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सुख-दुख

Bossophilia नामक बीमारी : Boss के बदलते ही इस love का केंद्र भी बदल जाता है

Bipendra Kumar

अभी खुशवंत सिंह की ऑटोबायोग्राफी Truth, love & little malice पढ़ रहा। करीब 15 साल पहले भी पढ़ा था। लेकिन इसबार पढ़ना ज्यादा रोचक लग रहा। उंस वक्त बंबई की चाल-ढाल को जानने के प्रति मेरे मन मे कोई ललक नहीं थी। लेकिन बहुत कम पन्नों में बंबई का जो खांका किताब में है वह रोचक लगा।

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खुशवंत सिंह वर्षों तक Illustrated Weekly के पर्याय बने रहे थे। जबतक वहां रहे वे Times House के बेताज बादशाह बने रहे। हालांकि विदाई उसी “तरीके” से हुई जिस तरीके से गिरिलाल जैन, इंदर कुमार मल्होत्रा सरीखे कई नामी संपादकों को विदा किया गया है। खुशवंत सिंह एक दिन दफ्तर आये और क्लर्क ने पुर्जा थमाया जिसका आशय था अब आप जा सकते हैं। उन्होंने उसी क्षण अपना छाता उठाया और जिस पत्रिका को अपना बच्चा मान बैठे थे उसे टाटा, बाय-बाय किया। इन दिनों प्रबंधन को विदाई का यह तरीका कुछ ज्यादा सुहा गया है।

पत्रकारिता के अपने शुरुआती दिनों में यह जुमला सुना करता था कि खुशवंत सिंह ने Illustrated Weekly को एलीट क्लास के ड्राइंग रूम से निकाल कर नाई की दुकान तक पहुंचा दिया। यह जुमला weekly के बढ़े सर्कुलेशन से जुड़ा था। मैंने खुद कई छोटे सैलूनों में weekly का अंक देखा है। सैलून वाले अपनी बारी का इंतजार कर रहे ग्राहकों के लिए इसे रखा करते थे। जिन्हें कुछ पढ़ना नहीं होता वे भी पन्ना उलटा करते थे। Weekly के फोटो सब में आकर्षण होता था। ऐसे फोटो सब की कहानी को पढ़कर भी उनसे जुड़ी यादें ताजा हुई।

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खुशवंत सिंह ने Bossophilia नामक बीमारी की रोचक चर्चा की है। इस शब्द से अबतक अनजान था। उनके अनुसार इस बीमारी का लक्षण है Love for boss. Weekly के अपने दिनों को याद कर उन्होंने लिखा है कि Boss के बदलते ही इस love का केंद्र भी बदल जाता है। इस बीमारी के रोगियों को मनचाही तरक्की मिलती है, हरकाम में प्रश्रय मिलता है। रोगी तो कमोबेश हर दफ्तर में हैं लेकिन रोग का यह नाम प्रचलित नहीं है।

लाग-पात

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ये लाग-पात बड़े काम की चीज है। अगर आपके पास लाग-पात हो तो बहुत कुछ पा सकते हैं। राजनीति में इस लाग-पात के रुतबा की चर्चा आप अक्सर सुनते होंगे। लेकिन पत्रकारिता में भी इसका दबदबा कुछ कम नहीं। और हो भी क्यों नहीं। पत्रकारिता भी तो जुड़वां भाई ही है न! आखिर लोकतंत्र को कंधा तो वह भी देता है। मतलब यहां भी लाग-पात मजे में चलता है। आपकी योग्यता लाग-पात के लत्तर पर सरसरा सकती है। और यह सब कोई नया नहीं है, दशकों से चल रहा है। दरअसल खुशवंत सिंह का ऑटोबायोग्राफी पढ़ते-पढ़ते लाग-पात की बात दिमाग में हिलोरा मारने लगी। बात पुरानी है लेकिन हकीकत बयां करने वाली है।

All that glitters is not gold.

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खुशवंत सिंह और Illustrated Weekly की चर्चा पिछली बार किया था। उसीके बहाने जरा सुनिए लाग-पात का पराक्रम। बल्ब वाले सरदार जी weekly join किये थे तो एक महिला वहां पार्ट टाइम कुछ काम किया करती थीं। काम ठीक -ठाक लगा सो सरदार जी ने उन्हें रेगुलर कर सब एडिटर बना देने को सोचा। लेकिन वे थीं बड़ी लाग-पात वाली। उनके पति बड़े नेता थे और पहुंच दिल्ली दरबार तक थी। नतीजा हुआ कि सरदार जी जिसे सब एडिटर के तौर पर बहाल करना चाहते थे उनकी बहाली हुई असिस्टेंट एडिटर के रूप में। फिर खुशवंत सिंह ने जिस Bossophilia रोग की चर्चा अपने किताब में की है उसका भी असर दिखने लगा। कोई कागज उनके पास से गुजरे बिना सरदार जी तक नहीं पहुंचती थी। असर इतना गहराया कि सरदार जी का दोपहर का लंच भी उनके घर से ही आने लगा। लेकिन संपादक जी को कुर्सी छोड़ने की पर्ची थमाई गयी उसके बाद चाय का भी बुलावा नहीं आया। Bossophilia अपने तरीके से असर दिखाता रहा और ठौर बदल लिया।

लाग-पात और Bossophilia की यह कोई अकेली या अनोखी घटना नहीं है। कुछ अनोखा है तो बस इतना कि खुशवंत सिंह ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में सबकुछ साफ-साफ लिखा है, छुपाया नहीं है कुछ।Truth, love & little malice को फिर से पढ़ना अच्छा लग रहा। इसी बहाने अपनी छोटी नौकरी के दिनों की यादें भी इलेक्ट्रफाइ हो रहीं।

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पटना के वरिष्ठ पत्रकार बिपेंद्र कुमार की एफबी वॉल से.

कुछ प्रतिक्रियाएं-

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Kumar Dinesh
बढ़िया लिखा। इसी किताब में खुशवंत सिंह ने उन दिनों की चर्चा की है, जब वे लंदन में भारतीय उच्चायोग के अधिकारी थे। जब नेहरू प्रधानमंत्री के रूप में पहली बार ब्रिटेन आ रहे थे, तब हीथ्रो हवाई अड्डे पर उन्हें रिसीव करने की जिम्मेदारी खुशवंत सिंह को मिली थी। नेहरू का विमान आधी रात के बाद उतरा। वहां उपस्थित उच्चाधिकारी खुशवंत सिंह के अनुसार नेहरू लंदन में उतरने के बाद सीधे एडविना माउंटबेटन से मिलने उनके घर पहुँचे। किताब में ऐसे कई प्रसंग हैं। आप उन पर बेहतर लिख सकते हैं।

K Vikram Rao
Dear Bipendra bhai. Girilal Jain was not given a Farewell by the editorial staff. He did not deserve it. He got my dismissal letter delivered in Tihar central jail during the Emergency. He worshipped the Dictator. But her son was away in Beijing when that upstart Sameer Jain threw Girilal out.

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Bipendra Kumar
जी। मैंने भी farewell की बात नही लिखी। “विदाई” (इनवर्टेड कोमा) में छुपा भाव वही है जो आप बता रहे।

K Vikram Rao
Bipendra bhai. I stand corrected. Your subtle humour was beyond my comprehension perhaps. Girilal Jain was not given a Farewell by the editorial staff. He did not deserve it. He got my dismissal letter delivered in Tihar central jail during the Emergency.

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1 Comment

1 Comment

  1. धीरज कुमार

    October 28, 2020 at 5:54 am

    खुशवंत सिंह का पत्रकारिता में उतरने का मकसद कभी भी वो नहीं रहा जो हमारे आपके जैसे मीडियाकर्मी लेकर आये थे।
    आधी दिल्ली के मालिक कहे जाने वाले और बड़े-बड़े सरकारी – गैर सरकारी महकमों में अपनी मौजूदगी रखने वाले इस अरबपति के सर पर भी एक दाग था। उसका बार सर सोभा सिंह दिल्ली का बहुत बड़ा ठेकेदार बन गया था क्योंकि शहीद भगत सिंह के विरुद्ध असैंबली बम कांड में सरकारी गवाह बना। उसके समाज के लोगों तक ने उसके परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया था।
    खुशवंत सिंह जिंदगी भर उस दाग को धोने में जुटा रहा। आखिरी वर्षों में उसे कुछ कामयाबी भी मिली भी, लेकिन मेरे जैसे कुछ खुराफातियों के कारण वो टूट गया। वो कहानी फिर कभी। उसकी आत्मकथा को पढ़ने से पहले एक बार ये ऐंगल भी तलाश लीजियेगा गूगल पर।

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