अमरेंद्र राय-
अगर कोई बताए न तो अनेहस शास्वत को देखकर कोई कह नहीं सकता कि ये साधु बन गए हैं। आम लोगों की तरह कपड़े पहनते हैं, अपने घर में रहते हैं, कुत्तों से खेलते हैं और सेवा के लिए एक सेवक भी रख रखा है। वही सेवक इनके और इनके कुत्तों की देखभाल करता है।
अनेहस शास्वत को मैं 1994 से जानता हूं। जनसत्ता छोड़कर जब मैंने अमर उजाला मेरठ ज्वाइन किया तो ये वहां काम कर रहे थे। ये और अनिल यादव बाकी काम करने वालों से थोड़ा अलग हटकर थे। बाकी लोग जहां नौकरी और कैरियर को प्रमुखता देने वाले थे, ये लोग लिखने पढ़ने, पत्रकारिता करने और कुछ मौलिक काम करने पर जोर देने वाले थे। दोनों बैचलर थे और उसी प्रकृति के अनुरूप अल्हड़पना भी थी। खाना, पीना, सोना और कुछ अलग तरह का काम करने के बारे में सोचना।
उन्हीं दिनों ये दोनों लोग गंगोत्री घूमने गए और एक सजग पत्रकार के तौर पर वहां के पंडों को लेकर अमर उजाला में एक स्टोरी की। वहां के पंडों को प्रशासन से कुछ शिकायतें थीं और वे कह रहे थे कि उनकी मांगें न मानी गईं तो वे चीन में मिल जायेंगे। ये एक बहुत संवेदनशील मसला था और इनकी लिखी रिपोर्ट अमर उजाला के पहले पन्ने पर बॉटम छपी तो हंगामा मच गया। तब उत्तराखंड यूपी का ही हिस्सा था और जब पुलिस ने सख्ती की तो पंडे अमर उजाला के मेरठ दफ्तर तक पहुंच आए और विनती करने लगे कि किसी तरह से आप कुछ ऐसा छाप दें कि उनकी जान बच सके। बाद में पता चला कि शास्वत ने बनारस में हिंदुस्तान ज्वाइन कर लिया। वहां के बाद एक बार फिर अमर उजाला लौटे और फिर जागरण लखनऊ में भी लंबे समय तक काम किया।
बीमारी के कारण इन्हें पत्रकारिता छोड़ना पड़ा लेकिन ठीक होने के बाद एक बार फिर ये पत्रकारिता में लौटे और 2013 से 2016 तक मध्य प्रदेश जन संदेश में काम किया। साधु होने के बावजूद अभी भी ” द गोल्डन टॉक” नाम से अपनी डिजिटल साइट चलाते हैं। इतिहास में विशेष रुचि होने के कारण मुगल कालीन इतिहास के किस्से कहानियां ये तथ्यों के साथ चटखारे लेकर सुनाते और लिखते हैं। लखनऊ के बारे में इनको बहुत अच्छी जानकारी है। अगर कोई लखनऊ घूमने जाए तो इनकी सेवाएं हासिल कर सकता है। ये वहां के बागों, इलाकों, नवाबों और ऐतिहासिक इमारतों के साथ ही आधुनिक संरचनाओं के बारे में रोचक ढंग से बताते हैं। लखनऊ के चिनहट इलाके में रहते हैं तो बताते हैं कि दरअसल मुगलों के जमाने में घोड़ों के लिए यहां चना हाट थी। कालांतर में उसी का नाम बदलकर चिनहट हो गया।
शास्वत साल दो साल में सीनियर सिटीजन बन जायेंगे। शादी नहीं की। लेकिन जिस ढाबे पर चाय पीने और कभी कभार खाना खाने जाते हैं, उसके शादी को लेकर ढेर सारे सवालों से बचने के लिए उसे बता रखा है कि शादी हुई थी, पत्नी की मौत हो गई है और शादी शुदा बाल बच्चेदार बेटे नालायक थे इसलिए उन्हें घर से भगा दिया है। इस कहानी का लाभ इन्हें ये हुआ कि ढाबा चलाने वाली महिला इनके प्रति अतिरिक्त दया भाव रखने लगीं। उन्होंने इनसे कह रखा है कि बाबूजी जब कभी कुछ विशेष खाने का मन करे तो आप बता देना, मैं उस दिन वही बना दिया करूंगी। शास्वत कहते हैं कि अगर किसी दिन उसको मेरी सच्चाई के बारे में पता चलेगा तो वो मेरे बारे में पता नहीं क्या सोचेगी।
अनिल यादव ने एक बार मुझे बताया कि शास्वतवा साधु बन गया है। गोमती पार किसी आश्रम में रहता है। लेकिन कभी कभार जब उसका मन नॉन वेज खाने का होता है, मेरे पास आ जाता है। मुझे लगा अनिल मजाक कर रहे हैं। लेकिन चिंता भी हुई। सोचने लगा कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक पढ़ा लिखा पत्रकार साधु बन गया। शास्वत जब मेरे साथ मेरठ में थे तो इन्होंने अपने जीवन के बारे में मुझे कुछ बातें बताई थीं। इनके माता पिता दोनों ही इंटर कॉलेज में प्रिंसिपल थे। मां की मृत्यु 1980 में 46 साल की उम्र में हो गई।
पिता जी भी लंबे नहीं चले। 1988 में 59 साल की उम्र में वे भी चले गए। तब तक इनके बड़े भाई ग्रामीण बैंक में मैनेजर बन गए थे और उनकी शादी भी हो चुकी थी। बहन लखनऊ में बिजली विभाग में इंजीनियर थी। पिता ने सुल्तानपुर में एक आलीशान मकान बना रखा था। पिता की मृत्यु के बाद ये वहीं जाकर रहने लगे। एक हिस्से में रहते थे और बाकी मकान में कई किरायेदार थे। अच्छा खासा किराया आता था जो इनके आरामदायक खर्च की तुलना में कहीं बहुत ज्यादा था। बातचीत में एक किरायेदार की पत्नी की ये बहुत ज्यादा और बार बार तारीफ करते थे। अनिल कहते थे उसकी पत्नी से ये प्रेम करता था। मुझे भी लगता था कि प्रेम न भी करते हों तो उसके प्रति आकर्षित जरूर रहे होंगे।
शास्वत की शादी न होने को लेकर मेरे दिमाग में दो बातें आती थीं। एक तो यही कि ये उस किरायेदार की पत्नी के प्रति आकर्षित थे या प्रेम करते थे और दूसरा ये कि मां बाप की मौत के बाद किसी ने इनकी शादी की पहल नहीं की और शादी नही हो पाई। आज भी हमारे समाज में 90% से ज्यादा शादियां मां बाप और अभिभावक ही कराते हैं। लेकिन शास्वत इन धारणाओं को गलत बताते हैं। उनका कहना है कि ऐसा कुछ नहीं है। न तो ये किरायेदार की पत्नी से प्रेम करते थे और न ही ये सच है कि इनके घर वालों ने इनकी शादी की कोशिश नहीं की। कहते हैं कि उनकी बहन ने शादी के लिए बहुत जोर डाला, बहुत लड़कियां दिखाईं लेकिन हमने सायाश शादी नही की। मैं बुद्ध के दर्शन को मानता हूं कि दुनिया दुखों का सार है। संसार में दुख बहुत है। इसलिए मैं शादी करके और संतान पैदा करके उसे दुखों के सागर में नहीं ढकेलना चाहता था।
अनेहस अपने गुरु के बारे में ज्यादा चर्चा नहीं करते। अपने आश्रम के बारे में भी नहीं बताते। वे देर रात तक जगते हैं और कई बार बैठे बैठे ही सो जाते हैं। बताते हैं ये आदत आईएएस और पीसीएस प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के दौरान पड़ी। शास्वत आईएएस, पीसीएस भले न बन पाए हों लेकिन वो पढ़ाई इनके जीवन में बहुत काम आई। इन्होंने उसी पढ़ाई के दम पर टाईम्स रिसर्च फाउंडेशन की फेलोशिप हासिल की। हालांकि ज्वाइन नहीं किया।
बाद में पत्रकारिता की शुरुआत 1991 में दैनिक जागरण के साथ की जो अमर उजाला, हिंदुस्तान और मध्य प्रदेश जन संदेश के साथ ही अब तक “द गोल्डन टॉक” के रूप में जारी है। बीच में भयंकर रूप से बीमार भी रहे। 2009 में अचानक बैठे बैठे बेहोश हो गए। जिस अस्पताल में भर्ती कराए गए उसने केस और बिगाड़ दिया। बहन और प्रभावशाली बहनोई ने तब इन्हें पीजीआई लखनऊ में भर्ती कराया और तीन महीने तक वेंटीलेटर पर पड़े रहे। अगर कोई और होता तो डॉक्टर कब का वेंटीलेटर हटा चुके होते। पर आखिर में बहनोई के प्रभाव और बहन की आस ने इन्हें वहां से जिंदा लौटा लिया। एक तरह से कहें तो ये उनका दूसरा जन्म है।
शास्वत शुरू से ही दयालु हैं। प्राणियों खासकर कुत्तों के प्रति उनकी ये दयालुता घर से लेकर बाहर तक दिखती है। Corona काल में इन्होंने अपने ढंग से लोगों की मदद की और लोगों को खाना खिलाया। पूजा पाठ करते भले न दिखते हों पर सुबह उठकर घंटे भर “नाद” जरूर सुनते हैं। बताते हैं शरीर के भीतर वाद्य यन्त्र बजते हैं जिसे थोड़ी साधना के बाद सुना जा सकता है। शायद यही कुछ चीजें हैं जिससे पता चलता है कि शास्वत ने कपड़े साधुओं के भले न धारण किए हों मन से साधु बन चुके हैं।
One comment on “एक पत्रकार का साधु बन जाना”
इस दौर में बहुत बनने वाले है