‘पेड न्यूज’ भारतीय मीडिया में एक ऐसी घटना है, जिसमें भुगतान के बदले में ‘अनुकूल’ लेख राजनीतिज्ञों , व्यवसायियों, मशहूर हस्तियों/दलालों/ललितमोदियों द्वारा प्रायोजित कराये जाते हैं| पी.साईनाथ के अनुसार “पेड न्यूज ” की घटना व्यक्तिगत पत्रकारों और मीडिया कंपनियों के भ्रष्टाचार से परे चली गयी है। अब यह अत्यन्त व्यापक व सुनियोजित प्रक्रिया है, जो भारत में लोकतंत्र को कमजोर करने पर उतारू है | चुनावो में ‘पेड न्यूज़’ एक व्यापक पैमाने पर होने वाला कदाचार है|
अक्सर राजनैतिक व नौकरशाही के विषय में कदाचार की बात होती है; परन्तु मैं अत्यन्त विनम्र निवेदन के साथ “पेड न्यूज ” के विभिन्न स्वरूपों पर लिखने का साहस कर रहा हूँ, मुझे ज्ञान है कि मेरे अनेक मीडिया के दोस्त मुझसे नाराज हो सकते है, लेकिन सभी नहीं, मेरा विश्वास है कि कुछ समदर्शी दोस्त मेरा अवश्य साथ देंगे |
भारत में ऐसे कई मीडिया हाउस हैं जो ‘निजी संधि’ के माध्यम से ‘पेड न्यूज़’ के बदले ‘ में किसी निजी कम्पनी में ‘इक्विटी हिस्सेदारी’ या फिर सीधे ‘विज्ञापन’ के बदले में अतिरंजित मूल्य (Exaggerated Value) या फिर अन्य ठोस लाभ (tangible benefits) जैसे व्यवसाय के लिए भूमि/मकान व कालाधन, प्राप्त करने में कोई गुरेज नहीं करते हैं | न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार यह सब घोर ‘कदाचार’ की श्रेणी में आता है | ब्लूमबर्ग (Bloomberg) के अनुसार ‘पेड न्यूज़’ ने भारत के लोकतंत्र को सड़ा दिया है (Analytic Monthly Review) | प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया ने इस कदाचार पर काफी शोध भी कराया है, लेकिन निरर्थक रहा | नेताओं और मीडिया दिग्गजों के बीच की ‘दुरभि संधि’ अब कोई बंद कमरों का खेल नहीं रहा | अब ये बीमारी से महामारी हो गयी है और इसमें नेताओं और मीडिया दिग्गज दोनों माल काट रहे हैं; भ्रमित हो रहा है सामान्य वोटर, जो चमक दमक वाले विज्ञापनों/चुनावी अनुमानों के बहकावे में आकर मतदान कर बैठता है |
अब उ.प्र. में ‘पेड न्यूज़’ के स्थानीय स्तर पर अत्यन्त छोटे परन्तु आवर्ती रूप में आता है | लखनऊ उ.प्र. की राजधानी है , जहां सभी राजनैतिक पार्टियों के मुख्यालय हैं | यंहा दो-तीन भाषाओं के अखबार, मैगज़ीन व विजुअल मीडिया है | मैं मुख्य रूप से हिंदी व अंग्रेजी भाषा के अखबारों व हिंदी विजुअल मीडिया में व्याप्त ‘पेड न्यूज़’ पर अपने विचार व्यक्त कर रहा हूँ|
१. प्रथम श्रेणी में -अंग्रेजी के ३-४ अखबार मुख्य रूप से हैं, जिनमें से दो प्रमुख हैं | एक अखबार तो पूर्व से ही कतिपय सत्ता पक्ष के अखबार के रूप में जाना जाता रहा है, क्योंकि यहां पर न केवल सत्ता पक्ष की छोटी छोटी ख़बरों को प्राथमिकता दी जाती है, अपितु सत्ता पक्ष के नेताओं व उनके बच्चों के जन्म दिन, अभिनत्रियों के साथ फोटो आदि को भी बड़ी ख़बरों के रूप में दिखाया जाता रहा है | दूसरा अख़बार काफी तटस्थ होकर जन मानस/किसान/युवा/नारी उत्पीड़न/पुलिस उत्पीड़न/ सामाजिक सक्रियता/अन्तोदय पक्ष की भावनायों तथा उनसे जुडी घटनाओं/समस्याओं को अभी हाल तक प्रमुखता से प्रकट करता रहा था। इस कारण बौद्धिक वर्ग/अंग्रेजी पाठकों में काफी लोकप्रिय हुआ करता था | परन्तु लगता है अब कुछ माहौल बदला-बदला सा है| अब पहले वाला अखबार तो फिर भी कुछ जन मानस की भावनाओं की खबरें छापने लगा है, परन्तु हमारे ‘बौद्धिक वर्ग’ में प्रिय अख़बार अब केवल सत्ता लोलुपतायुक्त ख़बरों में ही मशगूल दिखता है|
मैं इत्तेफाक से दोनों अखबारों के मालिकान को अच्छी तरह से जानता हूँ | मैं ही नहीं, कई प्रबुद्ध पत्रकार/बुद्धिजीवी भी यही अनुभव करते हैं कि ये मालिकान का इशारा/ ‘इक्विटी-संधि’ नहीं बल्कि स्थानीय ‘व्यवस्था’ का कतिपय कारणों से अपना निर्णय व कतिपय कारणों से हालिया सोच का बदलाब है | ऐसा आश्चर्यजनक बदलाव… आखिर क्यों….जनमानस तो वैसे ही उपेक्षित है …. पत्रकार जलाये जा रहे हैं.. नाबालिग बेटियों के बलात्कार हो रहे हैं.. हत्याओं का खेल जारी है.. किसानों का मुआवजा …सूखा.. अब बाढ़…बिजली की कमी/चोरी … लोकसेवा आयोग/अधिनस्थ चयन सेवा आयोग में गरीब/मेधावी छात्रों के साथ अन्याय…आपके सहारे की बाट जोह रहा है… कृपया साथ न छोड़ें ..।
२. दूसरी श्रेणी- हिंदी के बड़े अख़बारों की है| आज कल दो प्रमुख हिंदी अखबारों में ‘तटस्थ’ खबरें लिखने की होड़ सी है, जो बहुत अच्छी लगती है, जनमानस खुश है | अन्य बड़े व छोटे कुछ अख़बार ऐसे हैं जो कुछ ‘मिक्स्ड’ भाव तथा विवश्तावश विज्ञापन के वशीभूत प्रायोजित ख़बरें लिखते हैं, चलते (जिन्दा) भी तो रहना है | फिर भी मैं कुछ छोटे अखबारों/मैग्ज़ीनों की प्रशंसा करता हूँ कि वे निडर होकर ‘निष्पक्ष’ ख़बरें लिखने का साहस करते हैं | कुछ ऐसे भी अख़बार हैं जिनका सर्कुलेशन अच्छा है।
अतः विज्ञापन भी पाते हैं और जन भावनाओं की कद्र भी करते हैं | कई ऐसे भी हैं, जो सत्ता पक्ष के नितांत चमचे रहे हैं, चाहे कोई पार्टी सत्ता में रहे, उनका काम चाटुकारिता कर पैसा ही कमाना है | कुछ ऐसे हैं, जो प्राधिकरणों, बिजली विभाग आदि गहरे पानी वाले विभागों के विशेषज्ञ हैं …… पहले बुराई… फिर प्रसंशा कर अपना काम चलाते हैं |
३. तीसरी श्रेणी विजुअल मीडिया की है | आज कल इनका अत्यधिक प्रभाव है | इस श्रेणी में स्थानीय न्यूज़ चैनल्स हैं | कुछ सरकारी हैं, परन्तु अधिकांश प्राइवेट हैं | प्राइवेट न्यूज़ चैनल के लिए जिन्दा रहने (survival) का प्रश्न बड़ा अहम् है, अतः सरकारी विज्ञापन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं| मेरी एक नयी न्यूज़ चैनल के मालिकान से बात हो रही थी, उन्होंने पूछा- क्या किया जाये?, survival मुश्किल हो रहा है, loss में जा रहे हैं | मैंने कहा, मैं क्या परामर्श दूं, आपके पास तीन रास्ते हैं – या तो बिक जाओ या मैदान में आओ (यानि जनमानस की भावनाएं दिखाओ) या फिर थोड़ा स्मार्ट (SMART) रास्ता अपनाओ |
वो बोले क्या है स्मार्ट रास्ता ? थोड़ा बिको तथा थोड़ा अकड़ो/भिड़ो (जनभावनाओं की कद्र करो), अच्छा काम चल जायेगा, वे बड़े खुश हुए (जैसे की रास्ता मिल गया हो) | विजुअल मीडिया श्रेणी में जो चैनेल सत्ता पक्ष के साथ हैं (पेड न्यूज़ वाले ), वे शौक व बेशर्मी से सरकार की चाटुकारिता करते है, सभी जानते है | एक श्रेणी, जैसा अखबारों में है वैसा ही, ब्लैकमेलर चैनेल की है, जो पहले खूब किसी व्यक्ति या संस्था के भ्रष्टाचार/अनाचार की खबरें दिखाते हैं, दूसरे ही पल यह न्यूज़/पट्टी गायब हो जाती है और प्रसंशा शुरू हो जाती है | कुछ एक चैनेल ईमानदारी से जन मानस के लिए काम करने की कोशिश कर रहे हैं, जिन्दा भी रहने का दबाव भी है | चलो सब का आपना-अपना हिल्ला है …
४. चौथी श्रेणी- सोशल मीडिया व न्यूज़ पोर्टल की है | इस छेत्र में बहुत प्रतिस्पर्धा है , अतः इस छेत्र में बहुत अच्छा व प्रभावशाली काम हो रहा है , भविष्य भी इसी का है | कुछ एक ‘सत्ता’ के दलाल यंहा भी अपना सिक्का ज़माने की कोशिश जरूर कर रहे हैं, परन्तु सोशल मीडिया इतना व्यापक है कि ऐसे लोगों को तत्काल एक्स्पोज किया जा सकता है| इस श्रेणी का भविष्य उज्वल है | इसमें स्पीड है , व्यापकता है |
क्या किया जाये?
मीडिया की स्वतंत्रता हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी है, इसमें कोई शक नहीं | मीडिया किसी को भी हीरो या जीरो बनाने की छमता रखता है | यदि अपनी शक्ति के सही उपयोग का मौका मिले तो जनमानस/लोक-कल्याण की भावनाओं को उठा कर भारत के लोकतंत्र को मजबूत बना सकता है, यदि बिक जाये तो बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है, जो आज हो रहा है |
कुछ समाधान खोजने की कोशिश कर रहा हूँ:
१. सरकारी विज्ञापनों की यदपि नीति तो है, परन्तु ‘अंडर हैण्ड’ डीलिंग का कुछ नहीं किया जा सकता, वह तो मीडिया मैनेजमेंट कहलाता है | उ.प्र. में सूचना विभाग का ‘मद संख्या १०१: विज्ञापन तथा दृश्य प्रचार’ में रु. १०२०.६० करोड़ का बजट है | यदि सभी टीवी चैनेल व छोटे –बड़े अख़बारों को एक ‘पुनरीक्षित balanced नीति के तहत विज्ञापन दिए जाएं, तो शायद सभी के साथ न्याय हो जाये| स्वेच्छाचारिता से विज्ञापन देना, कदाचार/चाटुकारिता को पनपने में मदद करता है व पत्रकारिता मर जाती है और वही हो रहा है |
२. मीडिया जगत के मालिकों व सत्ता पक्ष के बीच ‘दुरभि’ संधि से अच्छे पत्रकार अपनी कलम को देश हित में नहीं इस्तेमाल कर पा रहे हैं | बड़ी मेहनत कर न्यूज़ लाते हैं, लिखते हैं, और वह उक्त ‘दुरभि संधिवश’ अख़बार में नहीं छपती, तो सोचो यह खबरनवीस के लिए कितनी कुंठा का कारण बनती होगी| वेतन भी मेहनत के अनुकूल नहीं मिल पाता, कस्बाई/छोटे पत्रकारों की तो बात ही क्या करें? ‘मजीठिया वेज बोर्ड’ भी लागू नहीं हो पाया, मीडिया मालिकान ने इसे लागू नहीं किया, पत्रकारों के ‘नेतागण’ इस दिशा में कुछ दबाव बनायें तो जनमानस साथ जरूर देगा |
३. यह सबसे व्यवहारिक सुझाव हो सकता है: यदि बिलकुल तटस्थता संभव नहीं तो, क्या यह संभव नहीं कि ‘बीच’ का SMART रास्ता निकाल लिया जाये | सरकारी विज्ञापन भी लिया जाये और थोड़ी जनसेवा भी; अर्थात थोड़ी चाटुकारिता तथा थोडा जनहित का भी ख्याल रखा जाये |
सूर्य प्रताप सिंह के एफबी वाल से
dileep kumar singh
July 4, 2015 at 8:18 am
chatukaarita aur janhit ka ghalmel smart nahi ho sakata. iske liye to mision hi chalana padega. mai aap ke ssath ho