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सियासत

गांधीजी की पुण्यतिथि तीस जनवरी के शहीद दिवस को ‘गोडसे गौरव दिवस’ में ‘मर्ज’ कर देना चाहिए!

गिरीश मालवीय-

कल तीस जनवरी है जैसे इंडिया गेट में प्रज्वलित अमर जवान ज्योति को वॉर मेमोरियल में जल रही मशाल में ‘मर्ज’ कर दिया गया है उसी प्रकार हो सकता है कि मौजूदा सरकार द्वारा गांधीजी की पुण्यतिथि पर मनाए जाने वाले तीस जनवरी के शहीद दिवस को ‘गोडसे गौरव दिवस’ में ‘मर्ज’ कर दिया जाए।

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स्व. हरिशंकर परसाई बहुत पहले ही यह आशंका जता चुके हैं कि निकट भविष्य में ऐसा हो सकता है… सन ७८ में एक जगह वह लिखते हैं…..

‘यह सभी जानते हैं कि गोडसे फांसी पर चढ़ा, तब उसके हाथ में भगवा ध्वज था और होंठों पर संघ की प्रार्थना- नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि. पर यही बात बताने वाला गांधीवादी गाइड दामोदरन नौकरी से निकाल दिया गया है. उसे आपके मोरारजी भाई ने नहीं बचाया.

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मोरारजी सत्य पर अटल रहते हैं. इस समय उनके लिए सत्य है प्रधानमंत्री बने रहना. इस सत्य की उन्हें रक्षा करनी है. इस सत्य की रक्षा के लिए जनसंघ का सहयोग ज़रूरी है. इसलिए वे यह झूठ नहीं कहेंगे कि गोडसे आर.एस.एस. का था. वे सत्यवादी हैं.

तो अब महात्माजी, जो कुछ उम्मीद है, बाला साहेब देवरस से है. वे जो करेंगे, वही आपके लिए होगा. वैसे काम चालू हो गया है. गोडसे को भगतसिंह का दर्जा देने की कोशिश चल रही है. गोडसे ने हिंदू राष्ट्र के विरोधी गांधी को मारा था.

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गोडसे जब भगतसिंह की तरह राष्ट्रीय हीरो हो जायेगा, तब तीस जनवरी का क्या होगा? अभी तक यह ‘गांधी निर्वाण दिवस’ है, आगे ‘गोडसे गौरव दिवस’ हो जायेगा. इस दिन कोई राजघाट नहीं जायेगा. फिर भी आपको याद ज़रूर किया जायेगा.

जब तीस जनवरी को गोडसे की जय-जयकार होगी, तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि उसने कौन-सा महान कर्म किया था. बताया जायेगा कि इस दिन उस वीर ने गांधी को मार डाला था. तो आप गोडसे के बहाने याद किये जायेंगे. अभी तक गोडसे को आपके बहाने याद किया जाता था.

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एक महान पुरुष के हाथ से मरने का कितना फायदा मिलेगा आपको? लोग पूछेंगे- यह गांधी कौन था? जवाब मिलेगा- वही जिसे गोडसे ने मारा था.


कुमार ध्रुव-

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खबर है कि 30 जनवरी 2022 को, महात्मा गांधी की शहादत के दिन “मैंने गांधी को क्यों मारा” नाम की कोई फिल्म ऑनलाइन रिलीज की जा रही है। जब सारा देश व दुनिया इस शोक व प्रायश्चित भाव से भरी होगी होगी कि आज के ही दिन गांधी की हत्या हुई थी, एक फिल्म दिखाने की योजना है कि जो इस हत्या का औचित्य बताएगी। यह सोच ही कितनी विकृत है कि किसी की हत्या का औचित्य बताया जाए; और वह भी गांधी जैसे व्यक्ति की हत्या का जिसे ईसा व बुद्ध के समकक्ष हम ही नहीं, सारा संसार मानता है।

महात्मा गांधी की हत्या के उतने ही वर्ष हो रहे हैं जितने वर्ष हमारी आजादी के हो रहे हैं। इतने वर्ष पहले जो आदमी मारा गया, उसके हत्या का औचित्य प्रमाणित करने की आज जरूरत क्यों आ पड़ी है ? इसलिए कि जिन लोगों ने, जिस विचारधारा से प्रेरित हो कर गांधी को मारा वे खूब जानते हैं कि उनकी तीन गोलियों से वह आदमी मरा नहीं। वे हैरान व परेशान हैं कि इस आदमी को मार सके, ऐसी गोली बनी ही नहीं क्या? कोई ऐसी कब्र खोदी क्यों नहीं जा सकी जो उनके विचारों को दफ़ना सके ? जवाब मिलता नहीं है और यह आदमी मरता नहीं है। इसलिए हत्यारों को उनकी हत्या का औचित्य बार-बार प्रमाणित व प्रचारित करने की जरूरत पड़ती है। और अब यह ज्यादा आसान हो गया है क्योंकि व्यवस्था व सरकार भी उस हत्यारी विचारधारा के साथ है।

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हम जो महात्मा गांधी के विचारों को मानते हैं, यह भी मानते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता सबको समान रूप से मिलनी चाहिए। हमारे देश में सबके लिए सम्मान व अधिकार का जीवन सुनिश्चित होना चाहिए, इसी टेक के कारण तो गांधी की हत्या हुई थी। तो हम मानते हैं कि हत्यारों को भी अपनी बात कहने का वैसा ही अधिकार होना चाहिए जैसा हमें है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हामी हर व्यक्ति को ऐसी परीक्षा से कभी-न-कभी गुजरना होता ही है। लेकिन एक सवाल बचा रह जाता है कि क्या किसी को, किसी की हत्या का अधिकार भी है ? हमारा संविधान कहता है : नहीं, यह अधिकार किसी को, किसी भी स्थिति में नहीं है। हमारा संविधान राज्य को आदेश देता है कि हत्यारों को पकड़ो, उन्हें कानूनसम्मत सजा दो ! वही संविधान यह भी कहता है कि हत्या की साजिश भी अपराध है और हत्या का समारोह भी अपराध है। तो हत्या करना और फिर उस हत्या का औचित्य साबित करना संवैधानिक कैसे हो सकता है ? जवाब आज की व्यवस्था को और राज्य को देना है। देश देख रहा है कि व्यवस्था व सरकार हत्यारों के साथ खड़ी है कि संविधान के साथ खड़ी है ?

हम हत्यारों की इस कोशिश का प्रतिवाद करते हैं, इसकी भर्त्सना करते हैं और देश को सावधान करते हैं कि यह लोकतंत्र की आड़ ले कर, यह लोकतंत्र को ही खत्म करने की चाल है। हम अपने इस प्रतिवाद के जरिए समाज व सरकार के अंतरमन को छूने की कोशिश कर रहे हैं। क्या हम इतने कृतघ्न हैं कि अपने राष्ट्रपिता के हत्यारों को मनमानी करने की ऐसी छूट दें कि वे राष्ट्रपिता के बाद, राष्ट्र के संविधान की भी हत्या कर दें ?

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हम सभी जानते हैं कि नाथूराम गोडसे और हिंदुत्व का उनका पूरा संगठन झूठ और अफवाहों की ताकत से ही चलता था, और चलता है। अब कौन नहीं जानता है कि नाथूराम द्वारा गांधी पर चलाई गोली भी और अदालत में दिया उनका तथाकथित बयान भी उनका अपना नहीं था ! नाथूराम को सामने रख कर सारा खेल पर्दे के पीछे से सावरकर व हिंदू महासभा खेल रही थी। अब वैसा ही खेल सत्ता की आड़ में खेला जा रहा है। हम जोर दे कर कहना चाहते हैं कि गलत इरादे से लिखी गई किसी भी किताब या फ़िल्म या गीत या नाटक या बयान या भाषण की अनुमति किसी को नहीं होनी चाहिए और हमें इन सबको नकारना चाहिए। जनता से हमारी अपील है कि वह इन काली ताकतों के बहकावे में न आएँ और सरकारों से सवाल पूछना जारी रखें। यह चुप बैठने का वक्त नहीं है।

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