पश्चिमी उत्तर को एक बार फिर सांप्रदायिकता की सियासत में झोंकने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। पिछले साल मुजफ्फरनगर और उसके आस-पास के इलाकों में सांप्रदायिक हिंसा की आग जमकर भड़काई गई थी। इसमें 50 से ज्यादा लोग मारे गए थे। करीब 50 हजार परिवार अपना घर-गांव छोड़ने के लिए मजबूर हुए थे। मुजफ्फरनगर की आग अब तक पूरी तौर पर ठंडी नहीं हुई है। इसकी खास वजह यही है कि सियासी दल अपने वोट बैंक के खातिर भड़काऊ माहौल बनाए रखने की कोशिशें करते रहते हैं। लोकसभा के चुनाव नतीजों के बाद भी इन सियासी ताकतों को चैन नहीं मिला है। कोई न कोई बहाना बनाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में छोटे-छोटे मुद्दों को सांप्रदायिक रंग देने की कवायद की जाती है। इसी के चलते पिछले एक-डेढ़ महीने से मुरादाबाद के क्षेत्र में तनाव चला आ रहा है। शनिवार को सहारनपुर में एक गुरुद्वारे की जमीन को लेकर दो समुदायों के बीच झड़प हो गई। इसको लेकर पूरे शहर को दंगे में झोंक देने की कोशिशें भी हुईं।
सहारनपुर में गुरुद्वारे की एक जमीन विवाद को लेकर दो गुटों के बीच लंबे समय से मुक़दमेबाजी चलती आ रही है। हाईकोर्ट के फैसले के बाद एक गुट ने शनिवार को तड़के दीवार बनाने का काम शुरू किया, तो इसी को लेकर बवाल बढ़ गया। देखते-देखते आगजनी और पत्थरबाजी का सिलसिला शुरू हो गया। दो घंटे के अंदर ही शहर के तीन थाना क्षेत्रों में हालात बेकाबू होने लगे, तो प्रशासन ने शहरी क्षेत्र में कर्फ्यू लगा दिया। कर्फ्यू के बावजूद शहर के कई हिस्सों में उन्मादी भीड़ ने उपद्रव जारी रखा। इसके चलते दो दर्जन से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हुए। दो की मौत भी हो गई। सहारनपुर के आयुक्त तनवीर जफर अली ने जानकारी दी है कि पुलिस ने उन्मादी भीड़ को रोकने के लिए रबड़ की गोलियां चलार्इं, ताकि ज्यादा लोग हताहत न हों। इस चक्कर में कई पुलिस वालों को गंभीर चोटें आई हैं।
सहारनपुर के मामले में भी प्रशासनिक चूक की तमाम कहानियां सामने आने लगी हैं। जमीन विवाद के मामले में हाईकोर्ट का फैसला पहले ही आ गया था। प्रशासन को यह अच्छी तरह जानकारी थी कि एक गुट अदालत के फैसले के आधार पर जबरन निर्माण कार्य करना चाहता है। इसको देखते हुए जिलाधिकारी ने किसी तरह के निर्माण पर रोक भी लगा दी थी। लेकिन, प्रशासन ने इस इलाके की सुरक्षा का प्रबंध नहीं किया था। वरना, वहां पर तड़के से दीवार बनाने का काम शुरू नहीं हो पाता। दरअसल, दीवार बनने से ही दूसरा गुट भड़क उठा और नारेबाजी शुरू कर दी गई। मुजफ्फरनगर दंगे की तरह यहां भी कट्टरवादी गुटों ने अपने सियासी प्रयोग शुरू कर दिए हैं। गनीमत यही रही कि लखनऊ से आए प्रशासनिक निर्देशों के चलते स्थानीय नेताओं को फिलहाल, यहां पर भड़काऊ गतिविधियां चलाने की छूट नहीं मिल पाई है। लेकिन, ये ताकतें तो मौके के इंतजार में हैं। कभी भी यहां का माहौल और खराब किया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि पिछले साल मुजफ्फरनगर और उसके आसपास के गांवों में कई दिनों तक दो समुदायों के बीच सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें हुई थीं। इसकी ज्यादा कीमत मुजफ्फरनगर, शामली व बागपत के ग्रामीणों को देनी पड़ी थी। यहां पर अल्पसंख्यक गरीब परिवारों को खास तौर पर निशाना बनाया गया था। इसके चलते ही करीब 70 हजार लोग अपना घरबार छोड़कर शरणार्थी बनने के लिए मजबूर हुए थे। इन्हें लंबे समय तक शरणार्थी कैंपों में रहना पड़ा था। इन कैंपों का बंदोबस्त सरकारी खर्चे पर किया गया था। लेकिन, इन शरणार्थी शिविरों में इस कदर अव्यवस्था फैली थी कि तमाम बच्चे कालकल्वित हो गए थे। इसको लेकर भी महीनों तक सियासी थुक्का फजीहत चलती रही थी। मुजफ्फरनगर के दंगों की सियासत को लोकसभा के चुनाव अभियान में भी भुनाने की कोशिश हुई थी। चुनाव में इसका खासा असर भी दिखाई पड़ा। बदले माहौल के चलते जाट समुदाय और दलित समाज का वोट बैंक भाजपा की तरफ झुका था। इसका खासा लाभ इस पार्टी को मिला भी। इस चुनाव परिणाम से दूसरे दलों की बेचैनी बढ़ी है।
अब ये दल अपनी-अपनी तरह से इस कोशिश में लगे हैं कि उनका सामाजिक और जातीय वोट बैंक फिर से उनकी झोली में आ जाए। लेकिन, संघ परिवार के आका इस कवायद में जुट गए हैं कि हिंदुत्व के नाम पर इस वोट बैंक को बांधे रखा जाए। राजनीतिक हल्कों में माना जा रहा है कि इसी खींचतान के चलते छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर सियासत गरम की जा रही है। मुरादाबाद में कांठ के एक छोटे से मंदिर के मामले को तूल देने की कोशिश लगातार चल रही है। यहां पिछले महीने एक दलित समाज के मंदिर से प्रशासन ने लाउड स्पीकर उतरवा दिया था। स्थानीय प्रशासन ने यह कार्रवाई दूसरे संप्रदाय की शिकायत पर अंजाम दी थी। यह मामला बेहद मामूली था, जिसे कभी भी गांव-पंचायत के स्तर पर आराम से निपटाया जा सकता था। लेकिन, संघ परिवार के कुछ उत्साही कारसेवकों ने मंदिर के मुद्दे को हिंदुत्व की सियासत से जोड़ दिया। इन लोगों ने कांठ में धरना-प्रदर्शन की मुहिम शुरू की, तो दूसरे पक्ष के भी कट्टरवादी तत्वों ने यही सब कारनामा जवाबी कार्रवाई के रूप में शुरू किया।
कांठ के मामले में प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने खासतौर पर पहल की है। उन्हीं की अगुवाई में यहां 4 जुलाई को एक महापंचायत बुलाई गई थी। इसमें तय किया गया था कि प्रशासन की रोक-टोक के बावजूद मंदिर में लाउड स्पीकर फिर से लगाए जाएंगे। इस मुहिम से आस-पास के इलाकों में माहौल काफी तनावपूर्ण बना था। इसको देखते हुए प्रशासन ने महापंचायत पर रोक लगा दी थी, तो भाजपा के नेताओं ने अपने शक्ति-प्रदर्शन की पूरी कोशिश की। शनिवार को भी इसी मंदिर के मुद्दे पर प्रदेश भाजपा के नेताओं ने फिर से टंटा खड़ा किया। इन लोगों ने यह तय किया था कि भाजपा के नेता कांठ में मुरादाबाद के एसएसपी धर्मवीर सिंह के खिलाफ थाने में एफआईआर दर्ज कराएंगे। आरोप है कि एसएसपी ने सपा की हिमायत करने के लिए आंदोलन में जुटे संघ परिवार के कारसेवकों का उत्पीड़न किया है।
उल्लेखनीय है कि एसएसपी के एक चर्चित बयान को लेकर भाजपा के वरिष्ठ नेता काफी नाराज हुए थे। इन लोगों ने एसएसपी के खिलाफ अभियान चलाने की घोषणा की थी। यहां तक कि प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने पिछले दिनों यह भी कह दिया था कि उन्होंने नागिन की तरह इस एसएसपी की तस्वीर अपनी आंखों में उतार ली है। मौका मिलते ही इसे सबक सिखाया जाएगा। इस छिछले स्तर की बयानबाजी को लेकर राजनीतिक हल्कों में लक्ष्मीकांत वाजपेयी की काफी किरकिरी भी हुई थी। लेकिन, शायद वाजपेयी को इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। ऐसे में, वे प्रशासन की तमाम रोकटोक के बावजूद धरने-प्रदर्शन की अगुवाई करने के लिए मुरादाबाद पहुंच गए। कांठ मंदिर के प्रकरण को लेकर मुरादाबाद क्षेत्र में काफी सांप्रदायिक तनाव देखा गया।
मुश्किल यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों में सड़क दुर्घटना जैसे प्रकरणों को लेकर भी सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश होती है। हाथरस में पिछले दिनों गैंगरेप की शिकार एक दलित महिला ने खुद को आग लगा ली थी। उसकी दर्दनाक मौत भी हो गई। चूंकि, इस मामले में आरोपी मुस्लिम समुदाय के थे, लिहाजा इस अपराध के मामले को लेकर भी सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की कोशिशें की गईं। मेरठ में भी रविदास मंदिर को लेकर सांप्रदायिक तनाव की स्थिति बन गई थी। तमाम सतर्कता के बावजूद तोड़-फोड़ व आगजनी की कुछ घटनाएं हो गई थीं। दरअसल, मेरठ, मुरादाबाद व अलीगढ़ जैसे शहरों में सांप्रदायिक दंगों का पुराना इतिहास रहा है। यहां पर पहले भी धर्म के नाम पर दंगे कराए गए हैं, जिनमें इन शहरों की बहुत बर्बादी भी हुई है। लेकिन, पिछले 10 सालों से यहां अपेक्षाकृत शांति का माहौल रहा है। इसे बिगाड़ने की कोशिशें शुरू हुई हैं। इस चक्कर में संभल, बरेली व बदायूं से लेकर मथुरा तक सांप्रदायिक नफरत की चिंगारी भड़काने की कोशिशें चल रही हैं।
बसपा प्रमुख मायावती कह चुकी हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ दूसरे हिस्सों में भी संघ परिवार के लोग सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की खेती करने लगे हैं। इसमें कहीं न कहीं सपा सरकार की भी मिलीभगत है। क्योंकि, दोनों दलों को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति सुविधाजनक लगती है। वरना, सपा सरकार संघ परिवार की उन्मादी हरकतों के प्रति इतनी उदासीनता नहीं दिखा रही होती। राजनीतिक हल्कों में माना जा रहा है कि बसपा का नेतृत्व इसलिए और बेचैन है, क्योंकि संघ परिवार के लोग अपनी हिंदुत्व राजनीति की मुहिम में बड़े पैमाने पर दलितों को भी अगुवा भूमिका में रख रहे हैं। जबकि, दलित वोट बैंक पिछले कई वर्षों से बसपा की राजनीति के लिए ‘फिक्स डिपॉजिट’ जैसा रहा है। लेकिन, लोकसभा के चुनाव में भाजपा के रणनीतिकारों ने बहनजी के इस वोट बैंक में सेंध लगा ली थी। अब इस वोट बैंक को अपने पाले में ही रखने के लिए संघ परिवार की मुहिम जारी है। कांठ के जिस मंदिर को लेकर टंटा खड़ा किया गया है, वह रविदास मंदिर है, जिसका प्रबंधन दलित समुदाय के पास ही है। इस मंदिर की प्रतिष्ठा को लेकर चल रही लड़ाई में भाजपा के लोग दलित समाज का दिल जीतने की भी कोशिश कर रहे हैं।
इससे बसपा नेतृत्व खासा चिंतित हो गया है। बसपा के वरिष्ठ सांसद सतीश चंद्र मिश्रा कहते हैं कि संघ परिवार दशकों से घृणा की राजनीति फैलाने का काम ही करता आया है। ये लोग धार्मिक भावनाओं के नाम पर उन्मादी राजनीति करते हैं। दलित समाज और पिछड़ों को ये धर्म के नाम पर बरगलाने की कोशिश करते हैं। ताकि, विकास की दौड़ में ये वंचित समाज आगे न बढ़ पाए। दरअसल, यह एक बड़ी राजनीतिक साजिश है। बसपा की कोशिश है कि वंचित वर्गों को धर्म के नाम पर बरगलाया न जा सके। कांठ के मामले में कांग्रेस ने भी काफी सक्रियता दिखाने की कोशिश की है। प्रदेश और केंद्र की राजनीति में बुरी तरह से पिटने के बाद अब कांग्रेसी अपने लिए मुद्दों की तलाश कर रहे हैं। ये लोग कोशिश कर रहे हैं कि मैदान में धर्म निरपेक्षता की लड़ाई के अगुवा बन जाएं। इसी के चलते भाजपा की मुहिम के खिलाफ इन लोगों ने भी शनिवार को मुरादाबाद में शांति मोर्चा निकालने का ऐलान किया था। लेकिन, धारा-144 लागू होने के चलते इनके तमाम नेताओं को रास्ते में ही रोक लिया गया। जबरदस्त सियासी मुकाबला शुरू हो गया है। अब यहां सभी प्रमुख दल अपने-अपने दांव आजमाने की होड़ में हैं। खतरा यही है कि कहीं इस वोट बैंक सियासत के चक्कर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता की आग और तेज न हो जाए?
लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।
सिकंदर हयात
July 28, 2014 at 3:55 pm
संघ परिवार तो खेर हे ही इन दंगो के पीछे हे वार्ना भला मुज्जफरनगर मुरादाबाद के साथ तनाव के माहोल में लेंटर डालने की जल्दबाज़ी क्यों की गयी ? लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं हे की वेस्ट यु पी में भारी मुस्लिम आबादी में साफ़ साफ़ खासा तब्लीगिकरण हो रहा हे पढ़े लिखे पैसे वाले मुस्लिम भी आधुनिकता के दबावों से बचने के लिए अतिधर्मिक हो रहे हे वो मुस्लिम महफ़िलो में बेकार की बाते भी करते हे ये सोचे बिना की इसका कम पढ़े लिखे कम जानकारी वाले मुस्लिम समाज पर क्या असर हो सकता हे ? हर जगह आम जनता शोषित पीड़ित हे आम मुस्लिम भी मगर वो इसका पीछे व्यवस्था को नहीं साम्पर्दयिकता को देखता हे और छोटे छोटे विवादों पर बिना सोचे समझे भड़क उठता हे और सव्भाविक हे नुक्सान में ही रहता हे
सिकंदर हयात
July 28, 2014 at 6:06 pm
कटटरपन्तियो का दबाव मुस्लिम समाज पर कितना बढ़ता जा रहा हे इसका एक नमूना देखे तो टीवी बहस के दौरान एक उदारवादी से ही दिख रहे मुस्लिम पत्रकार भी यही कहते रहे की कंस्ट्रक्शन करने की क्या जरुरत थी जरुरत थी ? एक बार भी उन्होंने उन मुस्लिम कटटरपन्तियो को नहीं लताड़ा जिन्होंने शायद लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करके इतनी भीड़ इकट्ठी कर ली एक बार भी नहीं ?
सिकंदर हयात
July 28, 2014 at 6:07 pm
सहारनपुर में जो हुआ सिख भाइयो का तो नुक्सान हुआ ही मुस्लिम व्यापारियों का भी ज़बरदस्त नुक्सान हुआ होगा जिन्हे ईद पर बहुत कुछ सामान बेचना था उन छोटे छोटे बच्चो के बारे में और उन छोटे मोटे मेले लगाने वाले के बारे में सोच कर तो मेरा दिल रो रहा हे जो बेचारे पूरा साल ईद का इंतज़ार करते हे