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अखबार अभी भी, ‘चंदा मामा दूर के, पुए पकाएं गुड़ के’ सुनाते लग रहे हैं …  

आज अकेले इंडियन एक्सप्रेस ने चुनावी मुद्दे सेट किये हैं

संजय कुमार सिंह  

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आज इंडियन एक्सप्रेस ने अकेले दो चुनावी खबरें एक साथ लगभग बराबर में छापकर अच्छी शुरुआत की है। मुझे लगता है कि आज पहले पन्ने पर चुनावी खबरों का महत्व था कहां कब चुनाव है यह तो अंदर के पन्नों पर भी हो सकता था। इंडियन एक्सप्रेस की पहली खबर का शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होगा, “लोगों के बीच ट्रैक रिकार्ड के साथ जा रहा हूं, विपक्ष बिना पतवार, मुद्दाहीन है : प्रधानमंत्री”। दूसरी खबर का शीर्षक है, “लोकतंत्र की रक्षा का अंतिम मौका; कांग्रेस ने स्वास्थ्य के अधिकार का प्रण किया : खड़गे”। मेरा मानना है कि एक समय के बाद और एक समूह या वर्ग के बाहर विज्ञापन या प्रचार का असर नहीं होता है। उदाहरण के लिए, लाइफबॉय साबुन हो, घड़ी डिटर्जेंट या निरमा वाशिंग पावडर – सबके विज्ञापन अच्छे हैं, उत्पाद भी अच्छे हैं, खूब बिकते हैं पर क्या वे नया ग्राहक बना रहे हैं? मुझे विज्ञापन पसंद है, दिखे नहीं दिखे – याद है पर इन तीनों उत्पादों को मैं नहीं खरीदता नाम लेकर नहीं मागूंगा। मुझे लगता है कि अपने विज्ञापन के कारण भी ये उत्पाद जिनके हो गये हैं उनसे अलग इसकी पूछ नहीं है। प्रचार से कुछ चीजों की छवि ही खराब हो जाती है और उसका उदाहरण टाटा की नैनो कार भी है।  

मैं गलत हो सकता हूं पर विज्ञापन और प्रचार के मामले में मेरा मानना है कि वे सब को प्रभावित करते भी हों तो सबके मामले में काम नहीं करते हैं। हालांकि अभी वह मुद्दा नहीं है। चुनाव को लेकर अखबारों का प्रयास जारी लगता है। 2014 के आस-पास बदल सा गया मीडिया आज भी, ‘चंदा मामा दूर के पुए पकाएं गुड़ के’ सुनाते लग रहा है। आज टाइम्स ऑफ इंडिया में लीड का शीर्षक है (अनुवाद मेरा), “हैट-ट्रिक की गारंटी या विपक्ष निकल जायेगा?” मुख्य खबर का शीर्षक है, “1951 से अबतक के सबसे लंबे चलने वाले चुनाव में मोदी तीसरा कार्यकाल चाहते हैं,  कांग्रेस अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है”। अमर उजाला में बॉटम है : “वादे-दावे छोड़िये …. अबकी बार भरोसा और गारंटी की बहार”। उपशीर्षक है, “ब्रांड मोदी बनाम  चेहराविहीन विपक्ष की लड़ाई : सबका फोकस युवा महिला किसान और गरीबों के मुद्दों पर”। द टेलीग्राफ ने लीड के शीर्षक में ही बताया है कि इस बार चुनाव के समय मौसम गर्म हो जायेगा। मुझे राष्ट्रपति भवन के खुले लॉन में हुआ शपथ ग्रहण समारोह याद आ रहा है।   

ईवीएम पर बेहद लचर और फटीचर जवाब के बाद चुनाव आयोग ने चुनाव की जो तारीखें घोषित की हैं उसके अनुसार नोएडा और गाजियाबाद में 26 अप्रैल को चुनाव के बाद दिल्ली, गुड़गांव और फरीदाबाद में एक महीने बाद 26 मई को चुनाव होंगे। ठीक है कि मतगणना और नतीजों की घोषणा साथ ही होगी पर नोएडा और गाजियाबाद वालों की ईवीएम की रक्षा एक महीने ज्यादा करनी होगी। जाहिर है, इसपर खर्च भी होगा और यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि इलेक्टोरल बांड से चंदे के मामले में गृहमंत्री, अमित शाह ने कहा है कि उनके सांसद ज्यादा हैं इसलिए उन्हें ज्यादा पैसे मिले और यह दूसरे दलों के मुकाबले (अभी तक) कम है। मुझे लगता है कि चंदे (दरअसल वसूली) को सांसदों की संख्या से जोड़ने का कोई मतलब नहीं है और चुनाव लड़ने का खर्च तो हारने वाले का भी होता है, वेतन भत्ते नहीं मिलते सो अलग। इसलिए वसूली अगर होती है या जायज है तो हारने वाले को भी मिलना चाहिये या फिर सांसदों का खर्च इतना अलग नहीं होना चाहिये। जो भी हो, अखबारों में या वैसे भी, यह मुद्दा नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने 2014 का चुनाव भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर जीता था। दस साल का यह विकास उल्लेखनीय नहीं है?

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इस बार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के साथ-साथ मणिपुर में दो लोकसभा सीटों के लिए भी दो चरणों में मतदान होगा। आप जानते हैं कि राज्य में पिछले मई से भारी हिंसा चल रही है। जातीय संघर्ष के कारण राज्य के भीतर विस्थापित हुए 23,000-25,000 लोग हैं। कई तो शिविरों में रह रहे हैं। इस बार उनके लिये विशेष बूथ बनाये जायेंगे। मतदाताओं के साथ, चुनाव आयोग 10 जिलों के राहत शिविरों में उनके मतदान की व्यवस्था कर रहा है। कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म हुए पांच साल हो चुके हैं, तमाम जनप्रतिनिधियों का कार्यकाल पूरा हो चुका है और स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा तक के चुनाव जल्द कराये जाने चाहिये। पर कल की घोषणा के साथ कहा गया कि जम्मू और कश्मीर के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के बाद कराये जायेंगे। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि आंध्र प्रदेश, उड़ीशा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ होंगे। आज के अखबारों में ये सूचनाएं अलग-अलग हैं। देश में आम चुनाव की घोषणा सुनते ही ये सवाल उभरते हैं और इनका जवाब प्रमुखता से होना चाहिये था। पर नहीं है क्योंकि इसका मतलब होता, सरकार की नाकामियों को रेखांकित करना, याद दिलाना।

ऐसी खबरों के मामले में मीडिया का पक्षपात अब बहुत खुला और स्पष्ट है। आज द टेलीग्राफ के पहले पन्ने पर चुनाव की घोषणा लीड है। उसके अलावा निम्नलिखित खबरें हैं जो दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर तो नहीं दिखी। सिर्फ शीर्षक से आप समझ सकते हैं कि पक्षपात कितना जबरदस्त है। जम्मू में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद लंबे समय से चुनाव का इंतजार है। लेकिन वहां विधासभा चुनाव नहीं हो रहे हैं। यह खबर तो छोड़िये, जम्मू और कश्मीर पीपुल्स फ्रीडम लीग और जम्मू व कश्मीर पीपुल्स लीग के सभी गुटों के साथ हुर्रियत कांफ्रेंस पर प्रतिबंध लगाया गया है। यासिन मलिक के नेतृत्व वाले जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट पर प्रतिबंध पांच साल बढ़ा दिया गया है। क्या आपको यह साधारण खबर लगती है। इसी तरह, कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने कहा है, इस बार का चुनाव तय करेगा कि देश लोकतंत्र रहेगा या तानाशाही में। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री ने अपनी और पार्टी की प्रशंसा में जो कहा है उसके मुकाबले मतदाताओं को सतर्क करना, देशहित में है।  ऐसी और खबरें हैं 1) यूएन (संयुक्त राष्ट्र) में भारत इस्लाम फोबिया पर वोट देने स बचा। 2) बांड लोकतंत्र के लिए घातक थे : एडीआर। 3) बांड को लेकर सुप्रीम कोर्ट की फटकार में विपक्ष को मौका नजर आया। 4) मणिपुर के 9000 मतदाता मणिपुर में हैं, विस्थापित मतदाताओं के मतों पर संदेह का घेरा।

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चुनाव की घोषणा से संबंधित एक महत्वपूर्ण मुद्दा पूर्व चुनाव आयुक्त अरुण गोयल का इस्तीफा भी था। मुख्य चुनाव आयुक्त ने इसकी चर्चा की और हिन्दुस्तान टाइम्स ने इसे चार कॉलम में छापा है। हालांकि, उन्होंने सब सामान्य दिखाने की ही कोशिश की है जबकि मुद्दा यह है कि उन्होंने अंतिम समय में इस्तीफा क्यों दिया और खाली पद को समय रहते क्यों नहीं भरा गया था। जब एक पद पहले से खाली था तो उनका इस्तीफा इतनी जल्दी कैसे मंजूर हो गया। नोटिस पीरियड नहीं होता है? यह अलग बात है कि इन सवालों का जवाब मुख्य चुनाव आयुक्त को नहीं देना था। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर तो है कि मणिपुर के राहत शिविरों में रहने वाले मतदाताओं के लिए विशेष व्यवस्था की गई है पर जैसा द टेलीग्राफ में बताया गया है, उनकी चिन्ता नहीं है जो मणिपुर में रह रहे हैं। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि दो सीटों के लिए दो चरणों में मतदान हो रहे हैं।

आप जानते हैं कि कार्यकाल के दौरान सरकार का ही काम है कि वह निष्पक्ष चुनाव की व्यवस्था करे और निश्चित समय पर चुनाव की घोषणा हो जाये। इस बार चुनाव आयुक्त का पद खाली था और एक ने अंतिम समय पर इस्तीफा दे दिया। इस कारण चुनाव की घोषणा में देरी हुई है और छह या पांच चरणों में करवाकर समय से परिणाम देने की कोशिश हुई या नहीं, पता ही नहीं चला क्योंकि नियुक्ति के तुरंत बाद घोषणा हो गई है। इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर चुनाव की घोषणा की खबर के साथ ही एक खबर से बताया है कि देरी चुनाव आयुक्त के इस्तीफे से हुई है और इस बार जून में फैसला आयेगा जो 1991 के बाद से पहली बार होगा। सरकार ने जब, ‘एक देश, एक चुनाव’ की बहुप्रचारित योजना के तहत पूर्व राष्ट्रपति के नेतृत्व में एक समिति बना दी थी और समिति ने अपनी रिपोर्ट दे ही है तो यह तथ्य है कि देश भर का तो छोड़िये, सिर्फ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के चुनाव एक दिन नहीं कराये जा रहे हैं।

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कुल मिलाकर, आज के अखबारों में चुनाव की घोषणा ही लीड होनी थीं वही है। लेकिन इस और दूसरी खबरों की प्रस्तुति से अखबारों का पूर्वग्रह समझा जा सकता है। संभव है, यह पूर्वग्रह नहीं हो पन्ने भरना भर हो और सुविधानुसार जो पहले मिला उसे पहले डाल दिया – का ही मामला हो। पर जो छपता है वही दिखता है और उसका असर होता है। इसी को प्रचार कहा जाता है। जब अखबारों को निष्पक्ष रहने की कोशिश करनी चाहिये तब क्या होगा उसका संकेत आज के अखबारों से मिल रहा है। आइये आज इसी को देखते-समझते हैं। आचार संहिता लागू होने के बाद सरकार कोई नई घोषणा नहीं कर सकती है और जो कर चुकी उससे संबंधित खबरें विज्ञापन और प्रचार ही हैं। शायद इसीलिये चुनाव की घोषणा के साथ कल प्रधानमंत्री ने कहा, मैं ‘राष्ट्र प्रथम’ से प्रेरित हूं, कुछ लोग ‘परिवार प्रथम’ से प्रेरित हैं : मोदी” (नवोदय टाइम्स)। अब यह कहां छपेगी, कितनी बड़ी छपेगी, शीर्षक क्या होगा और कितने कॉलम में होगी – यह इरादतन तय नहीं भी किया जाये तो पाठकों पर उसका प्रभाव पड़ेगा ही।

दूसरी ओर, नरेन्द्र मोदी 10 साल से प्रधानमंत्री हैं, उन्हें अभी भी अपने बारे में बताना पड़ रहा है। अखबार दोनों तथ्यों का प्रचार या उन्हें रेखांकित करने का काम भी क्यों करें? उनकी तो मजबूरी हो सकती है, अखबार क्यों प्रचार करे? मुझे लगता है कि अखबारों को इसका ख्याल रखना चाहिये कि वे संतुलित रहें और न भी रहें तो संतुलित दिखें। पर उनकी मर्जी। इसी तरह, हिन्दुस्तान टाइम्स ने पहले पन्ने से पहले के अपने अधपन्ने पर जो लीड बनाया है उसका शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होगा, दक्षिण भारत में जोर लगाते हुए प्रधानमंत्री ने रिश्वत विरोधी हमला शुरू किया। इसके साथ छपी फोटो का कैप्शन है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तेलंगाना के मलकजगिरि चुनाव क्षेत्र में मौजूद लोगों का अभिवादन करते हुए। यह संयोग ही है कि फोटो का श्रेय एएनआई को है जिसे इस सरकार ने भरपूर संरक्षण दिया है। पिछले 10 साल में इसका विकास दिख रहा है तो दूसरी समाचार एजेंसियों का ह्रास भी महत्वपूर्ण है पर वह अलग मुद्दा है।

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