हम देखेंगे : अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान…
30/01/2022 को दिल्ली समेत अनेक शहरों के आयोजनों में पारित प्रस्ताव…
महात्मा गाँधी की शहादत के 75वें साल की शुरुआत के इस मौक़े पर लेखकों, पाठकों, कलाकारों और कलाप्रेमियों की यह सभा भीमा-कोरेगाँव मामले में गिरफ़्तार किए गए बुद्धिजीवियों, मानवाधिकारकर्मियों और समाजकर्मियों की अविलंब रिहाई की माँग करती है।
अदालती सुनवाई की शुरुआत का इंतज़ार करते ये ज़िम्मेदार नागरिक जिन आरोपों के तहत ग़ैर-जमानती जेलबंदी का उत्पीड़न सहने के लिए मजबूर हैं, वे बेबुनियाद हैं, यह बात अब संदेह से परे है। न सिर्फ़ मानवाधिकार और लोकतंत्र के पक्ष में इन नागरिकों की सक्रियता का पिछला रिकार्ड, बल्कि उनकी गिरफ़्तारी के लिए गढ़े गए पुलिस और राष्ट्रीय जाँच एजेंसी के आख्यान में आनेवाले एक-के-बाद-एक बदलाव और स्वतंत्र एजेंसियों की ओर से प्रकाश में लाए गए हैरतनाक तथ्य भी यह बताते हैं कि इनकी गिरफ़्तारी निराधार है।
पहली खेप में पकड़े गए पाँच लोगों पर पहले भीमा-कोरेगाँव में हिंसा की साज़िश रचने का आरोप लगाया गया, उसके बाद उनकी साज़िश को सनसनीखेज़ तरीक़े से प्रधानमंत्री के ‘राजीव गांधी-स्टाइल असासिनेशन’ की योजना तक खींचा गया और साज़िश में कथित रूप से लिप्त अनेक दूसरे बुद्धिजीवियों-मानवाधिकारकर्मियों की गिरफ़्तारी की गयी, और आखिरकार ‘आरोपों के मसौदे’ (draft charges) में सत्रह आरोपों के अंतर्गत प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश के आरोप को शामिल न करके ‘सशस्त्र क्रांति के द्वारा जन-सरकार’ क़ायम करने को उनका मुख्य उद्देश्य बताया गया।
कहने की ज़रूरत नहीं कि जाँच एजेंसी, जैसे भी मुमकिन हो, उन्हें खतरनाक अपराधी साबित करने पर बज़िद है। क्या आश्चर्य कि 22 जनवरी 2020 को महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार की जगह तीन दलों की गठबंधन सरकार के आते ही और उसके द्वारा इस मामले की नए सिरे से तहक़ीक़ात की घोषणा होते ही 24 जनवरी को केंद्र सरकार ने यह मामला केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करनेवाली राष्ट्रीय जाँच एजेंसी को सौंप दिया। ढँके-तुपे इरादे, इस तरह, खुलकर सामने आ गए।
उधर 8 फरवरी 2021 को अमेरिका की आर्सेनल कन्सल्टन्सी ने, जो डिजिटल फोरेंसिक अनैलिसिस करनेवाली एक स्वतंत्र भरोसेमंद जाँच एजेंसी के रूप में प्रतिष्ठित है, अपनी जाँच में यह पाया कि एनआईए ने रोना विल्सन के कंप्यूटर से जो एलेक्ट्रॉनिक सबूत इकट्ठा किए थे, वे एक मालवेयर के ज़रिये उनके कंप्युटर में प्लांट किए गए थे। फिर जुलाई में यह बात सामने आई कि ऐसा ही सुरेन्द्र गाडलिंग के कंप्यूटर के साथ भी हुआ था।
ग़रज़ कि जिन पत्राचारों के आधार पर ये गिरफ्तारियाँ हुई थीं, वे झूठी निकलीं। निस्संदेह, वे अभी भी एक साज़िश का सबूत तो हैं, पर वह साज़िश लोकतान्त्रिक विधि से चुनी गई सरकार के तख्ता-पलट की नहीं, बल्कि इन बुद्धिजीवियों और समाजकर्मियों को फँसाने की साज़िश थी। यह तथ्य सामने आ चुके होने के बावजूद इन्हें जेल में बंद रखकर अपनी सेहत और सक्रियता पर गंभीर समझौते करने के लिए बाध्य किया जा रहा है, इससे अधिक दुःखद और क्या होगा!
दलितों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करनेवाले फादर स्टेन स्वामी जैसे प्रतिष्ठित अधिकार-कार्यकर्ता की, हिरासत में ही रहते हुए मुंबई के होली फॅमिली अस्पताल में मौत हो चुकी है। पार्किन्सन्स के मरीज़ स्टेन स्वामी को जेल में किस तरह तमाम सुविधाओं से वंचित रखा गया, यह अब सबको पता है।
कई और आरोपित वरिष्ठ नागरिक हैं और स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं। सेहत को देखते हुए सिर्फ़ वरवर राव को जमानत दी गई है और अन्य आरोपितों में से सिर्फ़ सुधा भारद्वाज को दिसम्बर 2021 में जमानत मिल पाई। 13 और लोग अभी भी सुनवाई की प्रतीक्षा करते हुए विभिन्न जेलों में बंद हैं।
लोकतंत्र के पक्ष में उठनेवाली इन आलोचनात्मक आवाजों को खामोश कर दिया गया है और उन पर पहरे बिठा दिए गए हैं। यह खुद लोकतंत्र को क़ैद में रखना और उसे फादर स्टेन स्वामी की तरह एक त्रासद मृत्यु की ओर धकेलना नहीं तो और क्या है!
यह प्रतिरोध सभा इस दुखद स्थिति पर अपना क्षोभ प्रकट करती है और आनंद तेलतुंबड़े, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा, वरनन गोंजालविस, हैनी बाबू, सुधीर धवले, सुरेन्द्र गाडलिंग, महेश राउत, शोमा सेन, रोना विल्सन, सागर गोरखे, ज्योति जगताप और रमेश गाईचोर की अविलंब रिहाई की माँग करती है। हम अदालत से उम्मीद करते हैं कि वरवर राव और सुधा भारद्वाज समेत इन सभी लोगों के ऊपर लगाए गए आरोपों के संबंध में अंतिम चार्जशीट दाखिल किए जाने के लिए अब वह और अधिक समय-विस्तार न देकर मामले की सुनवाई जल्द शुरू करेगी और यथाशीघ्र देश को अपने न्यायोचित निर्णय से अवगत कराएगी।
जिस तरह भीमा कोरेगांव मामले में असली अपराधियों को बचाने के लिए वाम बहुजन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को झूठे आरोप में फँसाया गया है, ठीक उसी तरह दिल्ली दंगों के मामले में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ किया गया है। दंगों का खुलेआम आह्वान करने वाले और पुलिस को चेतावनी देने वाले नेता आज भी खुले घूम रहे हैं जबकि सी ए ए विरोधी आंदोलन में सक्रिय जनवादी नौजवान भारी संख्या में गिरफ्तार कर लिए गए हैं। इसी तरह हाथरस गैंगरेप मामले और कश्मीर की तरह और भी कई उदाहरण है जिनमें सच्चाई उजागर करने की कोशिश करने वाले पत्रकारों को फर्जी आरोपों में जेलों में डाला गया है।
जेलों मे बंद कुछ प्रमुख कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के नाम इस प्रकार हैं —
मीरान हैदर, आसिफ़ इक़बाल तन्हा, शिफ़ा उर रहमान, उमर ख़ालिद, शरजील इमाम, इशरत जहां, ताहिर हुसैन, गुलफिशां फ़ातिमा, ख़ालिद सैफ़ी, सिद्दीक़ कप्पन और आसिफ़ सुल्तान।
यह प्रतिरोध सभा इन सभी की अविलंब रिहाई और इन सभी मामलों की निष्पक्ष जांच की मांग करती है।
जनवादी लेखक संघ द्वारा जारी प्रेस रिलीज.