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हेम मिश्रा की गिरफ्तारी पर संस्कृति कर्मियों की चुप्पी ठीक नहीं

दिल्ली : अत्यंत यातनापूर्ण स्थिति में नागपुर जेल में रखे गए हेम मिश्रा की रिहाई के लिए संस्कृतिकर्मियों से आह्वान करते हुए आनंदस्वरूप वर्मा ने कहा है कि धरना, प्रदर्शन आदि का कोई कार्यक्रम लेना चाहिए। इस पर खामोशी ठीक नहीं। यह कबीलावाद जब तक रहेगा, फासीवाद के खिलाफ कोई लड़ाई हम नहीं लड़ सकते.

<p>दिल्ली : अत्यंत यातनापूर्ण स्थिति में नागपुर जेल में रखे गए हेम मिश्रा की रिहाई के लिए संस्कृतिकर्मियों से आह्वान करते हुए आनंदस्वरूप वर्मा ने कहा है कि धरना, प्रदर्शन आदि का कोई कार्यक्रम लेना चाहिए। इस पर खामोशी ठीक नहीं। यह कबीलावाद जब तक रहेगा, फासीवाद के खिलाफ कोई लड़ाई हम नहीं लड़ सकते.</p>

दिल्ली : अत्यंत यातनापूर्ण स्थिति में नागपुर जेल में रखे गए हेम मिश्रा की रिहाई के लिए संस्कृतिकर्मियों से आह्वान करते हुए आनंदस्वरूप वर्मा ने कहा है कि धरना, प्रदर्शन आदि का कोई कार्यक्रम लेना चाहिए। इस पर खामोशी ठीक नहीं। यह कबीलावाद जब तक रहेगा, फासीवाद के खिलाफ कोई लड़ाई हम नहीं लड़ सकते.

आनंद स्वरूप वर्मा लिखते हैं – 17 मई को दिल्ली में आयोजित ‘कविता 16 मई के बाद’ राष्ट्रीय कार्यक्रम में मैंने अपने वक्तव्य में प्रस्ताव रखा था कि हम संस्कृतिकर्मियों को हेम मिश्रा की रिहाई की मांग को ले कर धरना, प्रदर्शन आदि का कोई कार्यक्रम लेना चाहिए क्योंकि हेम भले ही माओवादी विचारों के हों लेकिन वह सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये आम जनता की चेतना को उन्नत करने में लगे थे और उन्होंने कुछ भी ऐसा नहीं किया था जो भारतीय संविधान के विरुद्ध हो. 

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उन्हें अगस्त 2013 से अत्यंत यातनापूर्ण स्थिति में नागपुर जेल में रखा गया है और ज़मानत भी नहीं दी जा रही है जो कि उनका मौलिक अधिकार है…मुझे हैरानी और दुःख इस बात से है कि 17 मई के आयोजन की अब तक चार रपटें मेरी निगाह से गुजरीं लेकिन किसी भी रपट में न तो मेरे प्रस्ताव का जिक्र है और न हेम मिश्रा का उल्लेख ही है. इससे भी ज्यादा आश्चर्य इस बात से है कि इन सभी रपटों को लिखने वाले साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी ही हैं. हमारे अवचेतन में घर कर गया यह कबीलावाद जब तक रहेगा, फासीवाद के खिलाफ कोई लड़ाई हम नहीं लड़ सकते.

अभिषेक श्रीवास्तव अपने एफबी वॉल पर लिखते हैं – आनंद स्वरूप वर्मा का यह स्‍टेटस बहुत ज़रूरी सवाल उठाता है। 17 के कार्यक्रम में उनके दिए प्रस्‍ताव का प्रकाशित रपटों में छूट जाना एक गंभीर बात है। अव्‍वल तो इसकी एक वजह यह जान पड़ती है कि हिंदी के साहित्‍यकार और संस्‍कृतिकर्मियों का कबीला हेम मिश्रा के नाम या काम से परिचित ही नहीं है। फिर कौन परिचित है हेम से- अगला सवाल यह बनता है। आखिरी सवाल यह बनता है कि जो हेम के नाम या काम से परिचित हैं भी (अपनों का कबीला), आखिर उन्‍होंने भी हफ्ते भर बाद 23 मई के हिंदी भवन के सम्‍मेलन में हेम को अकेला क्‍यों छोड़ दिया?

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यह दौर संगठन और आंदोलन के मुकाबले व्‍यक्ति के बड़े हो जाने का है। व्‍यक्ति पर जब भी बात होगी, व्‍यक्तियों को छूटना ही पड़ेगा। बैनर एक ही है। उसमें साइबाबा को अंटा लीजिए, हेम मिश्रा को, या किसी और को। फर्क क्‍या पड़ता है?

आनंद स्वरूप वर्मा एवं अभिषेक श्रीवास्तव के एफबी वॉल से

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