है ? या फिर विपक्ष क्या कर रहा है ? ऐसा भी नहीं है कि कृष्णा तिवारी की पिटाई का कोई पहला मामला हो। देश में कितने पत्रकार पीटे गये। आंदोलन भी हुए पर क्या हुआ? पत्रकार पिटते हैं और फिर से नेताओं और ब्यूरोक्रेट्स के तलुए चाटने पहुंच जाते हैं। मीहिया हाउसों में रिपोर्र्टिंग करने वाले साथियों का व्यवहार मैने बहुत करीब से देखा है। मीडिया हाउस में काम करने वाले अपने ही साथियों से तो ये लोग ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे कि जिले के डीएम और एसएसपी ये ही हों। राष्ट्रीय सहारा में जब हमने 7 महीने वेतन न मिलने पर आंदोलन किया तो रिपोर्टिंग के साथियों को बड़ी बेचैनी हो रही थी। उसका बड़ा कारण यह था कि इन लोगों का काम तो बिना वेतन के भी चल जाता है।

सहारा प्रबंधन ने आंदोलन की अगुआई कर रहे 22 मीडियाकर्मियों को टर्निनेट किया। नोएडा स्थित राष्ट्रीय सहारा के ऑफिस पर टर्मिनेट किये गये साथियों को ड्यूटी पर लेने के लिए संघर्ष चल रहा था। रिपोर्टिंग के साथियों ने प्रबंधन से मिलकर अखबार निकाल दिया। ऐसा ही टीवी चैनलों में भी होता है। रिपोर्र्टिंग के साथी डेस्क पर बैठे साथियों को कुछ नहीं समझते। ये लोग यह नहीं जानते कि फील्ड में रहने वाले मीडियाकर्मियों की औकात पूंजीपतियों, नेताओं और ब्यूरोक्रेट्स के सामने क्या है सब जानते हैं। मीडिया की आज जो दुर्गति है इसके बड़े जिम्मेदार अखबारों के संपादक और अखबारों व टीवी चैनलों के रिपोर्टर हैं। तिवारी के मामले भी क्या होगा। सरकार पर ज्यादा दबाव पड़ेगा तो हो सकता है कि पटेल का ट्रांसफर हो जाए।

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हालांकि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने घटना के संदर्भ में ट्वीट करके सरकार और प्रदेश में क़ानून व्यवस्था पर सवाल उठाया है। क्या विपक्ष पत्रकारों की पिटाई के मुद्दे पर आंदोलन नहीं कर सकता ? क्या पत्रकारों की पिटाई की खबर किसी मीडिया हाउस में छप सकती ? या फिर तिवारी की पिटाई की खबर किसी अखबार ने प्रकाशित की है ? या फिर किसी टीवी चैनल ने दिखाई ? देश में कितने प्रेस क्लब हैं, क्या इनका काम बस प्रेस क्लबों में जाकर जाम से जाम टकराना ही है। कितने प्रेस से जुड़े संगठन मीडियाकर्मियों के हित की आवाज उठाते हैं। मीडिया हाउसों में कितने मीडियाकर्मी निकाले जा रहे हैं। कितनों का दमन और शोषण हो रहा है। ये संगठन क्या कर रहे हैं ? जो लोग अपने ही पेशे के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं ये जनहित के मुद्दे क्या उठाएंगे। क्या आज की पत्रकारिता धंधा नहीं बन गई है ? यदि पत्रकारिता के नाम पर कमाना ही है तो यही दुर्गति होगी। या तो पत्रकार बन जाओ नहीं तो फिर ऐसे ही पीटते रहो।

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