अनिल सिन्हा-
मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार दिनकर रायकर नहीं रहे. मैं नब्बे के दशक में जनसत्ता में काम करता था तो वह इंडियन एक्सप्रेस में काफी सीनियर पद पर थे और लगभग रोज मुलाक़ात होती थी.
सदैव मुस्कुराते रहते थे और लोगों की मदद करने के लिए तत्पर रहते थे. मुझे ऐसे कुछ वाकये याद आते हैं. एक बार मेरे मित्र कल्याण मुखर्जी को एक डाक्यूमेंट्री के लिए एक्सप्रेस बिल्डिंग में शूटिंग करनी थी तो उन्होंने तुरंत मदद कर दी. बाद में कल्याण ने उन्हें संपादक की छोटी सी भूमिका के लिए भी मना लिया था.
अलविदा रायकर साहब.
हरीश पाठक-
दिनकर रायकर:सक्रियता के पर्याय
अलस्सुबह मिली उस खबर पर यकीन करना मुश्किल था।कल्पना भी नहीं कर सकते हम लोग कि वे रायकर साहब अचानक स्तब्ध कर चल देंगे जो जिंदगी के हर मुकाम पर हमें सजग और सक्रिय रहने का संदेश देते थे। वे सामने मिलें या फोन पर मुझ से तो यही कहते,”तुमसे 15 साल बड़ा हूँ फिर भी देखो तुमसे ज्यादा सक्रिय हूं”।फिर बड़ी किफायत से हंसते थे।आज यही सक्रियता का पर्याय बने दिनकर रायकर अलस्सुबह अनन्त यात्रा पर चल दिये।वे कुछ दिनों से डेंगू से पीड़ित थे।डेंगू ने उनके फेफड़ों को संक्रमित कर दिया था।यही संक्रमण उनकी मौत का कारण बना।
दिनकर रायकर मूलतः अंग्रेजी के पत्रकार थे पर वे मराठी व हिंदी में भी उतने ही लोकप्रिय थे जितने अंग्रेजी में।79 साल के रायकर साहब ने 55 साल तक पत्रकारिता की जिसमें वे 16 साल तक इंडियन एक्सप्रेस में रहे।वे एक्सप्रेस में सिटी एडिटर थे।बाद के सालों में वे ‘लोकसत्ता’ के डिप्टी एडिटर रहे।यहीं से वे रिटायर भी हुए। पर रायकर रिटायर कहाँ होते हैं?वे खुद यह कहते।उन्होंने यह साबित भी किया।अपनी सहजता,सजगता व सक्रियता के चलते वे रिटायरमेंट के बाद ‘लोकमत’ समूह से जुड़ गए और अरसे तक इसके समूह संपादक रहे।
विनम्र, शालीन, मृदुभाषी और सतत सक्रिय रायकर साहब(मेरा उन्हें यही सम्बोधन था) का मुम्बई के हर भाषा के पत्रकार से आत्मीय रिश्ता था जैसे हर राजनीतिक दल में उनके मित्र थे।न भाषा कभी उनके लिए दीवार बनी,न सम्प्रदाय।यही वजह थी कि एक साल जब प्रेस क्लब की राजनीति के चतुर सुजान इस दिग्गज पत्रकार को अध्यक्ष पद पर हराने पर तुल गये तो उस चुनोती को स्वीकार कर उन्होनें अपना पैनल बनाया जिसे बीयूजे का समर्थन था और मैदान में डट गये।मैं भी इस पैनल का एक उम्मीदवार था।रायकर साहब के नेतृत्व में यह पैनल हर अखबार,मीडिया हाउस में जाता।वोट मांगता और अपना एजेंडा रखता।नतीजा यह हुआ कि उस साल यह पूरा पैनल भारी मतों से जीता।रायकर साहब गाजे-बाजे के साथ अध्यक्ष बने।
पत्रकारिता में आधी सदी पूरी करने पर जब प्रेस क्लब ने उनको सम्मानित किया तो भावुकता के चरम क्षणों में उन्होनें कहा,”यह वह जगह है जहाँ से मैं ताकत पाता हूँ।”
पर आप तो युवा पत्रकारों की ताकत थे और रहेंगे रायकर साहब।आप भाषायी दीवार से बहुत बहुत ऊपर थे।सबसे अलग।
आपको नहीं भूल सकता मुम्बई का पत्रकारीय समाज।क्यों और कैसे भूल जायेगा?आपकी सक्रियता उसे अपने होने का हर पल अहसास दिलाती रहेगी।
आपको हम नहीं कह पायेंगे अलविदा।क्या करें?