ध्रुव गुप्त-
जेबुन्निसा के साथ एक तिलिस्मी रात…
मुझे भूतहा कहे जाने वाली इमारतों और खंडहरों में भी वक़्त बिताने का शौक़ रहा है। दिल्ली में ऐसे कई किले और खंडहर हैं जिन्हें लोग प्रेत-बाधित मानते हैं। भूली भटियारी का महल, जमाली कमाली मस्जिद, खूनी दरवाजा, अग्रसेन की बावड़ी उनमें शामिल हैं। ऐसी ही कुछ भूतहा जगहों में एक प्रमुख नाम सलीमगढ़ किले का भी है। यमुना के किनारे लाल किले के पास स्थित यह किला शेरशाह सुरी के बेटे इस्लाम शाह सुरी ने बनवाया था। मुगलों ने इस किले को जेल में तब्दील कर दिया था। औरंगजेब ने अपनी बेटी जेबुन्निसा को उसके प्रेम-संबंध की वज़ह से इसी किले में कैद किया था जहा बीस सालों की कैद और अकेलेपन में उनकी मौत हुई। जेबुन्निसा ‘मख्फी’ उपनाम से मध्यकाल की एक बेहतरीन शायरा रही थीं जिनके फ़ारसी भाषा में लिखे दीवान ‘दीवान-ए-मख्फी’ का अनुवाद अंग्रेजी , फ्रेंच, अरबी सहित दुनिया की कई भाषाओं में हुआ। लोगों का मानना हैं कि यहां रात के अंधेरे में जेबुन्निसा की रूह के चलने-फिरने और बोलने की आवाजें सुनाई देती हैं। कुछ अखबारों ने चौकीदारों के हवाले से यहां की भुतहा गतिविधियों की ख़बरें छापी भी थीं।
जेबुन्निसा के जीवन और उनके कृतित्व में मेरी दिलचस्पी रही है और मैं उनकी सौ रुबाइयों का हिंदी में अनुवाद भी कर रहा हूं। बात उनकी थी तो मैं एक शाम पहुंच गया किले के वीराने में। इक्का-दुक्का पर्यटक वहां से लौट चुके थे। पहरेदारों को पटाकर रात में वहां कुछ देर रुकने का जुगाड़ कर लेना कुछ मुश्किल काम नहीं था। अंधेरा छाने लगा तो मैं किले के भीतर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। मन को एकाग्र करने की कोशिश की। देर तक कहीं कोई आवाज नहीं सुनाई दी। तेज हवा में पेड़ की पत्तियों के खड़कने की आवाज़ आती तो यह सोचकर रोमांच हो जाता था कि शायद यह जेबुन्निसा की रूह की आहट हो। रात दस बजे के लगभग गहरे ध्यान में गया तो चेतना लुप्त हो चली। लगभग ट्रांस की स्थिति में लगा कि कोई स्त्री सामने खड़ी थीं। सफेद कपड़ों में लिपटी एक खूबसूरत लेकिन उदास शख्सियत। मैंने मन ही मन पूछा – जेबुन्निसा ? उसने सहमति में सर हिला दिया। मैंने कुछ कहना चाहा लेकिन मेरे मुंह से आवाज़ नहीं निकली। वह मुस्कुराई और एक अबूझ भाषा में जाने क्या-क्या कहती रहीं मुझसे। शायद फारसी। आवाज़ के उतार-चढ़ाव से लगा कि वह कोई कविता सुना रही थी मुझे। उनकी बात तो मैं नहीं समझ पाया लेकिन उनकी गहरी, महीन आवाज़ की अनुगूंज में देर तक डूबता-उतराता रहा।
आधी रात को पहरेदार की आवाज़ पर चेतना लौटी तो सामने अंधेरे और सन्नाटे के सिवा कुछ नहीं था। क्या था वह – सपना या अचेतन में बरसों से बनी जेबुन्निसा की छवि जो ध्यान की एकाग्रता में उभरकर सामने आ गई थी ? और वह आवाज़ ? वह आवाज़ तो अब भी कानों में गूंज रही थी। मैंने उठना चाहा, लेकिन तुरंत नहीं उठ सका। थकान इस तरह हावी थी मुझपर जैसे सदियों का लंबा सफर तय कर लौटा होऊं अभी-अभी। जी तो नहीं चाहा था लेकिन लौटना तो था वहां से। लौटते वक़्त मेरे होंठों पर जाने कैसे अपने द्वारा अनुदित उनकी एक रुबाई की ये पंक्तियां आ गईं – काबे के रास्तों में नहीं, दोस्त / यहीं कहीं मिलेगा खुदा / किसी चेहरे से झरते नूर / किसी नशीले लम्हे की खूबसूरती में / वहां, जहां तुम सौप दोगे / अपनी बेशुमार ख्वाहिशें मुझे /अपनी जेबुन्निसा को /जो जाने कितनी सदियों से / तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही है !
किले के बाहर निकलने के बाद मैंने पीछे मुड़कर देखा। सर घुमाया ही था कि उमस भरी उस रात में जाने कहां से शीतल हवा का एक तेज झोंका उठा और मुझे भीतर तक सिहरा गया। मैंने हाथ हिलाया और किले की ओर देखकर बहुत आहिस्ता से कहा – ‘फिर मिलेंगे, जेबुन्निसा !’
क्या सचमुच होती हैं आत्माएं?
कल दिल्ली के सलीमगढ़ किले में मेरे एक अनुभव के बारे में पढ़कर कुछ मित्रों ने आत्माओं के अस्तित्व को लेकर मुझसे कई सवाल किए हैं। बहुत सारे लोगों की तरह मैं भी आत्माओं या भूत-प्रेत को एक उम्र तक बकवास ही मानता रहा था लेकिन मेरे साथ घटी कई पारानॉर्मल घटनाओं मेरी सोच बदल दी। तब से मैंने इनके बारे में बहुत पढ़ा, सोचा, प्रयोग किये और एकाग्रता में इनकी उपस्थिति भी महसूस की। यह और बात है कि हमारी सोच के बड़े हिस्से पर अंधविश्वास हावी है, वरना आत्माओं के अस्तित्व पर यह विश्वास अवैज्ञानिक भी नहीं है। सोचने की बात है कि मरने के बाद देह तो मिट्टी में मिल जाती है, लेकिन हमारे भीतर तमाम बुद्धि-विवेक- भावनाओं के साथ जो संचालक ऊर्जा मौजूद है वह कहां जाती होगी ? विज्ञान भी मानता है कि ऊर्जा का कभी विनाश नहीं होता, रूपांतरण भर होता है। इसी विदेह ऊर्जा को हम चेतना, आत्मा अथवा प्रेत कह सकते हैं। अब तो वैज्ञानिकों का एक वर्ग भी मानने लगा है कि देह के नष्ट होने के बाद भी हमारी चेतना अपनी बुद्धिमत्ता के साथ पृथ्वी के वातावरण में मौजूद रहती है।
एक तरह से हम सब अपने पूर्वजों की ऊर्जाओं या आत्माओं से घिरे हुए हैं। मेरे जैसे असंखय लोगों के ऐसे अनुभव रहे हैं कि ये अदृश्य चेतनाएं हमसे संवाद करना चाहती हैं और ऐसा करने के लिए वे हमारे अचेतन मष्तिष्क से खेलती हैं। यह मानसिक संदेश हम तंद्रा की अवस्था में या सपनों में अक्सर सुनते और देखते तो हैं, लेकिन भ्रम मानकर अनदेखा-अनसुना भी कर देते हैं। ये प्रेत ऊर्जाएं उतनी ही अच्छी या बुरी होती हैं जितनी वे अपनी देहकाल में रही हैं। अच्छी ऊर्जाएं आसपास हों तो हमपर उनका प्रभाव सकारात्मक होता है। हर्ष, उल्लास, उत्साह और अच्छे विचारों के रूप में। नकारात्मक ऊर्जाओं की उपस्थिति परेशान, विचलित और कभी-कभी मानसिक तौर पर बीमार करती हैं। इस मानसिक विचलन को आमलोग भूत चढ़ना कहते हैं। प्रेत ऊर्जाओं को देखा नहीं, बस महसूस किया जा सकता हैं। हां, आप अत्यधिक डरे हुए हों तो आपको प्रेत दिखाई दे जा सकते हैं। भय के अतिरेक में मस्तिष्क हमारे भीतर के डर को ही प्रेतों के रूप में प्रोजेक्ट करता है। यह वैसा ही है जैसे भक्ति के अतिरेक में कुछ लोगों को देवी-देवताओं के भी साक्षात दर्शन हो जाते हैं।
आत्माओं या भूत-प्रेतों के को लेकर हमारे दिमाग में कचरा ही ज्यादा भरा हुआ है। विदेह ऊर्जाओं के रूप में उनके वास्तविक स्वरूप और भूमिका को लेकर गंभीर शोध नहीं हुए हैं। जिन्हें हम आत्मा या प्रेत कहकर सदियों से डरते और डराते रहे हैं, वे वस्तुतः हमारी ही ऊर्जाएं हैं। मरने के बाद हम सबको प्रेत ही होना है। ज़रूरी है कि अंधविश्वासों को परे रखकर उनके बारे में खुले दिमाग से बात और शोध हों। जो सवाल मनुष्यता को आदिम युग से परेशान करते रहे हैं उन्हें सीधे खारिज़ करने के बजाय उनका समाधान तो खोजा ही जाना चाहिए। अंधविश्वास गलत है तो अंध अविश्वास कैसे सही हो सकता है ?
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