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दिल्ली

शिक्षा, संस्‍कृति और मीडिया में भारतीय भाषाओं की दुर्दशा

नई दिल्‍ली : जनपक्षधर बुद्धिजीवियों के मंच ‘अन्‍वेषा’ की ओर से दीनदयाल उपाध्‍याय मार्ग स्थित एनडी तिवारी भवन में ‘शिक्षा, संस्‍कृति और मीडिया में  भारतीय भाषाओं की दुर्दशा और इसके नतीजे’ विषय पर अन्‍तरराष्‍ट्रीय ख्‍यातिप्राप्‍त भाषाशास्‍त्री प्रो. जोगा सिंह विर्क का व्‍याख्‍यान आयोजित किया। प्रो. विर्क पंजाबी विश्‍वविद्यालय, पटियाला में भाषा विभाग में शिक्षक हैं और लंबे समय से देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में भ्रमण कर शिक्षा जगत, संस्‍कृति एवं मीडिया में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की पुरज़ोर वकालत करते आये हैं।

नई दिल्‍ली : जनपक्षधर बुद्धिजीवियों के मंच ‘अन्‍वेषा’ की ओर से दीनदयाल उपाध्‍याय मार्ग स्थित एनडी तिवारी भवन में ‘शिक्षा, संस्‍कृति और मीडिया में  भारतीय भाषाओं की दुर्दशा और इसके नतीजे’ विषय पर अन्‍तरराष्‍ट्रीय ख्‍यातिप्राप्‍त भाषाशास्‍त्री प्रो. जोगा सिंह विर्क का व्‍याख्‍यान आयोजित किया। प्रो. विर्क पंजाबी विश्‍वविद्यालय, पटियाला में भाषा विभाग में शिक्षक हैं और लंबे समय से देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में भ्रमण कर शिक्षा जगत, संस्‍कृति एवं मीडिया में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की पुरज़ोर वकालत करते आये हैं।

अपने वक्‍तव्‍य में प्रो. विर्क ने भारतीय भाषाओं के बरक्‍स अंग्रेजी की श्रेष्‍ठता से जुड़ी तमाम प्रचलित मान्‍यताओं, भ्रान्तियों एवं मिथकों का तथ्‍यों एवं तर्कों सहित खण्‍डन किया। उन्‍होंने बताया कि आर्थिक दृष्टि से विकसित दुनिया के शीर्ष 10 देशों में से 9 देशों में शिक्षा का माध्‍यम अंग्रेजी न होकर उन देशों की मातृभाषाएँ हैं।  उन्‍होंने ज़ोर देकर कहा कि मातृभाषा के अलावा किसी अन्‍य भाषा में शिक्षा कारगर हो ही नहीं सकती क्‍योंकि बच्‍चे घर में अपने परिजनों से जिस भाषा में बात करते हैं, यदि उसके अलावा किसी अन्‍य भाषा में शिक्षा दी जाती है तो यह उनके सीखने की प्रक्रिया में बाधा पैदा करती है। 

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यूनेस्‍को की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए प्रो. विर्क ने बताया कि अंग्रेजी भी वही बच्‍चे बेहतर सीख सकते हैं, जिन्‍होंने मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण की हो। शिक्षा के अलावा कारोबार और व्‍यापार जगत में भी जिन देशों ने कामयाबी हासिल की है, उनमें से अधिकांश देशों में शिक्षा का माध्‍यम उनकी मातृभाषाएँ हैं। उन्‍होंने चिन्‍ता व्‍य‍क्‍त करते हुए कहा कि हालाँकि भारतीय संविधान में मातृभाषा में शिक्षा देने की बात कही गई है लेकिन आज़ादी के बाद विभिन्‍न पार्टियों की सरकारों ने भारतीय भाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी को ज्‍यादा तवज्‍जो दी। विशेषकर 1990 के दशक से भूमण्‍डलीकरण के दौर में अंग्रेजी का दबदबा बढ़ा है और 21वीं सदी, जिसको ज्ञान और सूचना की सदी कहा जा रहा है, में भारतीय भाषाएँ अंधकार के दौर से गुज़र रही हैं। आज का दौर भारतीय भाषाओं के लिए आपातकाल जैसा ख़तरनाक है।

कार्यक्रम की अध्‍यक्षता ‘समयांतर’ पत्रिका के संपादक पंकज बिष्‍ट एवं ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के संपादक आनन्‍द स्‍वरूप वर्मा ने की। अपने अध्‍यक्षीय वक्‍तय में आनन्‍द स्‍वरूप वर्मा ने भारतीय भाषाओं के प्रचलन की ज़रूरत पर सहमति जताते हुए कहा कि भाषा केवल संचार का माध्‍यम ही नहीं बल्कि संस्‍कृति का वाहक भी होती है। साथ ही उन्‍होंने यह भी जोड़ा कि मातृभाषाओं में शिक्षा देने के अलावा जनवादी एवं तार्किक सोच को भी बढ़ावा देना होगा क्‍योंकि उसके बिना समाज में कूपमंडूकता ही फैलेगी। इसीलिए यह प्रश्‍न राजनीतिक व्‍यवस्‍था से  भी जुड़ा है। 

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स्‍वागत वक्‍तव्‍य देते हुए ‘अन्‍वेषा’ की मुख्‍य संयोजक कविता कृष्‍णपल्‍लवी ने कहा कि आमजन को दिमागी गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए मातृभाषा के प्रोत्‍साहन के प्रश्‍न को जनान्‍दोलनों के एजेंडे पर लाना होगा। कार्यक्रम का संचालन करते हुए ‘अन्‍वेषा’ की संयोजन समिति के सदस्‍य आनन्‍द सिंह ने कहा कि भारत जैसे उत्‍तर औप‍निवेशिक देशों में अंग्रेजी शासक वर्ग के वैचारिक-सांस्‍कृतिक वर्चस्‍व को कायम रखने का एक उपकरण है। वक्‍तव्‍य के बाद संवाद सत्र में उपस्थित विश्‍वविद्यालय छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं बुद्धिजीवियों ने मातृभाषा के प्रयोग की चुनौतियों से जुडे प्रश्‍न पूछे, जिनका प्रो. विर्क ने धैर्यपूर्वक जवाब दिया।

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