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सुख-दुख

अति उत्साही पत्रकारिता!

प्रवीण बाग़ी-

बॉम्बे हाईकोर्ट ने ठीक ही कहा है कि अति उत्साही पत्रकारिता से बचा जाना चाहिए। लोगों को आकर्षित करने के लिए ऐसी रिपोर्टिंग ठीक नहीं जो न्यायिक प्रक्रिया में बाधा डाले। साथ ही माननीय न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि प्रियदर्शिनी मट्टू केस, जेसिका लाल मर्डर केस, नीतीश कटारा केस और बिजली जोशी केस में मीडिया की वजह से ही न्याय मिल पाया, वरना अपराधी छूट गए थे।

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बिहार के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत मौत मामले की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट ने सोमवार को मीडिया को यह नसीहत दी थी। कोर्ट ने दो चैनलों की रिपोर्टिंग को मानहानिकारक बताते हुए कहा, ”मीडिया ट्रायल से न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप और बाधा उत्पन्न होती है।”

चीफ जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस जीएस कुलकर्णी ने कहा कि सुशांत सिंह राजबूत की मौत के बाद रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ की कुछ रिपोर्टिंग मानहानिकारक थी। अदालत ने कहा कि किसी भी मीडिया प्रतिष्ठान द्वारा ऐसी खबरें दिखाना अदालत की मानहानि करने के बराबर माना जाएगा जिससे मामले की जांच में या उसमें न्याय देने में अवरोध उत्पन्न होता हो। पीठ ने कहा, ”मीडिया ट्रायल के कारण न्याय देने में हस्तक्षेप और अवरोध उत्पन्न होते हैं और यह केबल टीवी नेटवर्क नियमन कानून के तहत कार्यक्रम संहिता का उल्लंघन भी करता है।”

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अदालत में सुशांत मौत मामले की टीवी समाचार चैनलों द्वारा खबर दिखाने पर रोक लगाने की मांग करने वाली अनेक जनहित याचिकाओं पर पीठ ने पिछले वर्ष छह नवंबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।

कोर्ट की बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता। लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए की कई ऐसी स्थितियां होती हैं जब न्याय दम तोड़ता हुआ दिखता है। पीड़ित की सुनवाई कहीं नहीं होती। संस्थाएं गांधी का बन्दर बन जाती हैं, तो वैसे में पत्रकार क्या करे ? कई बार पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए, गुनहगार को सजा दिलाने के लिए पत्रकारों को सीमाएं लांघनी पड़ती हैं। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि हम गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता का समर्थन कर रहे हैं। हम उसकी निंदा करते हैं।

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माननीय न्यायाधीशों ने कई चर्चित केसों का उदाहरण देकर खुद माना है की उसमें मीडिया कि रिपोर्टिंग से ही न्याय मिल सका। यहां यह जोड़ा जाना जरुरी है की उन केसों की रिपोर्टिंग में भी सीमाएं टूटी थीं। पत्रकारिता जनता को खबर देने के लिए और सबकी खबर लेने के लिए होनी चाहिए। हममें बहुत खामियां हैं ,फिर भी पत्रकारिता जिन्दा है तो अपने जुनूनी पत्रकारों के कारण।

सुशांत केस में बिहार सरकार ने जिस तरह पटना पुलिस को आनन-फानन में मुंबई भेजा, इसपर भी कोर्ट को ध्यान देना चाहिए था। सीबीआई जिस तरह केस पर कुंडली मार कर बैठी है, क्या यह उचित है ? क्या किसी जांच एजेंसी को किसी केस को लम्बे समय तक जांच के नाम पर लंबित रखने का अधिकार है ? इसका जवाब मिलना अभी बाकी है।

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