सारी किताबें झूठी हैं। वो भ्रमजाल गढ़ती हैं। ज़िंदगी से बड़ी कोई किताब नहीं।
पुस्तक मेला अकेले गया। उछलता कूदता, मेट्रो से सरसराता। घूमा, खाया-पिया और लौट आया।
पहली बार ऐसा हुआ कि कुछ नहीं ख़रीदा। हर क़िस्म की किताबें देखी-पलटीं। पर कुछ भी ख़रीदने का दिल न हुआ।
बुक फेयर स्थल के बाहर हर तरफ़ मोदी जी नज़र आये। बीजेपी का कोई अधिवेशन होने वाला है। उसका आयोजन स्थल वहीं है, उसे भव्यतम बनाया जा रहा है। ज़ाहिर है, थीम मोदी मोदी तैयार किया जा रहा है।
सच कहूँ तो मोदी परिघटना के बाद भी पढ़ने लिखने को लेकर मेरा रुझान और कम हुआ है। जिसकी डिग्री ही संदिग्ध है, वह दुनिया को तरह तरह का पाठ पढ़ा रहा है।
जाति की राजनीति के बाद धर्म की राजनीति के धुँध में पूरा देश उत्सव कर रहा है।
सबसे बड़ी किताब प्रकृति है। ईश्वरीय कृपा और भाग्य का प्रबल होना बहुत सी चीजों के लिए ज़रूरी है।
कब क्या होगा क्या नहीं होगा ये सब पूर्व निर्धारित है, ऐसा लगता है।
पचास पार का जीवन शुरू होने के बाद अब मुझे सारा जगत ही एकदम मिथ्या लगने लगा है। सारी किताबें उबासी लेती बाज़ार आई। मनुष्यता की प्रोपेगंडा हैं किताबें। मनुष्यता ऐसी नहीं है कि उस पर तनिक भी किसी क़िस्म का गर्व किया जाये। मनुष्य नामक कीड़ा बहुत स्वार्थी बहुत क्रूर और बहुत संक्रामक है। इतनी तादाद हो गई है कि धरती ही ख़तरे में है। ऐसी हरकतें हैं कि सारे ग़ैर-मनुष्य या तो ख़त्म हो गए या साँसत में हैं।
मैं अपने जीवन के फाइनल ट्रांसफॉर्मेशन से गुज़र रहा हूँ। इसके अनुभवों को लिखा बताया नहीं जा सकता। सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। भीड़ से मुझे दिक़्क़त होती है, ये समझ आ चुका है। बुक फेयर भी एक भीड़ है। किताबों की भीड़। आदमियों की भीड़। विचार की भीड़।
(स्पष्ट कर दूँ कि उपरोक्त बातें मेरे ख़ुद के अनुभव पर आधारित हैं। ज़रूरी नहीं कि आपके अनुभव ऐसे ही हों। मेरा हर चीज के प्रति ललक मोह लगाव क्षीण हो रहा है तो उसी अनुरूप मेरी बातें भी होती जा रही हैं। कृपया मुझे ख़ुद को व्यक्त करने के लिए स्पेस दें और असहमत होते हुए भी इज़्ज़त करें)
भड़ास एडिटर यशवंत की फेसबुक वॉल से..