-संदीप तिवारी-
पत्रिका का ताना -बाना हमेशा की तरह दुरुस्त है। यह अंक निकाल कर हरेप्रकाश जी ने मंतव्य के पाठकों को चौंकाया है। इतना बेहतरीन अंक निकालने के लिए हरेप्रकाश जी को बधाई! उम्मीद है कि मंतव्य आगे भी पाठकों को इसी तरह चौंकाती रहेगी। पांच लंबी कहानियों में से पहली लंबी कहानी सूरज प्रकाश की है ‘ललिता मैडम’। सूरज प्रकाश जी ने अपनी पिछली कुछ कहानियां भी फेसबुक को आधार बना कर लिखी हैं। अब लगता है कि यहाँ संवेदना के नाम पर अनावश्यक विस्तार ज्यादा है, संवेदना कम।
ध्यान से देखें तो यह कहानी लंबी कहानी होने के साथ-साथ ही लंबे लोगों (बड़े लोगों) की कहानी है। बड़े इस अर्थ में कि यहाँ कुछ छोटा होता ही नहीं। यहाँ की हर बात इतनी बड़ी है कि आम पाठक इसे चाहकर भी खुद से नहीं जोड़ पाता। कैसे जोड़ पाए? जितना किसी मामूली आदमी के वर्षों की कमाई होगी उतना तो ललिता मैडम अपने एक दिन के खाने -पीने में उड़ा देती हैं। विदेश में एक पढी-लिखी लड़की ‘जूही’ जो अच्छी-खासी नौकरी कर रही है वह इतना आसानी से कैसे ललिता मैडम के चंगुल में फंस जाती है यह भी समझ से परे है। अरे इससे ज्यादा चालाक और समझदार तो गाँव की अनपढ़ लडकियां होती हैं। इसी विशेषांक में बिक्रम सिंह की कहानी ‘ अपना खून’ की दीपा एक अनपढ़ पहाड़न लड़की है जिसकी समझ जूही से बहुत ज्यादा है। यहाँ पाठक सिर्फ और सिर्फ ललिता मैडम की पार्टियों के खर्चे , उनकी साड़ियों की कीमत और उनके विलासी जीवन के ब्यौरों को पढ़ता हुआ बोर होता है।
संग्रह की दूसरी कहानी विश्वम्भर मिश्र की ‘स्टील कंपनी’ है। यह कहानी जन आंदोलनों के पीछे छिपी अनेक तिकड़मों का बड़ी बेरहमी से खुलासा करती है। विकास के झूठे नारे लगा कर किस तरह से आम किसानों की ज़मीनों को हड़पने की एक साजिश रची जाती है, यह कहानी उसका खुलासा करती है। जनांदोलनों में हमेशा आगे रहने वाले लोग क्या क्या गुल खिलाते हैं यह कहानी उसका सटीक और असली चेहरा पाठक के सामने रख देती है। धूमिल ने ऐसे ही आगे रहने वाले लोगों के लिए लिखा था…
कि यह लो यह रहा तुम्हारा चेहरा
यह जुलूस में पीछे गिर गया था…
हकीकत है यह। इसलिए कहानीकार ने बड़ी निर्ममता से आंदोंलनो की सच्चाई को पूरी कहानी में जगह दी है। कहानी की सफलता भी इसी में है कि वह अपने समाज का यथार्थ चित्रित करे। इस काम में कहानीकार ने कहीं भी और किसी भी तरह की कोई चूक नहीं की है। नेता, पुलिस,प्रशासन और कंपनियों के आला अधिकारी के दोगलेपन का यथार्थ चित्रण है यह कहानी।
बिक्रम सिंह की कहानी ‘अपना खून’ पहाड़ी जीवन का मार्मिक पक्ष हमारे सामने लाती है। यह कहानी, पहाड़ी लोगों की भूख, गरीबी, और उनकी तमाम लाचारियों के साथ-साथ वहां के लोगों की सादगी और अपार सुंदरता को बहुत सहजता से चित्रित करते हुए आगे बढ़ती है । इस क्रम में बेमेल विवाह, बेरोजगारी और पहाड़ से लोगों के पलायन जैसे बड़े विमर्शों को बिना किसी लाग-लपेट के कहानीकार ने विविध रूपों में अंकित किया है। बिक्रम सिंह अच्छे किस्सागो हैं। अपनी धरती और अपने पहाड़ से जुड़कर लिख रहे हैं। उम्मीद है उनकी लिखी और भी बढियां कहानियाँ पढ़ने को मिलती रहेंगी।
बलराज सिंह सिध्दू की कहानी ‘कूकर’ में प्रेम जैसी कोई चीज़ नहीं है, यहाँ सिर्फ़ अमीरी की ठसक और वासना का पहाड़ दिखाई देता है। राजू के किशोर मन में सामन्ती फितूर पारंपरिक रूप से सक्रिय है जो जाने-अनजाने उसके बोलचाल से ज़ाहिर ही हो जाता है। पर दूसरी तरफ़ ‘जीती’ की शालीनता, उसकी शराफत और उसका ज्ञान मन मोह लेते हैं।
मेरे ख़याल से शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय की कहानी ‘बालकनी’ इस विशेषांक की सबसे छोटी कहानी है। लेकिन आकार में छोटी होने के बावजूद कहानी का कथ्य बहुत ही सधा हुआ है। कहानी मूल रूप से बांग्ला में ‘उत्तरेर बालकनी’ नाम से लिखी गयी है। यहाँ शेष अमित ने उसका बहुत ही सुन्दर अनुवाद किया है। संवेदना के स्तर पर यह कहानी बहुत ही सशक्त है। तीन पात्रों के अलग-अलग जीवन भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। तीनों मुक्ति की राहों में हमेशा एक दूसरे से टकराते हैं, गिरते हैं और फिर धूल झाड़कर किसी खोज में लग जाते हैं। यहाँ प्रेम, अपनी एक अलग और अनूठी परिभाषा रचता है।
संदीप तिवारी का विश्लेषण.