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सुख-दुख

दिलीप मंडल जी 4 दिन विपश्यना करने के बाद कैम्प छोड़कर भाग आए!

दिलीप मंडल-

…और फिर ये हुआ कि मैं विपस्सना शिविर बीच में छोड़कर चला आया। विपस्सना का जो लोकप्रिय रूप हम भारत में देख रहे हैं वह बौद्ध विधि नहीं है। विपस्सना में बहस और चर्चा की गुंजाइश नहीं है। बिना बहस और विमर्श के बौद्ध पद्धति चल ही नहीं सकती। वहाँ बोल ही नहीं सकते। ये कुछ भी हो सकता है। पर बौद्ध पद्धति नहीं।

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मैं सोच रहा हूँ कि राहुल गांधी ने कैसे 10 दिनों तक विपश्याना की होगी। वे विपस्सना के बहुत बड़े प्रशंसक हैं। जबकि हमें अपने अंदर ही उत्तर खोजना होगा। हमारे दैनिक जीवन में। अप्प दीपो भव। रोज़ के अनुभवों में सत्य छिपा है। इस भौतिक जीवन से दूर जाना हम जैसे आम लोगों के लिए नहीं है।

अरविंद केजरीवाल बार बार विपस्सना करते हैं। क्या आपको लगता है कि विपस्सना करने से उनका मन शांत हुआ है? मुझे तो वे बहुत अशांत लगते है। हर समय उत्तेजना में रहते हैं।

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ये आरोप ग़लत है कि मैं विपस्सना पद्धति पर सवाल इसलिए खड़ा कर रहा हूँ कि इसे कोई एससी, एसटी या ओबीसी नहीं, एस.एन. गोयनका लेकर आए और ज़्यादातर वैश्य लोग ही विपस्सना सेंटर चलाते हैं। मेरी आलोचना वैचारिक और तात्त्विक है। इसे जाति से मत जोड़िए। पढ़ कर देखिए।


सत्येंद्र पी एस-

विपश्यना और ध्यान को लेकर तरह तरह की धारणाएं आती हैं। सत्य नारायण गोयनका वाली विपश्यना सबसे फेमस है। मैं भी सबसे पहले इसी माध्यम से विपश्यना से परिचित हुआ।
जब उस विपश्यना के अपने अनुभव मैंने लिखना शुरू किया तो तमाम बुद्धिस्टों की भावनाएं आहत हो गईं। मुझे ध्यान है कि कुछ को तो ब्लॉक ही करना पड़ा था। मुझे समझ मे नहीं आया कि इतनी सी आलोचना बर्दाश्त नहीं हो रही है तो कम से कम यह लोग बुद्धिस्ट नहीं हैं, अंधभक्त ही होंगे।

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मेरे तमाम परिचितों का कहना है कि विपश्यना से उनको असीमित लाभ हुआ है। जब बज्रयान में जाते हैं तो ओम मणि पद्म हूं नाम का मंत्र जुड़ जाता है। उसमें तरह तरह की कल्पनाएं करके ध्यान लगाना होता है। पता नहीं इस मंत्र से क्या कल्याण होता है और हिंदुओं के ओम हींग क्लिंग स्वाहा से इतर यह कैसे है?
हाल में दिलीप मंडल जी 4 दिन विपश्यना करने के बाद कैम्प छोड़कर भाग आए। उनका अलग ही निष्कर्ष रहा कि हम आम भौतिक जीवन छोड़कर नहीं रह सकत्ते। हालांकि गोयनका की विपश्यना में भी ऐसा कुछ नहीं कहा जाता।

विपश्यना और ध्यान को लेकर जो कुछ भी बढ़ा चढ़ाकर कहा जाता है उसकी तुलना में हकीकत में उसका परिणाम नहीं दिखता। रजनीश ध्यान के नाम पर 20वी सदी में दुकानदारी चलाने वाले सबसे बड़े बाबा हुए और आखिर में वह ड्रग्स हताशा और शीला पटेल को गरियाते गरियाते मरे। तमाम विपश्यना वालों का भी यही हाल है कि उनका घटियापन नहीं जाता, चाहे जितना ध्यान कर लें।

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खैर यह तो निहायत गलत है कि बुद्ध किसी को घर द्वार, नौकरी बिजनेस त्यागकर भीख मांगने की शिक्षा देते हैं। मुझे जहां तक समझ में आया, बुद्ध ने आसक्ति को दुखों की वजह बताया है। जिस चीज से आपकी जितनी आसक्ति होगी, उसके छूटने पर आपको उतना ही दुख होता है।

आप मुकेश अम्बानी जितने अमीर हैं तब भी आप धन से डिटैचमेंट रख सकते हैं। यह सम्भव है कि उसके प्रति आपकी आसक्ति न हो। यह भी सम्भव है कि आप अपने 20 लाख रुपये के घर के प्रति इतने आसक्त हों कि वह अगर आपके हाथ से निकल जाए तो आप सुसाइड कर लें और मुकेश अम्बानी अपनी भारत की सबसे महंगी अंतलिया ध्वस्त होने पर भी सुसाइड न करें। या यह सम्भव है कि वह नीता अंबानी के प्रति इतने आसक्त हों कि उनसे बिछड़ते ही पागल हो जाएं या देह त्याग दें। यह आसक्ति से जुड़ा मसला है। सीधे सीधे अटैचमेंट और डिटैचमेंट का मसला है।

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साफ है कि अगर आपको आसक्ति नहीं है तो चाहे जितने अमीर हैं,आप अच्छे ध्यानी हैं, अच्छे विपश्यी हैं। इसका त्याग से कोई लेना देना नहीं है। इसका कोई सेट फार्मूला नहीँ है कि आपके पास एक लाख करोड़ रुपये हैं और सारा त्यागकर आप केवल 100 करोड़ रुपये रखें तो इसका मतलब यह कि आपका धन से डिटैचमेंट हो गया।या आपके पास200 करोड़ रुपये हैं और आपने सब त्यागकर 2 करोड़ रुपये अपने पास रखे तो आपका धन से डिटैचमेंट हो गया।

यह डिटैचमेंट आप एक लाख करोड़ रुपये संपत्ति के मालिक होकर भी कर सकते हैं और एक करोड़ रुपये के मालिक होकर भी कर सकते हैं। आपको एक लाख करोड़ रुपये से भी अटैचमेंट हो सकता है और 1 करोड़ रुपये के प्रति भी इतना अटैचमेंट हो सकता है कि इससे बिछुड़ने यानी इसके डूब जाने पर आप अपना जीवन ही खत्म मान लें।

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सुखमय जीवन मध्य मार्ग में है। आपको इतनी आसक्ति भी न हो कि किसी चीज के मिलने या उसके खोने पर जीवन अर्थहींन लगे। और इतनी असक्तिविहीनता भी न हो कि भीख मांगने की नौबत रहे।

इतना सा तो मसला है। सम्भव है कि मैंने इसमें अपना व्यू घुसा दिया हो, या सम्भव है कि बुद्ध या किसी और ने यह बातें पहले ही कही हो। लेकिन सुखमय जीवन जीने का बेस यही है। आप घण्टों ध्यान में बैठकर भी मन मे किसी महिला के कपड़े उतारते रहें या किसी के खिलाफ साजिश करते रहें तो काहे का ध्यान और काहे की विपश्यना?

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मुझे तो गोयनका जी का माडल ठीक लगा, पर्फेक्ट जैसा कोई चीज है नहीं, वो बुद्ध का माडल है या नहीं इससे जरूरी की कोई दंगाई बनाने की बात नहीं करते, शांत रहकर मध्यम मार्ग मे जीवन जिया जा सकता हैं। मुझे लगता है, विपश्यना आपके अंदर को जगा देता है, अगर आप मन से अच्छे हैं तो और अच्छे होने लगते हैं, अगर कट्टर हैं तो और कट्टर, विपश्यना कर लेने का दम्भ ही विपश्यना की सीख के उलट है। -प्रदीप चौधरी

हां। गोयनका के विपश्यना में कोई ढोंग,कोई मंत्र तंत्र नहीं है। अपने ही शरीर पर सहज ध्यान लगाने को कहते हैं। यह तो डॉक्टरी टाइप मामला है कि आप अपने शरीर मे होने वाले सूक्ष्म बदलाव को देखें और जिससे तकलीफ हो वह वाली अपनी हरकत बन्द कर दें। -सत्येंद्र पी एस

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बिलकुल सहमत हूं। मैंने व्यायाम और खान-पान पर ध्यान देकर शरीर को कामलायक बना रखा है। वहीं मेरे उम्र के कयी साथी रोगों से ग्रस्त हैं। ध्यान का कोई लाभ मुझे भी नजर नहीं आया। अब सिर्फ 40 मिनट का व्यायाम करता हूँ।धन का लालच तो नहीं रहा लेकिन कभी कभी अपने खानदान और पुरखों के किस्से सुन सुनकर गर्वित होता हूं। अभी मैं अपने जीवन से संतुष्ट हूं।बस एक ही इच्छा है कि जब मरना हो तुरत फुरत मर लिया जाए। चारपाई पर हगना मूतना न हो। अपनी वसीयत खानदान भर को पढ़कर सुना दिया है कि मेरे मरने के बाद मुझे नहलाया धुलाया न जाए और न कफन में लपेटा जाए,यह भी कि मेरे शरीर को चिंता पर रखकर ही जलाया जाए। चिता पर जलकर राख होते देखना शानदार अनुभव है। जब मैंने अपने पिताजी की चिता में आग लगाया था तब तो नहीं रोया लेकिन यह बात मुझे कचोटती रही कि जिस पिता की गोद में खेला,छाती के बाल नोचे, मल-मूत्र विसर्जित किया उसको आग लगाने का जैसा कठिन कार्य मैंने कर डाला। दुनिया तमाम दुखों से भरी है फिर भी इसे छोड़ने का मन नहीं करता। -सुरेंद्र सिंह चौधरी

बेसिक बात यही है सर। आस्था/अटैचमेंट और संतुष्टि। बुद्ध ने कभी किसी भी ग्रंथ में कठोरता की बात नहीं की, वह कहते हैं प्रत्येक प्रकार की कठोरता चाहे वो दूसरो के प्रति हो या खुद के , वो भाव में हो या आचरण में , जो कष्ट दे वो हिंसा है। वो सम्यक की बात करते हैं, मध्यमार्ग संतुलन। थेरवाद ही बुद्ध की असल विचारधारा है। बाकी आज जो अंधभक्त चला रहे हैं वो बुद्ध मार्ग है ही नही। -नवेंदु भूषण

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सत्य नारायण गोयनका ने विपशाना कहां से सिखी.. संभवत थाई बुद्धिस्ट से ही। ये मान लेने में क्या बुराई है कि ये विधि संस्कृति में विदेश से आई। ओर ये कोई अकेली थोड़े ही आई है. तमाम और भी आई है। गोयनका भी और संस्थान यही बताते रहे हैं कि विपाशना .. उनकी देन है। -ललित मोहन

जिस दुख को लेकर आप जिये जा रहे हैं कि गोयनका ने कहा है कि विपश्यना उन्होंने ईजाद किया, वह तो उन्होंने कभी कही किसी भाषण में शायद कहा ही नहीं। वह बताते हैं कि भारत मे यह विलुप्त हो गया था मैंने म्यामार के मोंक से यह सीखा है और इसे भारत में ले आया। उनके सभी भाषण यू ट्यूब पर पड़े हैं।अगर कहीं उन्होंने कहा हो कि वह विपश्यना के आविष्कारक हैं तो वह पोर्शन मुझे जरूर सुनाएं। दिलीप जी के साथ भी यही खेल हुआ कि वह ये सीखकर आ गए कि भौतिक चीजें त्याग देनी है, जबकि गोयनका ने ऐसा कुछ कहा ही नहीं है। -सत्येंद्र पी एस

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1 Comment

1 Comment

  1. Kamlesh Malviya

    August 14, 2023 at 9:26 pm

    विपश्यना हर किसी के बस की बात नहीं है, खासकर अनुशासन में जो लोग बंधना नहीं चाहते हैं उनके लिए नहीं है

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