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सुख-दुख

प्रोफ़ेसर दविंदर कौर उप्पल मैम को भी कोरोना निगल गया

ब्रजेश राजपूत-

हम सबकी आदरणीय और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के संचार विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष 75 वर्षीय प्रो. दविन्दर कौर उप्पल का आज रात 4 मई 2021 को 02:37 बजे निधन हो गया। घर पर गिर जाने के कारण 11 अप्रैल, 2021 को उनके पैर की हड्डी की सर्जरी हुई थी। इस दौरान कोरोना संक्रमित हो जाने के कारण रेड क्रॉस अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था।.. ओम् शांति

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प्रियंका दुबे-

कभी सोचा नहीं था कि मध्यप्रदेश की जिस यूनिवर्सिटी में मेरी पढ़ाई हुई वहाँ के उस शिक्षक का मुझ पर सबसे ज़्यादा प्रभाव रह जाएगा जिनके डिपार्टमेंट में मैं थी ही नहीं. अपने विभाग के दायरों को तोड़ स्टूडेंट्स को अपने आदर्शात्मक जीवन से सींचने वाली थी उप्पल मैम. मेरी याद में ऑटो से यूनिवर्सिटी आने वाली एकमात्र प्रोफ़ेसर और हेड ओफ़ डिपार्टमेंट.

क़द इतना ऊँचा था कि सार्वजनिक कार्यक्रमों में जब भी वो सबसे पीछे की पंक्ति में बैठती (फिर, एकमात्र प्रोफ़ेसर जिनको आगे या विशेष कुर्सियों पर बैठने की कभी कोई इच्छा नहीं रही) तब भी सामने से नज़र आ जातीं. लेकिन सिर्फ़ शारीरिक क़द नहीं, उप्पल मैम का क़द हम सभी के दिलों में ऊँचा रहा. भोपाल के इस अति पारंपरिक जकड़न भरे माहौल में मिली पहली फ़ेमिनिस्ट शिक्षक- जिन्होंने जीवन भर सिर्फ़ अपने साथ रहना चुना.

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उप्पल मैम के आदर्शों का हिसाब यह था कि एक बार जब मैं गुलमोहर कॉलोनी स्थित उनके घर गयी, तक़रीबन आठ साल पुरानी बात होगी, तो देखती हूँ घर के बाहर अपनी नेमप्लेट में उन्होंने ब्रैकट में ( किरायेदार) लिखा है !!! मैंने उनकी नेम प्लेट पढ़ी और हक्की बक्की रह गयी …जीवन में पहली बार किसी किराएदार को अपनी नेम प्लेट में अपने नाम के साथ किरायेदार लिखता हुआ देख रही थीं.

मैंने घर के बाहर ही हाथ जोड़ कर उन्हें प्रमाण किया. ऐसा आदर्शवाद ! इतनी स्वावलंबी स्त्री ! उनके जाने की खबर सुनकर उनको याद करते हुए उनके साथ WhatsApp और फ़ेसबुक मेसेंजर पर सालों से हो रही छुटपुट बातचीत स्क्रोल कर रही थी. वह शायद एकमात्र शिक्षक हैं जो लगातार मेरे काम को पढ़ती रहीं … प्रतिक्रिया देती रहीं. किताब पढ़ते हुए ‘I would love to know your writing process” जैसे वाक्य लिख कर भेजतीं।

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अब पढ़ती हूँ तो देखती हूँ तक़रीबन हर मेसेज के नीचे उन्होंने ‘बहुत प्यार के साथ’ ‘ शुभकामनाएँ भेज रही हूँ’ जैसे सुंदर वाक्य लिखे हैं. 2015 के एक उदार मेसेज है- प्रिय प्रियंका , तुम्हारी शानदार यात्रा बनी रहे ,अनुभवों और सोच को लिखती रहो. यही शुभकामना है. नई पीढ़ी से इर्ष्या कर नहीं सकती,अन्यथा कहने का मन है ‘काश मैं भी ऐसी ही ययावरी जिन्दगी चुन पाती. आपके जीवन ने कितनों को पंख लगाए ! Gone too soon, ma’am.


सचिन कुमार जैन-

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हमारी गुरु दविंदर कौर उप्पल मैम भी चली गईं। जिंदगी में कोई होता है, जो हमें, हमारे व्यक्तित्व को, हमारे नज़रिये को संवारता है। उप्पल मैम ने यही किया था मेरे साथ। विकास और संचार के मायनों को केवल सैद्धांतिक रूप से नहीं पढ़ाया, बल्कि इनका आध्यात्म महसूस करवाया था। वे हमारी संचार और विकास संचार की गुरु थीं। कक्षा से बाहर की वैश्विक कक्षा में उन्होनें ही प्रवेश करवाया था।

वे कहती थीं कि संचार को समझना है तो लोगों के बीच, समाज के बीच, बस्तियों में जाना, उन्हें सुनना जरूरी है।

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विकास संचार को महसूस करना है तो कहने सुनने से ज्यादा लोगों के बीच रहना जीना होगा।

वर्ष 1996 में ही उन्होनें मुझे पेयजल और स्वच्छता के बड़े सर्वेक्षण कार्यक्रम का हिस्सा बनाया। तब मुझे कई महीने बस्तर (तब छत्तीसगढ़ मप्र का हिस्सा था।) में रहने का अवसर मिला। दंतेवाड़ा, कोंडागांव, अबूझमाड़ में दूसरा भारत देखने समझने का मौका मिला। वही मोड़ था जिंदगी का, जब यह तय हो गया था कि मैं पत्रकारिता के पेशे में तो न टिक पाऊंगा। और विकास संचार मेरी कर्म कुंडली में स्थापित हो गया।

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इसके बाद भी निरंतर समय समय पर वे मार्गदर्शन करती रहीं। उप्पल मैम को कभी बहस करते नहीं देखा सुना, वे हमेशा संवाद-वार्तालाप करती थीं। हमारे अपने जीवन में संचार का क्या अर्थ है, यह उन्होनें प्रदर्शित किया।

जीवन के आखिरी समय तक दुनिया भर में क्या हो रहा है? समाज की चुनौतियां क्या हैं? किस चरित्र की राजनीति प्रचलन में है? वे जान और समझ रहीं थीं।

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पिछले सालभर से हम संविधान और संवैधानिक मूल्यों पर चर्चा कर रहे थे, संवाद कर रहे थे। कुछ योजनाएं भी बन रही थीं, लेकिन अब विराम लग गया है।

मेरी मूर्तिकार चली गईं।

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मुकेश कुमार-

ये एक बड़ा आघात है, वज्रपात जैसा। मेरी गुरु और मार्गदर्शक दविंदर उप्पल नहीं रहीं। मैं कह सकता हूँ कि पत्रकारिता का पहला ककहरा उन्होंने ही पढ़ाया था और अभी तक वे मेरा मार्गदर्शन करती रहती थीं। वे मेरी अभिभावक भी थीं और घर के एक सदस्य की तरह थीं। वे कोतमा की थीं, जो कि मेरे पापा का गृह नगर है। उनके भाई सुखदीप उप्पल ने ही मुझे पत्रकारिता की राह दिखाई थी। उनके दूसरे भाई जगमीत उप्पल दिल्ली में मेरा मार्गदर्शन करते रहे।

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अभी एक-डेढ़ महीने पहले ही उनका फोन आया था। उन्होंने कहा था कि चूँकि तुम्हारी रुचि रिसर्च में है इसलिए मैं उससे संबंधित कि़ताबें तुम्हें देना चाहती हूँ। मेरा कार्यक्रम भोपाल जाने का था, लेकिन फिर मैं असम चला गया और फिर इस नामुराद कोरोना-काल ने हमें घरों में कैद कर दिया। न मिलना हुआ और न ही किताबों के साथ मिलने वाला आशीर्वाद प्राप्त कर पाया।

दविंदर जी एक प्रतिबद्ध शिक्षक थीं और अपने छात्रों से अगाध प्रेम रखती थी। अपने छात्रों के लिए हमेशा सोचते रहने वाले ऐसे शिक्षक बिरले होते हैं। अपने प्रयासों से उन्होंने बहुत सारे छात्रों का जीवन बदला और उन्हें ऐसे रास्तों पर जाने से रोका जो उनके और समाज के लिए विध्वंसकारी हो सकते थे।

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शिक्षण में वे बहुत प्रयोगशील थीं और शिक्षा को व्यावहारिक ज्ञान तथा सामाजिक सरोकारों से जोड़ने के लिए प्रयासरत रहती थीं। मुझे याद है कि सागर विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान वे किस तरह में विकास पत्रकारिता से परिचित कराने के लिए गाँव ले गई थीं।

वे बहुत जुझारू और लड़ाकू महिला भी थीं। माखनलाल विश्वविद्यालय के संघीकरण के बाद घुटन भरे वातावरण में भी वे रीढ़ सीधी करके चलीं और ग़लत चीज़ों का विरोध किया। उसी संस्थान में रहते हुए कैसे लड़ना है ये उनसे सीखा जा सकता था। वे शिक्षा संस्थानों में फासीवाद से लड़ने वाली एक छापामार योद्धा की तरह थीं।

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मेरा माखनलाल से जुड़ने का फैसला उन्हें ठीक नहीं लगा था। वे उस विवि की परिस्थितियाँ और वहाँ तैनात शिकारी संघियों से परिचित थीं। बाद में मुझे एहसास हुआ कि वे पूरी तरह सही थीं।

दविंदर जी मुझे हमेशा उत्साह और ऊर्जा से भरी हुई मिलीं। फिल्मों के बारे में उनकी रुचि कभी कम नहीं हुई। बातचीत में उनका ज़िक्र न हो ऐसा हो ही नहीं सकता था। राजनीति से लेकर कम्यूनिकेशन की नई थ्योरी तक वे कभी जिज्ञासुओं की तरह तो कभी विशेषज्ञों की तरह बात करती थीं।

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शिक्षा के क्षेत्र में दविंदर जी के योगदान को उनके बहुत सारे सहयोगी और मित्र बेहतर तरीक़े से बता सकते हैं, मगर ज़रूरी है कि उनको सामने लाया जाए। इतना तो मैं कह सकता हूँ कि अगर वे सागर, इंदौर और भोपाल के बजाय दिल्ली में होती तो उनकी ख्याति कई गुना ज़्यादा होती, मगर तब शायद वे प्रयोग नहीं कर पातीं जो इन इलाक़ों में रहते हुए उन्होंने किए।
बहरहाल, दविंदर जी मेरी और उनके तमाम छात्रों की स्मृतियों में रहेंगी जिन्हें उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला है।
मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।


सौमित्र रॉय-

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खामोश रात बोलती बहुत है। कई आवाज़ें आती हैं और फिर सुबह गहरा सन्नाटा छा जाता है।

आज की एक और सुबह ऐसे ही सन्नाटे की है। देविन्दर कौर उप्पल मैडम का अवसान एक अनहद सन्नाटे की ओर ले जाता है।

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कोई दशक भर पहले की बात है। एक संस्थान के लिए मीडिया में जन सरोकार के मुद्दों पर घटती जगह को लेकर अध्ययन कर रहा था।

पत्रकारिता जगत की कुछ बड़ी हस्तियों से मिलकर उनकी राय जाननी थी। सुझाव आया कि उप्पल मैडम से मिलें।

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शांत, बेबाक और टू-द पॉइंट बात करने की उनकी क्षमता ने बड़ा प्रभावित किया। बाद में आते-जाते कई मुलाकातें हुईं, क्योंकि मुहल्ला एक और घरों का फ़ासला ज़्यादा नहीं था।

पत्रकारिता के विद्यार्थियों और मेरे पत्रकार मित्रों के लिए भी वे हमेशा मार्गदर्शक रहीं।

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कोविड की महामारी भयानक शून्य पैदा कर रही है। उप्पल मैडम का अवसान मीडिया और सिविल सोसाइटी में एक बड़े शून्य की उत्पत्ति है।

इसे कौन, कब, कैसे भर पायेगा नहीं जानता। लेकिन नुकसान बहुत बड़ा है।

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विनम्र श्रद्धांजलि और नमन।


उषा किरण-

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कोरोना का कहर निजी तौर पर हर रोज झकझोर रहा है। वक्त निर्दयी हो चला है। महज 15 दिन के अंदर ही पहले पिता का साया सिर से उठ गया, अब मातृ तुल्य शिक्षक को भी कोरोना ने छीन लिया। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल और डा हरिसिंह गौर विवि सागर के संचार और पत्रकारिता विभाग की विभागाध्यक्ष रहीं प्रो. दविन्दर कौर उप्पल मैम को भी कोरोना ने निगल लिया। 11 अप्रैल, 2021 को उनके पैर की हड्डी की सर्जरी हुई थी। इस दौरान कोरोना संक्रमित हो जाने के कारण रेड क्रॉस अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था।

उप्पल मैम के साथ मेरी अनेक स्मृतियां जुड़ी हैं। उनके जैसा अनुशासित व्यक्ति मैंने अपने जीवन में नहीं देखा। आपने विषय में पारंगत होने के बाद भी वह हमेशा स्वयं को जनसंचार की विद्यार्थी ही कहती रहीं। मैं जब भी भीपाल जाता था, तो उनसे मिलने की कोशिश जरूर करता था। जब मैं उनसे मिलने जाता तो मैम बहुत खुश होती थीं। कोर्स खत्म होने के बाद एक बार उन्होंने मुझे बुलाकर अपनी एक डॉक्यूमेंट्री की योजना बताई और मुझसे पूछा, “तुम भी चलोगे क्या?” उन्हें पता था कि मेरी रुचि फ़िल्म मेकिंग में है।

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ऐसे कई मौके आये जब उप्पल मैम की डांट भी मिली, जो कि उनका हमारे प्रति प्रेम की ही अभिव्यक्ति थी। वह हमेशा चाहती थीं कि उनके विद्यार्थी एक जिम्मेदार नागरिक बनें। ऐसे मातृ तुल्य शिक्षक का साया हमारे ऊपर से उठ जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति तो है ही, समाज और शिक्षा जगत के लिए भी अपूर्णीय क्षति है।

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