संजय कुमार सिंह
बहुमत से ‘एथिक्स’ तय करना और जहां नैतिकता से देश की छवि बननी हो वहां मनमानी
आज के अखबारों की दो प्रमुख खबरों की चर्चा करूंगा। पहली खबर तो महुआ मोइत्रा के मामले में एथिक्स पैनल की रिपोर्ट है भले ही वह कल भी छप चुकी है। दूसरा मामला टाइम्स ऑफ इंडिया में है। इस खबर के अनुसार, उत्सर्जन नियमों के उल्लंघन के लिए देश के शिखर के कार निर्माताओं पर भारी जुर्माना लगाया गया है। प्रकाशित सूची में टाटा का नाम नहीं है और बहुत बाद में भारत में उत्पादन शुरू करने वाली ‘किया इंडिया’ सबसे ऊपर है। फौरी तौर पर मेरी चिन्ता यह है कि मेक इन इंडिया के तहत दुनिया भर के निर्माताओं को भारत बुलाया गया फिर वोकल फॉर लोकल का प्रचार है और अब विदशी कंपनी कंपनी पर यह जुर्माना। मुझे तो विदेशी निर्माताओं को भारत में निर्माण के लिए आमंत्रित करने और फिर वोकल फॉर लोकल का मामला ही अटपटा लगता है । उनपर जुर्माना क्यों?
जुर्माना लगा भी तो सबसे बाद में या बहुत हाल में आई कंपनी पर क्यों? मारुति और टाटा मोटर्स के रहते विदेशी निर्माताओं को बुलाने की क्या जरूरत थी और बुलाया भी तो उसे क्यों, जो प्रदूषण फैला रहा है। देखता हूं, खबर में क्या कुछ है और मेरी चिन्ता या जिज्ञासा का कोई जवाब है अथवा नहीं। आजकल प्रचार वाली जो खबरें छपती हैं उसके अनुसार यह दावा किया जा सकता है कि भारत सरकार कितनी सख्त है जो विदेशी कंपनियों पर जुर्माना लगा रही है या उनसे कोई मुरव्वत नहीं कर रही है। लेकिन मुझे लगता है कि भारत में कुल मिलाकर जो सब हो रहा है उससे भारत की छवि बहुत ही खराब और हल्के प्रशासकों की बन रही होगी। पता नहीं मैं सही हूं या गलत, पर देखूंगा कि मेरे सवालों, जिज्ञासाओं और आशंकाओं का जवाब इस खबर में है कि नहीं।
महुआ मोइत्रा के मामले में एथिक्स कमेटी की रिपोर्ट या सिफारिश लीक हो गई थी और औपचारिक तौर पर पेश किये जाने से पहले ही मीडिया में घूम रही थी। यही नहीं, मोदी राज में अदाणी के हो चुके एनडीटीवी ने खबर दी उसमें कहा, एनडीटीवी को प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार। महुआ मोइत्रा ने इस संबध में लोकसभा अध्यक्ष को कल ही लिखा था और रिपोर्ट लीक होना अनैतिक तो है ही उसे अदाणी के चैनल के पास होना घनघोर राजनीति या अपराध में क्या है इसे तय करने के लिए भी सीबीआई को लगाया जाना चाहिये। खासतौर से इसलिए कि पूरा मामला अदाणी के विरोध और उसी से संबंधित है। बात इतनी ही नहीं है, सबको पता है कि सरकार और प्रधानमंत्री अदाणी समूह का बचाव कर रहे हैं और महुआ मोइत्रा पर इस तरह के मामले की शिकायत इसीलिए की गई है।
यह अलग बात है कि नैतिकता से संबंधित इस मामले में अनैतिकता की भरमार रही पर अखबारों ने यह सब ऐसे छापा और बताया जैसे महुआ ने कोई बड़ा अपराध कर दिया है। संसद में साथी सांसद को गाली देने का मामला लंबित है लेकिन महुआ मोइत्रा के मामले में संसद से निष्कासन की सिफारिश हो गई। सागरिका घोष ने इसपर ट्वीट किया है, “एथिक्स कमेटी ने क्या पहले कभी इस तेजी से काम किया है? शिकायत के बाद तीन हफ्तों की अल्प अवधि में बिजली की गति से संसद सदस्य महुआ मोइत्रा को निलंबित करने की सिफारिश कर दी गई और इसमें उन्हें उनपर आरोप लगाने वालों से जिरह करने का मौका भी नहीं दिया गया। यह निष्पक्ष सुनवाई नहीं है। कल कोई भी आरोप लगा सकता है। यह तयशुदा शिकार का मामला लगता है।“
यहां तथ्य यह भी है कि महुआ मोइत्रा की सदस्यता चली भी गई तो वे अगले चुनाव में ज्यादा मतों से चुनकर आ सकती हैं। इसलिए कार्रवाई का बहुत मतलब नहीं है, हां चुनाव से पहले वे संसद में अदाणी के खिलाफ नहीं बोल पाएंगी लेकिन ऐसे नहीं बोलेंगी इसकी कोई गारंटी नहीं है और सांसद रहे बिना बोलेंगी तो कम सुनी जाएंगी ऐसा भी जरूरी नहीं है। फिर भी अखबारों में जो खबरें हैं वो गंभीर और वास्तिवक खबर की तरह हैं और वैसे गायब नहीं कर दी गई हैं जैसे राहुल गांधी और कांग्रेस से संबंधित खबरें रोज की जाती हैं। दूसरी ओर, खबरों में ये तथ्य नहीं हैं जो बताते हैं कि मामला हिट जॉब लगता है। टाइम्स ऑफ इंडिया के शीर्षक के अनुसार एथिक्स पैनल ने महुआ को अयोग्य ठहराने की सिफारिश करने का निर्णय़ 6:4 के बहुमत से निर्णय/ लिया है।
जब निर्णय बहुमत से लिया गया है तो मामला एथिक्स का कैसे है। दूसरे मामलों में बहुत से निर्णय़ तो समझ में आते हैं। लेकिन एथिक्स का मामला बहुमत से कैसे तय होगा? छह सहमति और चार असहमति का मतलब हुआ कि चार लोग उसे अनैतिक नहीं मानते हैं। जब एक भी व्यक्ति अनैतिक नहीं माने तो उसका मतलब होता है और इसीलिए किया गया है कि गैर कानूनी तो नहीं ही है अनैतिक भी नहीं है। पर इसे अनैतिक मानकर मुद्दा बना दिया गया और अपराध का रूप देकर सरकारी तोते से जांच कराने की सिफारिश कर दी गई। अब आप तय कीजिये कि इसमें नैतिकता ज्यादा है या अनैतिकता और इसे अपराध का मामला बना देना कितनी नैतिकता है।
इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर लीड है। एक्सप्रेस एक्सप्लेन्ड में बताया गया है कि अब फैसला लोकसभा अध्यक्ष को करना है। वैसे अखबारों में सोशल मीडिया में भी स्पीकर के फैसले का अंदाजा सबको है पर अभी वह मुद्दा नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर लीड के साथ ही एक खबर छापी है, “पहली टिप्पणी में टीएमसी ने पूछा जब कुछ साबित नहीं हुआ है तो निष्कासन क्यों?” आप जानते हैं कि जब से यह मामला शुरू हुआ है बहुत सारे लोगों की चिन्ता और परेशानी यह है कि महुआ मोइत्रा की पार्टी उनका समर्थन क्यों नहीं कर रही है। वैसे तो पार्टी के पास समर्थन दिखाने का कोई तरीका नहीं था और विरोध करना होता तो बयान जारी कर सकती थी। पर समर्थन के लिए ऐसे बयान की जरूरत नहीं थी और वैसे भी चुप रहने का मतलब यहां साथ रहना भी है। पूछने वालों से महुआ मोइत्रा ने कहा भी कि उनकी पार्टी उनके साथ है, जानती है कि मैं निपट लूंगी वगैरह-वगैरह।
मुझे नहीं लगता कि पूरे मामले में महुआ मोइत्रा कहीं कमजोर पड़ीं या उन्हें उनकी पार्टी का साथ नहीं मिला या उसकी जरूरत थी। फिर भी यह कहानी गढ़ने की कोशिश की जा रही थी कि महुआ मोइत्रा की पार्टी ने उन्हें अलग-थलग छोड़ दिया है। इंडियन एक्सप्रेस ने आज अपनी दूसरी खबर से यह बताया है कि पार्टी उनके साथ है तो कोलकाता से निकलने वाले अखबार, द टेलीग्राफ ने इस बात को ज्यादा महत्व दिया है कि निष्कासन की तलवार लटकने के बावजूद महुआ के तेवर कायम हैं। एथिक्स पैनल की रिपोर्ट यहां सिंगल कॉलम में है। इससे भी इसका महत्व समझ में आता है।
गौरतलब है कि इंडियन एक्सप्रेस की खबर का शीर्षक अगर यह है कि महुआ मोइत्रा की पार्टी ने निष्कासन पर सवाल उठाये हैं तो द टेलीग्राफ की मुख्य खबर का फ्लैग शीर्षक है, “अभिषेक बोले, ममता चुप, पार्टी बंटी हुई है”। मुझे लगता है कि जब कोई नहीं बोल रहा था और पूरी पार्टी साथ थी तो परेशानी थी कि कोई बोल नहीं रहा है। पार्टी ने जब बोलने की जरूरत समझी तो महासचिव अभिषेक बनर्जी ने सवाल किया, महुआ का साथ दिया लेकिन शीर्षक है, अभिषेक बोले, ममता चुप। क्या आपको लगता है कि दोनों को अलग-अलग बोलने की जरूरत है और पार्टी के महिसचिव के कहे को पार्टी का कहा नहीं मानने का कोई कारण है या अलग बोलने पर नहीं लगता कि दोनों अलग हैं और इस मुद्दे पर एक हैं। समझना मुश्किल नहीं है। मुझे लगता है कि खबरों में पूर्वग्रह दिख ही जाता है। और इसीलिए जनसत्ता में हमलोग अखबार देखकर समझ जाते थे कि किसका बनाया होगा। पर वह अलग मुद्दा है।
कहने की जरूरत नहीं है प्रस्ताव का समर्थन करने वाले भाजपा के सदस्य हैं और कांग्रेस की निलंबित सांसद प्रणीत कौर ने भी समर्थन किया है लेकिन सबको पता है कि वे भाजपा नेता अमरिन्दर सिंह की पत्नी है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक खबर छापी है जिसका शीर्षक है, महुआ की अयोग्यता के लिए निलंबित कांग्रेस सांसद ने भाजपा के साथ वोट दिया। जिनलोगों ने रिपोर्ट को स्वीकार किये जाने के खिलाफ वोट दिया उनमें बसपा के दानिश अली, माकपा के पीआर नटराजन, कांग्रेस के वी वैथलिंगम और जेडीयू के गिरधर यादव शामिल हैं। इससे भी साफ है कि भाजपा के समर्थकों ने महुआ का विरोध किया और दूसरे दलों ने महुआ का समर्थन किया। यह बहुमत की राजनीति है और राजनीति को नैतिकता या एथिक्स का मुद्दा बनाना भाजपा की राजनीति है या नैतिकता यह आप तय कीजिये।
कार निर्माताओं वाली खबर का विस्तार टाइम्स ऑफ इंडिया में अंदर के पन्ने पर है। वहां बताया गया है कि यह जुर्माना एक नये नियम के कारण लगा है और इसकी शुरुआत इस साल जनवरी में हुई है। मैं नहीं जानता कि कार कंपनी को भारत में निर्माण की इजाजत देने के क्या नियम और शर्तें हैं लेकिन कोई भी कार निर्माता वही कार बनायेगा जो पहले से बना रहा होगा या दूसरे देशों में बनाता होगा या यहां के नियमों के अनुसार जो बनाने की इजाजत होगी। इस मामले में संभव है कि निर्णय सुविधा और लागत के अनुसार लिये जाएं। इन सबसे अलग अगर कोई अनुमति का दुरुपयोग कर रहा है जो जुर्माना क्यों, देश निकाला क्यों नहीं? बाद में नियम बदलकर जुर्माना वसूलना कैसी छवि बनाएगा और इसके बारे में कौन सोचेगा? कहने के लिए कहा जा सकता है कि सब पहले बताया जा चुका है या करार अथवा शर्तों में है लेकिन जो एक आश्वासन पर, किसी खास स्थिति में एक देश में निवेश करे और उससे बाद में इस तरह जुर्माना वसूला जाये तो क्या सही है? इस नैतिकता पर विचार के लिए क्या कोई समिति नहीं होनी चाहिये?