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सुख-दुख

चीन के इतने सारे ‘न्यूक्लियर रिएक्टर्स’ के पीछे का सच क्या है!

Samar Anarya-

दशक था 1960 का। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध माने कोल्ड वॉर भी चरम पर था और परमाणु हथियारों की होड़ भी। और ऐसे में एक दिन अचानक अमेरिकी सेटेलाइट्स ने चीन के एक ख़ास इलाक़े में दर्जनों नहीं सैकड़ों ऐसी इमारतें देखीं जो न्यूक्लियर रिएक्टर जैसी दिखती थीं! अब तो उनके हाथ पाँव फूल गए, गला सूखने लगा। कि एक नहीं दस नहीं सैकड़ों। वह भी सोवियत यूनियन नहीं चीन में!

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शुक्र है कि नासा के वैज्ञानिकों ने दिमाग़ दौड़ाया- सोचा कि चीन बस 10 साल में इतने रिएक्टर तो नहीं बना सकता। सो और बेहतर तस्वीरें लेने की कोशिशें की। बेहतर पिक्सेल वाली तस्वीरें आईं तो उन्हें पता चला कि ये रिएक्टर नहीं, घर हैं। बहुत बड़े बड़े घर। ऐसे कि एक एक घर में 300-400 परिवार रह रहे हैं।

दक्षिणी चीन के फुजियान प्रदेश के यांगडिंग क़स्बे में हमारे लोकल दोस्त ने ये कहानी सुनाई तो मैं चौंका नहीं। आख़िर मुझे हांग कांग से खींच यांगडिंग ले जाने की ज़िम्मेदार ही यही कहानी थी जो फॉरेन पॉलिसी नाम के जर्नल के पन्ने पलटते हुए एक दिन मुझसे टकरा गई थी!

जी हाँ- न्यूक्लियर रिएक्टर सी दिखने वाली इन इमारतों का नाम होता है – तुलोऊ। ज़्यादातर गोल पर कुछ चौकोर भी। पूरी तरह से मिट्टी से बनी इन इमारतों के बनने की कहानी भी दिलचस्प है- फुजियान चीन के कई और प्रदेशों से उलट बहुत उपजाऊ है। ज़्यादातर इलाक़ा ट्रॉपिकल है। फसलें खूब होतीं, और न बर्फ पड़ती न लू चलती। सो इलाक़े के लोग धनी हुए।

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लोग धनी हुए तो लुटेरे भी पहुँचे। और वे पहुँचे तो लोगों की उनसे बचने की, उनसे लड़ने की कोशिशें भी शुरू हुईं! और फिर बने ये घर। पूरे पूरे गाँवों ने मिल के बनाये- हर परिवार के लिए तीन (या चार) कमरे। सबसे निचली मंज़िल पर रसोई। बीच वाली में रसद। सबसे ऊपर रहने के लिये। और अंदर आने का बस एक दरवाज़ा।

ये घर ज़्यादातर ऐसी जगहों पर बनाये जाते जो प्राकृतिक रूप से सुरक्षित होतीं- जैसे किसी पहाड़ के ठीक बग़ल की तीन तरफ़ से कोई आ ना सके। या किसी नदी के किनारे। और इनमें ठीक सामने, दरवाजे के ऊपर वॉच टावर होता जिस पर 24 घंटे निगरानी होती।

आसान भाषा में कहें तो ये घर घर नहीं होते थे, मिट्टी के क़िले होते थे। अभेद्य! देखने को मैंने चीन की दीवाल भी देखी है- बनाई वो भी सुरक्षा के लिये गई है। पर उसे मंगोलों से लेकर जो भी होता जब तब पार कर लेता। ये घर मगर बहुत सुरक्षित थे! अब भी खड़े हैं। एक रात ऐसे ही तुलोऊ में सोया हूँ- रात में सपने में देखा कि मैं वॉच टॉवर पर बैठा हूँ, डाकुओं से मोर्चा ले रहा हूँ। सपना टूटा तो याद आया कि 400 साल पुराने ऐसे तुलोऊ में सो रहा हूँ जो मेरे असल गाँव से 4200 किलोमीटर दूर है। हँसा, ढूँढी तो एक बियर बची मिली। पी और फिर सो गया।

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कभी संभव हो तो ज़रूर जाएँ फुजियान। इन तुलोऊ के लिए भी, और श्यापू के लिए भी! वहाँ के मडफ़्लैट्स भी अद्भुत हैं। लाँगजी राइस टेरेसेज जिसके बारे में लिखा है में पहाड़ काट खेत बना लिए तो श्यापू में तो समुद्र ही जोत दिया! फिर कभी लिखूँगा वहाँ के बारे में।

जाना आसान भी है- हांग कांग को बेस बनाइए। चीन का वीज़ा लेकर। फिर मेट्रो पकड़, इमीग्रेशन पार कर शेनजेन चले जाइए। वहाँ से हाई स्पीड (बुलेट ट्रेन) पकड़ यांगडिंग। तुलोऊ एक्स्प्लोर करिए। फिर वापस बुलेट ट्रेन ले कर फुजियान पहुँच लीजिए। 3 लेन और 7 ऐली देखिए। फिर अगली ट्रेन पकड़ श्यापू पहुँच लीजिए!

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मडफ़्लैट्स में घूमिए। यूँ तो कुछ भी देखने के लिये पूरी उमर भी कम है- पर आप चाहें तो एक दिन एक रात यांगडिंग में रहेंगे तो तुलोऊ समझ आ जाएँगे। मडफ़्लैट्स के लिए कम से कम दो दिन और एक रात चाहिए!

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