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सियासत

नमो बताएं कि आम आदमी और अम्बानीयों-अडानियों की विकास-दर में इतना फर्क क्यो है

Article1

सपने बेचना कोई खेल नहीं। तमाशा नहीं। हुनर चाहिए। एक हुनर-मंद गया। दूसरा अभी-अभी आया है। बदकिस्मती से ये तमाशा बदस्तूर जारी है। देश को 60,000 करोड़ की एक बुलेट ट्रेन चाहिए या इसी रकम में सैकड़ों एक्सप्रेस ट्रेनों का कायाकल्प चाहिए? बुलेट ट्रेन में रईस वर्ग सवारी करेगा। एक्सप्रेस ट्रेन, आज भी आम आदमी को ढोती है। एक बुलेट ट्रेन में क़रीब 400 रईस लोग बैठेंगें। सैकड़ों एक्सप्रेस ट्रेनों में हज़ारों आम-आदमी। एक्सप्रेस ट्रेन में तक़रीबन 300 रुपया मिनिमम किराया होता है। जबकि बुलेट ट्रेन में टिकट की शुरुवात ही 3,000 रुपयों से होगी। ये एक बानगी है, नए प्रधानमंत्री की सोच की। ऐसी सोच, जो सड़े-गले सिस्टम को सुधार कर ईमानदार बनाने की बजाय, पूंजी आधारित प्रणाली विकसित करने की फ़िराक में है। एक गरीब देश के गरीब नागरिकों को, राहत देने की बजाय परेशान करने की फ़िराक में।

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सपने बेचना कोई खेल नहीं। तमाशा नहीं। हुनर चाहिए। एक हुनर-मंद गया। दूसरा अभी-अभी आया है। बदकिस्मती से ये तमाशा बदस्तूर जारी है। देश को 60,000 करोड़ की एक बुलेट ट्रेन चाहिए या इसी रकम में सैकड़ों एक्सप्रेस ट्रेनों का कायाकल्प चाहिए? बुलेट ट्रेन में रईस वर्ग सवारी करेगा। एक्सप्रेस ट्रेन, आज भी आम आदमी को ढोती है। एक बुलेट ट्रेन में क़रीब 400 रईस लोग बैठेंगें। सैकड़ों एक्सप्रेस ट्रेनों में हज़ारों आम-आदमी। एक्सप्रेस ट्रेन में तक़रीबन 300 रुपया मिनिमम किराया होता है। जबकि बुलेट ट्रेन में टिकट की शुरुवात ही 3,000 रुपयों से होगी। ये एक बानगी है, नए प्रधानमंत्री की सोच की। ऐसी सोच, जो सड़े-गले सिस्टम को सुधार कर ईमानदार बनाने की बजाय, पूंजी आधारित प्रणाली विकसित करने की फ़िराक में है। एक गरीब देश के गरीब नागरिकों को, राहत देने की बजाय परेशान करने की फ़िराक में।

2014 का नरेंद्र मोदी नाम का “नायक” अब प्रधानमंत्री है। ऐसा प्रधानमंत्री, जो दशकों से खराब पड़े सिस्टम को सुधारने की बजाय, इसे निजी हाथों में देने को बेताब है। इस नायक का सिद्धांत साफ है, कि, आम आदमी को सुविधा तो मिलेगी, मगर अतिरिक्त कीमत अदायगी के बाद। ज़्यादा पैसा खर्च करना होगा। यानि सिस्टम को दुरूस्त कर, जायज़ कीमत में, सुविधा नहीं दी जाएगी। सुविधा के लिए अम्बानीयों-अडानियों जैसे किसी ठेकेदार का मुंह देखना होगा। मसलन, ट्रेन में मिलने वाली 10 रुपये की चाय तो वैसी ही सड़ी हुई मिलेगी, मगर अच्छी चाय चाहिए तो अम्बानीयों-अडानियों जैसे किसी ठेकेदार को 15 रुापये अदा करने होंगें। 25 रुपये की कीमत वाली घटिया भोजन की थाली, ट्रेन में 100 रुपये की मिलती है।

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नए प्रधानमंत्री की अगुवाई में ये ऐलान किया गया है कि 100 रुपये की घटिया भोजन थाली मिलती रहेगी। हाँ, अच्छा भोजन चाहिए तो किसी ब्रांडेड कंपनी को 150-200 रुपये अदा कीजिये। यानि सिस्टम को दुरूस्त करने की बजाय, सारा ध्यान आम आदमी की जेब से निकासी पर रहेगा। जेब पर डाका डालने के बावजूद, आम आदमी की भक्ति तो देखिये। अंधभक्ति। अम्बानीयों-अडानियों जैसों की मार झेल रहा आम आदमी, अम्बानीयों-अडानियों जैसे ठेकेदारों को भारत का भाग्य विधाता” दर्ज़ा देने से वाक़िफ़ नहीं है? आम आदमी अभी भी स्वस्थ औघोगिक विकास और शॉर्ट-कट वाले औघोगिक विकास में अंतर नहीं समझ पा रहा और न ही इस बात में भेद कर पा रहा कि व्यक्तिगत विकास और सामूहिक विकास का फासला बहुत बड़ा कैसे होता जा रहा है?

आंकड़े बता रहे हैं कि आम आदमी का विकास रॉकेट की गति से भले ही न हुआ हो लेकिन आम आदमी की बदौलत, पिछले कुछ ही सालों में, स्पेस विमान की रफ़्तार से हिन्दुस्तान में कई अम्बानी-अडानी पैदा हो गए। करोड़ों की दौलत, अचानक से सैकड़ों-हज़ारों-लाखों करोड़ में जा पहुँची। कैसे? क्या नरेंद्र मोदी और मनमोहन सिंह जैसे लोग इस बात के ज़िम्मेदार हैं? क्या आम आदमी की हिस्सेदारी का काफी बड़ा हिस्सा “हथियाने” का हक़, अम्बानीयों-अडानियों को मोदी और मनमोहन जैसे लोगों ने दिया? क्या आम-आदमी को मालूम है कि विकास की आड़ में आम-आदमी की आर्थिक हिस्सेदारी सिमटती जा रही है और व्यक्ति-विशेष की मोनोपोली सुरसा के मुंह की तरह फ़ैली जा रही है? आम आदमी को मालूम होता तो उसके ज़ेहन में ये सवाल ज़रूर आता, कि, ईमानदार सिस्टम जायज़ कीमत में अगर सुविधा दे सकता है तो उसी सुविधा के लिए नाजायज़ या अतिरिक्त राशि की मांग क्यों?

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क्या आम आदमी को मालूम है कि आज आम आदमी की औकात, अम्बानीयों-अडानियों के सामने दो-कौड़ी की हो चली है? नहीं! आम आदमी को नहीं मालूम। मालूम होता तो वो मोदी और मनमोहन जैसों से ये ज़रूर पूछता कि आम आदमी और अम्बानीयों-अडानियों की विकास-दर में क्या फ़र्क़ है? आम आदमी को मालूम होता तो वो ज़रूर सवाल करता कि अपने मुल्क़ में अम्बानी-अडानियों की इच्छा के बिना कोई फैसला क्यों नहीं होता? आम आदमी को मालूम होता तो वो ज़रूर ज़ुर्रत करता, ये पूछने की कि इस देश के प्राकृतिक संसाधन या ज़मीन पर पहला हक़ अम्बानीयों-अडानियों जैसों का क्यों है? आम आदमी को, मोदी और मनमोहन जैसे लोग ये कभी नहीं बताते कि अम्बानी-अडानी जैसों की जेब में भारत के मोदी और मनमोहन क्यों पड़े रहते हैं?

किसी भी देश के विकास में उद्योग-धंधों की स्थापना का अहम योगदान होता है। पर इस तरह के विकास में समान-विकास की अवधारणा अक्सर बे-ईमान दिखती है। ऐसा तब होता है जब, भ्रष्टाचार की क्षत्रछाया में, देश-प्रदेश के “भाग्य-विधाता” हिडेन एजेंडे के तहत निजी स्वार्थ की पूर्ति में लग जाते हैं। यही कारण है कि अन्ना-आंदोलन और केजरीवाल जैसों की पैदाइश होती है। हिन्दुस्तान में 2012-2013 के दौरान पनपा जनाक्रोश, संभवतः, इसी एक-तरफ़ा विकास की अवधारणा के खिलाफ था। एक तरफ देश में महंगाई-हताशा-बेरोज़गारी चरम सीमा पर और दूसरी तरफ, उसी दरम्यान, विकास के नाम पर अम्बानीयों-अडानियों-वाड्राओं जैसों की दौलत, अरबों-खरबों में से भी आगे निकल जाने को बेताब। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक ही वक़्त में मुट्ठी भर लोगों की दौलत बेतहाशा बढ़ रही हो और आम आदमी, महंगाई-हताशा-बेरोज़गारी का शिकार हो?

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अन्ना-आंदोलन या केजरीवाल जैसों का जन्म किसी सरकार के खिलाफ बगावत का नतीज़ा नहीं है। ये खराब सिस्टम के ख़िलाफ़ सुलगता आम-आदमी का आक्रोश है जो किसी नायक की अगुवाई में स्वस्थ सिस्टम को तलाशता है। इसी तलाश के दरम्यान कभी केजरीवाल तो कभी मोदी जैसे लोग नायक बन रहे हैं, जिनसे उम्मीद की जा रही है कि महंगाई-हताशा-बेरोज़गारी के लिए ज़िम्मेदार अम्बानीयों-अडानियों-वाड्राओं पर रोक लगे। लेकिन मामला फिर अटक जा रहा है कि अम्बानी-अडानियों-वाड्राओं जैसे ठेकेदारों ने विकास का लॉलीपॉप देकर मोदी सरीखे नायकों को सिखा रखा (डरा रखा) है कि आम आदमी को बताओ कि ये मुल्क़ अम्बानीयों-अडानियों-वाड्राओं की बदौलत चल रहा है। इस मुल्क़ का पेट, अम्बानी-अडानियो-वाड्राओं की बदौलत भर रहा है। ये देश अम्बानीयों-अडानियों-वाड्राओं जैसे ठेकेदारों के इशारों पर सांस लेता है। पिछले 10 साल से केंद्र में मनमोहन सिंह और अब मोदी भी मनमोहन फॉर्मूले के ज़रिये आम-आदमी को यही बतला कर डरा रहे हैं।

खैर। प्रधानमंत्री साहिबान का (मीडिया की रहनुमाई से) सियासी “खुदा” बनने का शौक, भले ही, परवान चढ़ गया हो पर इतना ज़रूर है कि मुट्ठी भर अम्बानी-अडानियो-वाड्राओं जैसे ठेकेदारों से ये देश परेशान है। सतही तौर पर गुस्सा किसी पार्टी विशेष के ख़िलाफ़ है मगर बुनियादी तौर पर ये आक्रोश अम्बानीयों-अडानियों-वाड्राओं जैसों के विरोध में है। आर्थिक सत्ता का केंद्र तेज़ी से सिमट कर मुट्ठी भर जगह पर इकट्ठा हो रहा है। मुट्ठी भर अम्बानी-अडानी-वाड्रा, देश के करोड़ों लोगों का हिस्सा मार कर अपनी तिजोरी भर रहे हैं और विकास की “फीचर फिल्म” के लिए मोदी या मनमोहन जैसे नायकों को परदे पर उतार रहे हैं। ये नायक अपने निर्माता-निर्देशकों और स्क्रिप्ट राइटर्स के डायलॉग मार कर बॉक्स ऑफिस पर इनकी रील फिल्म हिट कर रहे हैं। मगर रियल फिल्म? पब्लिक चौराहे पर है। कई सौ साल तक ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी झेलने के बाद आज़ाद हुई, मगर एक बार फिर से हैरान-परेशान है। बंद आँखों से हक़ीक़त नहीं दिखती, लेकिन, सपने ज़रूर बेचे जाते हैं। उम्मीदों के सेल्फ-मेड नायक ने समां बाँध दिया है लिहाज़ा उम्मीद, फिलहाल, तो है। मगर टूटी तो? क्रान्ति असली “खलनायकों” के खिलाफ। इंशा-अल्लाह ऐसा ही हो।

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नीरज….. लीक से हटकर

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0 Comments

  1. Dr Rajesh Jain

    September 11, 2014 at 3:14 pm

    Salute for your non partial work and guts to speak in favour of all the citizen of this country.Good God in you, i am greatful to the God for the rare being in you,assuring you of my prayer for you and your this wonderful site

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