Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

मनो किताब न हो किसी मल्टी नेशनल कंपनी का प्रोडक्ट हो, हिंदी सिनेमा हो कि विज्ञापन चालू

हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं में समीक्षाएं अब इस कदर प्रायोजित हो गई हैं कि इस का कोई हिसाब नहीं है। अखबारों में समीक्षाएं भी पैरे दो पैरे की जो छपती हैं उन पर तो कुछ कहना ही नहीं है। कहना भी पड़े तो यही कहूंगा कि इसे भी छापने की क्या ज़रूरत है? तिस पर संपादकों और उन के सहयोगियों का दंभ देखते बनता है। पहले खीझ होती थी, अब मज़ा आता है इन का ‘अमरत्व’ देख कर। लेकिन हिंदी पत्रिकाओं के संपादकों की अहमन्यता भी खूब है।  जुगाड़ के आगे सभी नतमस्तक हैं।

shiv murti

हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं में समीक्षाएं अब इस कदर प्रायोजित हो गई हैं कि इस का कोई हिसाब नहीं है। अखबारों में समीक्षाएं भी पैरे दो पैरे की जो छपती हैं उन पर तो कुछ कहना ही नहीं है। कहना भी पड़े तो यही कहूंगा कि इसे भी छापने की क्या ज़रूरत है? तिस पर संपादकों और उन के सहयोगियों का दंभ देखते बनता है। पहले खीझ होती थी, अब मज़ा आता है इन का ‘अमरत्व’ देख कर। लेकिन हिंदी पत्रिकाओं के संपादकों की अहमन्यता भी खूब है।  जुगाड़ के आगे सभी नतमस्तक हैं।

समीक्षा के लिए मैं भी पहले किताब ज़रूर  भेजता था। देर सबेर समीक्षाएं छपती  भी थीं। राजेंद्र यादव ने तो मेरे एक उपन्यास अपने अपने युद्ध की समीक्षा हंस में छापी ही, इस उपन्यास पर चार पेज का एक संपादकीय भी लिखा, केशव कहि न जाए का कहिए!  शीर्षक से। तब जब कि मैं राजेंद्र यादव का कोई ‘सगा ‘ या ‘ प्रिय ‘ जैसा भी नहीं था। न कोई जर-जुगाड़ किया था। बाक़ी जगह भी समीक्षाएं स्वत्:स्फूर्त ही छपती थीं। लेकिन यह सब अब पुरानी बातें हैं। पर समीक्षा का वर्तमान परिदृश्य देख कर मैं अब चार साल से किसी को समीक्षा के लिए किताब भी नहीं भेजता। जब कि मेरी किताबें हर साल छपती हैं। एक साल में एक दो नहीं चार पांच छपती हैं। तो भी मुझे इन लोकार्पण और समीक्षा की बैसाखियों के मार्फ़त न तो अमर बनना है न खुदा बनना है। जो बन रहे हैं उन्हें ये बैसाखियां मुबारक़। मेरी किताबें और मेरा ब्लॉग सरोकारनामा बिना इन बैसाखियों के अपना पाठक खुद ब खुद खोज लेने में सक्षम हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

shiv murtiखैर, लखनऊ में एक लेखक हैं शिवमूर्ति। राजकमल प्रकाशन ने उन की एक किताब छापी है सृजन का रसायन। कोई चार पांच महीने पहले ही छपी है। पर अभी तक इस किताब की कहीं एक भी समीक्षा नहीं आ सकी है। किताबघर से छपे उन की किताब मेरे साक्षत्कार का भी यही हाल है। इस की भी समीक्षा गुल है। लेकिन लगभग इसी समय, इसी प्रकाशक ने इसी लखनऊ के अखिलेश का एक उपन्यास छापा निर्वासन। पुरस्कृत कर के छापा। इस उपन्यास की दो दर्जन से अधिक समीक्षाएं छप चुकी हैं। इन्हीं चार महीनों में। सब जगह हरी-भरी समीक्षाएं। बिलकुल चारणगान करती हुई। कहीं कोई खोट नहीं, कमी नहीं। बल्कि किताब लोगों के हाथ में आई-आई ही थी कि समीक्षाएं भी धड़ाधड़ आ गईं। क्या पाखी, क्या हंस, क्या ये, क्या वो! मनो किताब न हो किसी मल्टी नेशनल कंपनी का प्रोडक्ट हो। कोई हिंदी सिनेमा हो। कि प्रोडक्ट आया नहीं, सिनेमा आया नहीं कि विज्ञापन चालू! आने के पहले ही से विज्ञापन! कि प्रोडक्ट या सिनेमा में डीएम हो न हो, विज्ञापन में डीएम होता है और कारोबार चल जाता है। मुनाफ़ा वसूली हो जाती है। गुड है! तो क्या यह पत्रिकाएं भी अब लोगों का मार्केटिंग टूल बनती जा रही हैं? लोगों के महत्वोन्माद का शिविर बनती जा रही हैं? जुगाड़ के जंगल में तब्दील हो रही हैं? खैर जो भी हो, जय हो ऐसे संपादकों, लेखकों और समीक्षकों की। उन की पूत के पांव पालने में ही चीन्ह लेने की इस क्षमता को सलाम!

और यह सब तब है जब इस उपन्यास ‘निर्वासन’ पर प्रभात रंजन ने लिखा है कि वह अपठनीय है और कि चुके हुए लेखक हैं अखिलेश। वह लिखते हैं, ‘प्रकाशक द्वारा लखटकिया पुरस्कार के ठप्पे के बावजूद अखिलेश का उपन्यास ‘निर्वासन’ प्रभावित नहीं कर पाया। कई बार पढने की कोशिश की लेकिन पूरा नहीं कर पाया। महज विचार के आधार पर किसी उपन्यास को अच्छा नहीं कहा जा सकता है। साहित्य भाषा के कलात्मक प्रयोग की विधा है। ‘निर्वासन’ की भाषा उखड़ी-उखड़ी है। ‘पोलिटिकली करेक्ट’ लिखना हमेशा ‘साहित्यिक करेक्ट’ लिखना नहीं होता है। सॉरी अखिलेश! एक जमाने में आप को पढ़ कर लिखना सीखा। लेकिन आज यही कहता हूँ- आप चुक गए हैं! (और हाँ! एक बात और, 349 पृष्ठों के इस उपन्यास की कीमत 600 रुपये? क्या यह किताब सिर्फ पुस्तकालयों के गोदामों के लिए ही है, पाठकों के लिए नहीं)। मैत्रेयी पुष्पा की राय और है। वह कहती हैं, ‘इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है, दोस्ती और दुश्मनी की दलबंदी। पाठकों में यह दुर्गुण नहीं होता। दोस्त समीक्षक पीठ ठोकें और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचना की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए।’

मैं तो अपनी किसी किताब का अव्वल तो लोकार्पण नहीं करवाता। किताब का लोकार्पण करवाना मतलब विवाह योग्य बेटी का पिता बन जाना है। कि हर कोई लेखक पर एहसान करने का भाव ले कर आता है। और लेखक को वक्ता से ले कर श्रोता तक की खातिरदारी बारातियों की तरह करनी है, उन के नाज़ नखरे उठाने हैं, खर्च बर्च करना है और अंतत: अपमान की नदी में कूद जाना है। और वक्ता लोग सीना ताने हुए आते हैं और दिलचस्प यह कि किताब बिना पढ़े हुए आते हैं। लेखक भी एक से एक कि मूर्ख और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों या सो काल्ड सेलीब्रेटीज को भी लोकार्पण समारोहों में बुला कर अपनी शान समझते हैं। वह राजनीतिज्ञ, वह सेलेब्रिटीज़ लोग जिन का किताब या साहित्य से कोई सरोकार नहीं। जो समाज पर सिर्फ और सिर्फ दाग हैं और कि बोझ भी। अभी फेसबुक पर शशिभूषण द्विवेदी ने अपनी वाल पर विष्णु खरे के एक बयान को उद्धृत करते हुए एक पोस्ट लिखी है, आप भी पढ़िए :

Advertisement. Scroll to continue reading.

विष्णु खरे ने मिथिलेश श्रीवास्तव के कविता संग्रह के विमोचन में नए लेखकों की किताबों की तुलना जो सुअरिया के बच्चों से की है वह सुनने में ख़राब तो है औरvishnu-khare-150x150 घटिया भी है। उसकी निंदा होनी भी चाहिए लेकिन उनकी बात का जो निहितार्थ है उस पर भी विचार किया जाना चाहिए। दरअसल तकनीकी की सुलभता के कारण जब से छपना-छपाना आसान हो गया है तब से कचरा किताबों की बाढ़ आ गई है। हाँलाकि ऐसा नहीं है कि पहले घटिया किताबें नहीं छपती थीं। समर्थ लोगों की घटिया किताबें पहले भी छपती रही हैं और उन पर प्रायोजित चर्चा भी होती ही थी। लेकिन घटिया किताबों की ऐसी बाढ़ नहीं आई थी। आज प्रकाशन व्यवसाय का विस्तार हुआ है, किताबें खूब छप रही हैं लेकिन उसी के साथ सचाई यह भी किताबों की गुणवत्ता में भयानक कमी आई है। आज कूड़ा किताबों के ढेर में अच्छी किताबों की पहचान मुश्किल होती जा रही है। सोचने वाली बात है कि साल में कुछ नहीं तो दस हजार किताबें तो छपती ही होंगी लेकिन उनमें सचमुच कितनी किताबें होती हैं जिन्हें पढ़ा जाना अनिवार्य लगे। नए लेखकों से उम्मीद होती है कि वे अपना बेहतरीन देंगे लेकिन वहां भी छपास और बायोडाटा बढ़ाने की ऐसी हड़बोंग है कि आश्चर्य और दुःख होता है। आलोचकों की भूमिका यहाँ महत्त्वपूर्ण हो सकती थी लेकिन उसका और भी बुरा हाल है। ऐसे में विष्णु खरे की बात बुरी लगते हुए भी सोचने लायक तो है।

तो क्या समीक्षा, क्या लोकार्पण सभी में घुन लग गया है। तिस पर प्रकाशकों द्वारा लेखकों का शोषण अंतहीन है। अभी एक बड़े कवि मिले एक समारोह में। वह बता रहे थे कि दिल्ली में दरियागंज के एक बड़े कहे जाने वाले प्रकाशक से कविता संग्रह छापने की बात की तो रायल्टी देने की बात करने के बजाय उलटे वह किताब छापने के लिए एक लाख रुपए की मांग कर बैठा। कवि यह सुन कर चौंके। कहा कि यह तो बहुत ज़्यादा है तो प्रकाशक बोला, ‘आखिर हमारा ब्रांड भी तो बड़ा है, हमारे बैनर का नाम बहुत है, इतना पुराना और बड़ा हमारा नाम है।’ भोजपुरी में एक कहावत है कि, ‘बड़ -बड़ मार कोहबरे  बाक़ी!’ तो बात और दंश और इस के डाह की कई सारी परती परकथाएं लिखनी अभी शेष हैं।

लेखक दयानंद पांडेय वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार हैं. उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है। यह लेख उनके ब्‍लॉग सरोकारनामा से साभार लिया गया है।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement