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सुख-दुख

संपादक बनने का ख्वाब छोड़ दीजिए!

संजय कुमार सिंह-

अगर मीडिया में नौकरी चाहते हैं तो नोट कर लीजिए कि 40 से 60 पार के कई संपादक बेरोजगार हैं, नौकरी की तलाश में हैं और मजबूरी में मक्खन भी आपसे बेहतर लगाएंगे। इसलिए, यहां जगह प्रचारक, कार्यकर्ता और कार सेवकों के लिए ही है। संपादक बनने का ख्वाब भी मत देखिये। संपादक बनने के सपने आते हैं तो सोना छोड़ दीजिए। सेठ के दामाद और बहू की बात अलग है।

मेरा मानना है कि पत्रकारिता की पढ़ाई / डिग्री का महत्व बेरोजगार पत्रकारों को नौकरी दिलाने के लिए ही है। ज्यादादर मीडिया संस्थान अपना स्कूल चलाते हैं, स्वामीभक्तों से अपने लिए मजदूर तैयार करवाते हैं। बेरोजगारी के इस जमाने में पत्रकार (एंकर / एंकरानी) बनने का सपना देखने वाले नहीं जानते कि करियर 30 साल का होना है। जीवन उसके बाद भी है। अभी यू ट्यूब की कमाई भले नजर आ रही हो, कितने दिन चलेगी कोई नहीं जानता। जो नौकरी में है या ढूंढ़ रहा है उसका मालिक किसी दिन पाला बदल कर मूड खराब कर सकता है। उसके अलावा ये सब भी हो सकता है।

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  1. बुढ़ापे में कोई धन्ना सेठ दुकान खरीद कर बेरोजगार कर सकता है
  2. पेंशन नहीं है, वेतन इतना नहीं कि नौकरी गई तो रिटायर मान लो
  3. कैम्पस से सेलेक्शन होता नहीं है। हो जाए तो कुछ साल के लिए ही
  4. जवानी नौकरी ढूंढ़ने और सेटेल होने में निकल जाती है
  5. वेतन से एजुकेशन लोन की किस्त पूरी नहीं होगी
  6. कुंठित संपादक कितने दिन नौकरी करने देगा कोई नहीं जानता
  7. चैन से नौकरी नहीं कर सकते कर भी लिए तो हाथ कुछ नहीं आएगा
  8. बुढ़ापे में अफसोस के अलावा कुछ साथ नहीं रहता है
  9. बहुत नामी-गिरामी लोग रिटायर होने के बाद भी घिस रहे हैं
  10. बहुत कम पत्रकारों के बच्चे भी कायदे से सेटल हो पाते हैं

पत्रकारिता अकेली नौकरी है जिसमें कॉरपोरेट की सारी बुराइयां हैं, अच्छाई एक नहीं। इसी तरह झोला टांग कर, दाढ़ी बढ़ाकर रहने का सुख तो है पर भूखे भी रहना पड़ता है और इतने पैसे नहीं मिलते कि बच्चों को पिज्जा बर्गर खिला सकें। बाकी तो जो है सो हइये है। बिहार में पोस्टिंग हो गई तो जो मुफ्त में मिलता है ऊहो गया।

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