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सियासत

भारतीय मुस्लिम लड़की की तारीफ़ के चक्कर में मारा गया अलकायदा चीफ़ अल-जवाहिरी!

चंद्र भूषण-

अल-जवाहिरी की मौत से क्या बदलेगा… अयमान अल जवाहिरी के मारे जाने की खबर सीधे अमेरिकी राष्ट्रपति जोसफ बाइडेन ने दी है लिहाजा इसके गलत होने की आशंका लगभग शून्य है। उसे काबुल के एक सुरक्षित ठिकाने पर ड्रोन से छोड़ी गई दो हेलफायर मिसाइलों से मार गिराने की बात खुद बाइडेन ने कही है। मरते दम तक अल जवाहिरी अलकायदा का प्रमुख था और ओसामा बिन लादेन के समय, जब यह आतंकी संगठन अपने उभार पर था, तब इसमें उसकी जगह नंबर 2 की मानी जाती थी। लेकिन नंबरिंग को एक तरफ रख दें तो शुरू से अंत तक जवाहिरी अलकायदा का सिद्धांतकार था। उसकी मौत के बाद इस संगठन को पुराने रूप में बचाए रखना शायद ही किसी के लिए संभव हो।

अमेरिका में 3000 लोगों की जान लेने वाले 9/11 जैसे हमले के बाद किसी घोषित सरकारी संरक्षण के बिना अल जवाहिरी को 21 साल जिंदा रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस सदी की शुरुआत में कोई ऐसा किस्सा भी लिखता तो उसे गपोड़ी कहा जाता। सवाल यह है कि अभी अल जवाहिरी के मारे जाने का दुनिया के लिए और खास तौर पर भारत के लिए क्या मतलब है? शुरुआत अपने देश से ही करें तो शुरू में कश्मीर से जोड़कर और ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद सीधे भारतीय मुसलमानों का नाम लेकर जवाहिरी के कई बयान आए थे।

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2014 में उसने एक वीडियो जारी करके भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में संगठन का काम देखने के लिए अलकायदा की अलग शाखा शुरू करने की बात कही थी। लेकिन पाकिस्तानी बताए गए जिस ‘मौलाना आसिम उमर’ को इसके शीर्ष पर रखा गया था, वह अफगानिस्तान में मारा गया। बाद में पता चला गया कि काफी समय से अलकायदा के साथ लगे इस शख्स का बचपन यूपी के संभल जिले में कटा था। अभी हाल में हमारे यहां अल जवाहिरी की चर्चा अप्रैल 2022 में जारी उसके एक वीडियो के चलते हुई थी, जिसमें उसने कर्नाटक के हिजाब प्रकरण को लेकर चर्चा में आई छात्रा मुस्कान की तारीफ में अपनी एक कविता पढ़ी थी- ‘बहुदेववादियों के सामने नारा-ए-तकबीर बुलंद करने वाली हमारी बहन…।’

वीडियो से ही खुला रास्ता

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दरअसल, इस वीडियो से ही दुनिया को यकीन हुआ कि अयमान अल जवाहिरी अभी सचमुच जिंदा है और किसी ऐसी जगह पर है, जहां से इसकी रिकॉर्डिंग के तुरंत बाद बड़े पैमाने पर इसका प्रसारण करा सके। यूं कहें कि इस वीडियो ने ही उसके मारे जाने की प्रस्तावना लिख दी। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन इस समय छवि के संकट का सामना कर रहे हैं। अफगानिस्तान से जिस तरह गिरते-पड़ते और अंतिम क्षण तक बम धमाकों में जान गंवाते हुए अमेरिकी फौजियों की विदाई हुई, उससे न सिर्फ बाइडेन बल्कि अमेरिका की साख को भी भारी धक्का लगा था। उस झटके से उबरने के लिए बाइडेन ने फिलहाल ‘लोकतंत्र के प्रहरी’ के रूप में अपनी भारी ताकत यूक्रेन में झोंक रखी है।

यहां सीधे उनके फौजी नहीं लगे हैं लिहाजा अफगानिस्तान जितना बड़ा जोखिम तो नहीं है। लेकिन लड़ाई से उभरी महंगाई ने अमेरिकियों की हालत इतनी खराब कर रखी है कि दो महीने बाद अमेरिकी संसद के निचले सदन के लिए होने वाले चुनावों में बाइडेन को जबर्दस्त नुकसान होने की आशंका जताई जा रही है। अल जवाहिरी का सफाया इन झटकों से उबरने में उनकी कुछ मदद जरूर करेगा, फिलहाल ऐसी उम्मीद की जा सकती है। रही बात दुनिया के लिए इस घटना के महत्व की, तो शायद ही किसी को याद हो कि अल कायदा ने किसी बड़ी आतंकी गतिविधि को कितने साल पहले अंजाम दिया था।

उसके प्रशंसक अरब देशों में सतह के नीचे उसका आधार फैला होने की बात करते थे लेकिन 2010 की शुरुआत में वहां की पुरानी तानाशाहियों के खिलाफ ‘अरब स्प्रिंग’ की शक्ल में जनविद्रोह ने जोर पकड़ा तो अल कायदा का कोई नाम भी लेने वाला नहीं था। यह लहर अपने अंजाम तक पहुंच रही थी तभी मई 2011 में अमेरिकी नेवी सील ने पाकिस्तान के ऐबटाबाद शहर में ओसामा बिन लादेन को ढेर कर दिया।

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अल कायदा ने जमीन पर कुछ कर सकने की अपनी क्षमता उसकी मौत के साथ ही खो दी, हालांकि उससे जुड़े आतंकी ढांचे अपनी-अपनी जगह पर बने हुए थे। फिर 2014 में इराक और सीरिया में अमेरिका, सऊदी अरब और तुर्की की अघोषित देखरेख में ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड शाम’ (आइसिस) का उभार शुरू हुआ और आतंकियों की नई पीढ़ी ‘इक्कीसवीं सदी की खिलाफत’ का हिस्सा बनने उसके पीछे चली गई। घृणा से बजबजाते, डरे हुए, अधेड़ या बूढ़े कट्टरपंथियों की जमात ही अल कायदा के पास बची रह गई।

दुनिया बदल चुकी है

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अभी सीरिया का अल नुस्रा, पश्चिमी अफ्रीका का अल शबाब और सब-सहारन अफ्रीका का बोको हराम संगठन ही अल कायदा के साथ अपने जुड़ाव के लिए जाने जाते हैं, हालांकि उनके जीने-मरने का किस्सा अलग है। 71 साल के अल जवाहिरी के न रहने का उनपर रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। दुनिया पर इस आतंकी सिद्धांतकार के वैचारिक असर का गतिविज्ञान समझने के लिए हमें सरसरी तौर पर उसके जीवन का जायजा लेना पड़ेगा। अल जवाहिरी मिस्र (इजिप्ट) की राजधानी काहिरा के एक प्रतिष्ठित परिवार का वारिस था। उसके दादा संसार की कुछेक सबसे सम्मानित मस्जिदों में एक, काहिरा की अल अजहर मस्जिद के इमाम थे जबकि पिता फार्मेसी के प्रोफेसर थे।

रेडिकल इस्लाम की ओर अल जवाहिरी का झुकाव 15 साल की उम्र में बना, जब फौजी नेतृत्व वाली उदार जीवनशैली के विरोधी इस्लामी धर्मशास्त्री अल कुत्ब को फांसी की सजा सुनाई गई। 30 साल की उम्र में, यानी सन 1981 में जब एक सर्जन के रूप में अल जवाहिरी की ख्याति बढ़ रही थी, तब उसको राष्ट्रपति अनवर सादात की हत्या की साजिश रचने के जुर्म में तीन साल की कैद मिली। जेल से निकलकर वह सऊदी अरब में प्रैक्टिस करने लगा, जहां उसकी मुलाकात एक बड़े बिल्डर के बेटे ओसामा बिन लादेन से हुई।

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जल्द ही अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ जंग लड़ने के लिए उनके जमावड़े को सऊदी सरकार और अमेरिका का संरक्षण मिल गया। लेकिन रूस के वहां से हटते ही अलकायदा की धार खाड़ी क्षेत्र की तानाशाहियों और अमेरिका के खिलाफ मुड़ गई। इक्कीसवीं सदी के इस तीसरे दशक में अल जवाहिरी के किस्से के संदर्भ बहुत बदल गए हैं। सबसे पहले तो इस मायने में कि अमेरिका एक बड़ा तेल उत्पादक देश बन चुका है और खाड़ी क्षेत्र में सरकारें बनाने-बिगाड़ने से ज्यादा उसकी दिलचस्पी उनके साथ धंधे का साझा करने में हो गई है।

दूसरे, इजराइल का विरोध अब अरब देशों के एजेंडे पर नहीं रह गया है और ज्यादातर ने उसके साथ कूटनीतिक-व्यापारिक रिश्ते बहाल कर लिए हैं। तीसरे, दो ध्रुवों में बंटती दिख रही दुनिया में खाड़ी क्षेत्र के देशों ने अमेरिका और यूरोप के साझा दबाव को संतुलित करने के लिए रूस और चीन के साथ नजदीकी रिश्ते बना लिए हैं। चौथा पहलू यह कि इस क्षेत्र की ज्यादातर जमी-जमाई तानाशाहियां अरब स्प्रिंग के हल्ले में साफ हो गई हैं। कुल मिलाकर देखें तो यहां की राजनीति-कूटनीति दोनों बहुत बदल गई है। छोटे आतंकी संगठनों को इससे शायद ही कोई फर्क पड़े, लेकिन ‘दुनिया बदलने वाले’ संगठनों के दिन लद चुके हैं।

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आतंक के आगे अपनी जगह

भारत के लिए आतंकवाद पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से एक बड़ी समस्या बना हुआ है लेकिन न तो अल कायदा के मजबूत होने से इसकी ताकत में अलग से कोई इजाफा हुआ था, न ही उसके कमजोर पड़ने से हमारे यहां इसका ढांचा दरकने वाला है। भारत में आतंकवाद को खाद-पानी हमेशा पाकिस्तान की और जब-तब अफगानिस्तान की कट्टरपंथी सरकारों से मिलता रहा है। तालिबान हुकूमत की वापसी से इसकी आशंका थोड़ी और बढ़ गई है, हालांकि आंकड़ों से इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती।

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अल जवाहिरी जिस विचार का प्रतिनिधित्व करता था, उसमें अचानक कोई कमजोरी उसकी मौत के बाद भी नहीं आने वाली है। ‘पूरी दुनिया इस्लाम और इस्लामी जीवनशैली के पीछे पड़ी है, इसका जवाब दुनिया का जीना हराम करके दिया जाना चाहिए’, ऐसी प्रस्थापना समय के साथ निरर्थक सिद्ध हो जाएगी, बशर्ते इसे बल देने वाली घटनाएं घटित होनी बंद हो जाएं। अभी रूस और चीन के रूप में कुछ ज्यादा बड़े दुश्मन भी अमेरिका को मिल गए हैं। उसका फोकस अगर आने वाले दिनों में ‘इस्लामी आतंकवाद’ से हटता है तो अल जवाहिरी के प्रभाव वाली समझ के अपनी मौत मर जाने में इससे काफी मदद मिलेगी।

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