अनुराधा बैनीवाल-
पापा इज कैंसर फ्री।
फरवरी 2022, पापा मुझे दिल्ली एयरपोर्ट लेने आए। यूं मैं पापा को दिल्ली नहीं बुलाती हूँ और कैब कर लेती हूँ, लेकिन पता नहीं क्यूँ इस बार मन किया के पापा आ जाएँ, सामान भी काफी था और पापा के साथ ड्राइव करने का मन भी था।
पापा आए। वजन तो काफी सालों से उनका कम ही रहा है, कम खाते हैं और खेत में काम करते हैं, योग करते हैं तो पेट और कमर मिले रहते हैं, लेकिन इस बार कुछ ज्यादा ही कम लगा। पापा ने बताया के कुछ हफ्तों से हाजमा ठीक नहीं है, लेकिन बाकी सब एकदम ठीक है। पापा की आदत है अच्छी चीजों को बढ़ा-चढ़ा कर बताना और चिंता वाली चीजों को एकदम छोटा काट-छाँट कर। “मौज है एकदम!” पापा का तकिया कलाम समझ लें।
पापा ने एयरपोर्ट पर गाड़ी मुझे थमा दी, वो ज्यादातर ऐसा करते हैं, मैं एयरपोर्ट से गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर आ जाती हूँ और वो मुझे घर-गाँव का हाल सुनाते हैं। घर पर दो दिन हम दोनों ही थे, मौसी के बेटे की शादी थी तो माँ और बहन वहाँ गए थे। मुझे पापा के साथ गाँव में अकेले और भी मज़ा आता है, हम दोनों एक्सपेरटीमेंटल टाइप का खाना बनाते हैं, खेत में खोदा-पाड़ी करते हैं, खूब सारे हाथ के काम करते हैं, चुटकुले सुनाते हैं, खूब सारा हँसते हैं और जल्दी सो जाते हैं। मुझे लगता है के हम काफी एक जैसे हैं, या साथ होते हैं तब एक जैसे हो जाते हैं।
पापा ने मुझे अपनी सेहत की रिपोर्ट दी और धीरे-धीरे चिंता होने वाली चीजें भी सामने आई। पापा कभी अंग्रेजी दवाइयाँ नहीं खाते या बिल्कुल कम खाते हैं, यूं वो बीमार भी नहीं होते तो कभी खास जरूरत भी नहीं पड़ती। लेकिन डॉक्टर के पास जाने से उन्हे कोई ऐलर्जी जैसे है। उन्हे अपने शरीर पर पूरा भरोसा है और वो कहते हैं के उन्हे अपने शरीर को खुद ठीक करना आता है। वो एकदम नियम में रहते हैं, बहुत कम खाते हैं (दिन में एक रोटी वो भी गेहूं की नहीं, फल, सब्जियां (ज्यादातर घर की लगी ऑर्गैनिक), अंकुरित दालें, ग्रीन जूस, आंवला, शहद, घर का दूध, दही, घी और भी हद दर्जे का हेल्थी समझा जाने वाला खाना), खूब योग, प्राणायाम करते हैं, सैर करते हैं। अगर उन्हे कोई डॉक्टर के पास लेकर जा सकता है तो वो है मेरी जिद्द।
हम डॉक्टर के पास गए, कुछ टेस्टस हुए। खून (hb) कम था। पापा ने कहा क्योंकि हाजमा खराब है इसलिए खाना नहीं लग रहा और खून नहीं बन रहा। उनके पास हमेशा कोई लॉजिक रहता है! खैर हाजमा ठीक करने की दवाई खाई गई और हाजमा ठीक हो गया। खून बढ़ाने की तरकीबें की गई, लेकिन वो बहुत ही स्लो स्पीड में बढ़ रहा था। हमारे परिवार में जो डॉक्टर हैं उनकी सलाह ली गई, एन्डोकोस्पी कराने की सलाह मिली। लेकिन पापा साफ मुकर गए, “मुझे कुछ नहीं हुआ है!” “मैं डॉक्टर के पास नहीं जाऊंगा और मेरे साथ धक्का करना बंद करो।”
थकान बढ़ती गई। अप्रैल में पापा की तबीयत अचानक बिगड़ गई और उन्हे लगा के वो बेहोश हो जाएंगे, मैं और बहन घर पर नहीं थे, पापा सुबह छः बजे गाड़ी चला कर माँ के साथ अस्पताल चले गए और भर्ती हो गए। जो अस्पताल उन्हे गूगल पर मिला और जिसके स्टार्स ज्यादा थे। HB चार हो गया था। खून चढ़ा। सारे टेस्ट हुए। इस बार अल्ट्रा साउन्ड, सीटी स्कैन सब। खून की कमी के अलावा सब रेपोर्ट्स एकदम नॉर्मल थी। चार दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिल गई, जो बड़ी बीमारी का डर था वो चला गया। सब को आराम था। लेकिन थकान नहीं गई।
खाने-पीने पर और ध्यान देना शुरू हुआ। व्हीट ग्रास का जूस पिया जाने लगा। खून की कमी के साथ आया डिप्रेशन और चिड़ और चिंता और ऐंगज़ाइइटी। जून में मैं लंदन आ गई। जुलाई के शुरू में माँ की हालत अचानक से बिगड़ गई, और मुझे और बहन को फटाफट सब छोड़ छाड़ कर आई.सी.यू पहुंचना पड़ा। इसके लिए हम तैयार नहीं थे। माँ चार दिन कोमा में रही, लगभग महीना अस्पताल में, डॉक्टर नहीं बता पाया उन्हे क्या हुआ था, इसके अलावा के शायद दिमाग में कोई वायरस चला गया था। सारा ध्यान माँ की तरफ चला गया, पापा का वजन और खून दोनों कम होते गए। घर घर जैसा नहीं रहा।
पापा को पहली बार एंटी-डेपरेससेन्ट खिलाई गई। क्यूंकी रेपोर्ट्स ठीक थी तो किसी को शारीरिक बीमारी की चिंता नहीं थी, दिमागी दवाइयाँ ली जाने लगी। चिड़, गुस्सा, निराशा सब घर में घर कर गई। घर से भाग जाने का मन करने लगा। पापा ठीक होना चाहते थे लेकिन क्या बीमारी थी ये नहीं पता था।
सितंबर में मुझे वापस जाना था। मैं दिल्ली में थी। पापा से लड़ झगड़ कर आई थी। मन इतना भारी था के हर बात पर रोना आता था। लंदन की टिकट करवाने से पहले मैं एक बार फिर से सारे चेक-अप करा लेना चाहती थी, शरीर के भी, दिमाग के भी। मैंने डॉक्टर खोजने शुरू किए। लोगों से बात करनी शुरू की। किसी से भी मिलने पर टॉपिक होता था माँ-बाप की सेहत, लगा के शायद इस उम्र के पड़ाव पर हैं शायद यही नॉर्मल है।
मैं गाँव वापस गई, पापा का वजन पचास रह गया था और खून छः। मैंने रोहतक में डॉक्टर की अपॉइन्ट्मन्ट ली, बड़े अस्पताल में बड़ा डॉक्टर, ताकि एक ही छत के नीचे सब टेस्ट हो जाएँ और सब डॉक्टर आपस में बातचीत कर सकें, और पता लगा सकें के क्या हुआ है। ज्यादा समय नहीं लगा, अनुभवी गैस्ट्रो डॉक्टर ने पेट पर हाथ लगा कर, पानी पिला कर पेट की मूवमेंट देख कर बता दिया के बीमारी छोटी नहीं होगी। उसी समय भर्ती कर लिया गया, खून चढ़ा, एक के बाद एक टेस्ट हुए, अल्ट्रा साउन्ड, सीटी, PET.. सब टेस्ट कन्फर्म कर रहे थे के बीमारी बड़ी है। मैं वर्स्ट के लिए खुद को तैयार कर रही थी।
PET की रिपोर्ट ने कैंसर कन्फर्म कर दिया। बड़े डॉक्टर ने मुझ से पूछा के मेरे अलावा कौन है। मुझे सवाल समझ नहीं आया। उन्होंने पूछा के कोई भाई, पति या चाचा ताऊ? उन्हे कोई मर्द चाहिए था बात करने को? उन्हे नहीं यकीन था के मैं ये खबर सुन कर आगे कुछ भी कर पाऊँगी, या कुछ भी कर पाने की मेरी हैसियत भी है। कैसा इलाज होगा, कहाँ होगा, कितने पैसे वाला होगा, कब होगा, ये सब बड़े सवाल हैं और किसी मर्द के पास ही इन सवालों के जवाब हो सकते हैं। मेरे पापा का इलाज कहाँ या कैसे होगा ये मैं नहीं तय कर पाऊँगी।
जब मैंने मेरी सहेली नवकिरण को ये बताया तो उसने कहा, “मैं आ रही हूँ और पूछना डॉक्टर से के कितने मर्द चाहियें उनको।”
थैंक यू नवू, देट मेड मी स्माइल इन ए वेरी हार्ड टाइम।
जिस दिन कैंसर कन्फर्म हुआ उस रात मैं हमारे फॅमिली फ्रेंड कैंसर डिपार्ट्मन्ट के हेड डॉक्टर के घर रुकी। उन्होंने मुझे पीडीएफ़ प्रेज़न्टैशन दे कर बीमारी के बारे में समझाया और बताया के इलाज़ करवाने का ज्यादा फायदा नहीं है, कैंसर फैल चुका है और उनके पास ज्यादा समय नहीं है, बस छः महीने या साल बमुश्किल। मैं रात उनके घर रुकी, पापा अस्पताल में थे, उन्हे नहीं पता था के उन्हे कैंसर है, वो ठीक होकर घर जाने का इंतज़ार कर रहे थे। मैं नरक में थी।
मैंने अपने फोन में उन सब लोगों को फोन लगाना शुरू किया जो या तो मुझे सुला सकते थे या कोई जादुई इलाज बता सकते थे। फोन करते-करते मैंने अभिषेक शुक्ला, मेरे उर्दू उस्ताद को फोन किया, रात बारह या एक बजे.. विडिओ काल! उन्होंने तुरंत मैसेज किया, “सब ठीक है?” मैंने कहा नहीं, उनका फोन आया, मैंने सब उन्हे बताया। उन्होंने कहा के मैं चिंता ना करूं, वो बड़े अच्छे ऑनकोलॉजिस्ट को जानते हैं और सब ठीक हो जाएगा। उनसे बात करके लगा के जैसे शायद सच में ठीक हो जाएगा सब। कुछ देर सांस आई। लेकिन नींद नहीं आई। मुझे पापा को बताना था। बाइआप्सी की रिपोर्ट आनी अभी बाकी थी। चमत्कार का इंतज़ार था।
सुबह छः बजे मैं अस्पताल पहुँच गई। पापा अच्छे मूड में थे। अपने बचपन की कहानियाँ सुनाने लगे। उनके दादी-दादी की बाते, गाँव के किस्से, जीवन, पढ़ाई, नौकरी सब.. मैंने उन्हे नहीं बताया कुछ भी। अभिषेक जी ने मुझे डॉ हर्षवर्धन अत्रेय का नंबर दिया, मैंने उन्हे मैसेज किया और नौ बजे उनका कॉल मुझे आ गया। और वहाँ से ठीक होने की शुरुआत हुई। डॉ हर्षवर्धन ने मुझे ढेर सारी हिम्मत वाली साँसे दी और बताया कैसे कैंसर का इलाज हर तीन चार महीने में ईवाल्व हो रहा है, रोज नई-नई खोज हो रहीं हैं और कीमोथेरपी को लेकर जो आम धारणाएँ हैं वो कितनी गलत हैं। उन्होंने पापा से विडिओ काल पर बात की। उन्होंने कहा के कैसे हर इंसान का शरीर अलग होता है, इलाज को झेल पाने की क्षमता भी अलग अलग होती हैं, अगर परिवार का साथ है और उनकी इच्छा है तो सब ठीक हो सकता है चाहे कैसी भी बीमारी हो। जाने ये कितना सच था लेकिन उस समय मेरे लिए यही सुनना जरूरी था, मेरी सांस फिर से चलने लगी।
बाइआप्सी की रिपोर्ट ने कैंसर कन्फर्म कर दिया। मैंने पापा को बता दिया। पापा हंस रहे थे। पापा जैसे मौज मे थे। उनके लिए जीना और जाना जैसे एक ही था।
गुड़गाँव के फोर्टिस अस्पताल में डॉ विनोद रैना और उनकी टीम के अन्डर इलाज शुरू हो गया। हमने पापा का साथ सारा समय बिताना शुरू कर दिया, खूब सारा ध्यान, नाच-गाना, अच्छा खाना, संगीत, गार्ड्निंग और खूब सारी हंसी। हमने किसी रिश्तेदार को नहीं बताया। कोई “हाय ये क्या हो गया!” कहने वाला नहीं था हमारे आस पास। हमारे आस पास थे कुछ बेहद नजदीकी दोस्त, जो बर्तन धोने से लेकर टेस्ट रिपोर्ट लेकर आने में हमारे साथ थे। हमें खूब सारी मदद की जरूरत थी। उन लोगों की जरूरत थी तो भावनात्मक रूप से अटैच्ट नहीं थे। डायग्नोज़ होते ही जगदीप ने जर्मन शेफर्ड पप्पी भिजवा दिया। घर में जीवन आ गया। दोस्त महीनों महीनों घर पर रह कर, काम करवा कर गए। कीमो, टेस्टस, कीमो, टेस्टस, कीमो, टेस्टस..
फरवरी 2023 तक ये सब चला। इन्जेक्शन जो ढाई हजार का दिल्ली के मेडिकल शॉपस में मिलता था, वो अंत तक आते-आते पाँच सौ रुपए का मिलने लगा, इतनी जान पहचान और जुगाड़ निकल आए। डॉ हर्षवर्धन पूरा समय फोन पर उपलब्ध रहे, पापा से बात करते रहे, हमे गाइड करते हैं, हिम्मत देते रहे। उन्होंने कोई फीस नहीं ली।
फरवरी में पापा कैंसर फ्री थे। कीमो की वजह से एक पेट की आंत सिकुड़ गई थी, जिसका इलाज सर्जरी बताया गया, जिससे पापा मुकर गए और खुद को ठीक करने में फिर जुट गए। ठीक भी हो गए। एक-दो महीने बाद कीमो से सिडेयफफएक्टस भी खत्म हो गया, पापा का वजन बढ़ गया, खून बढ़ गया, थकान चली गई। पापा सैर करने जाने लगे। जून में खुद ड्राइव करके माँ के साथ हिमाचल चले गए और चार महीने वहीं रहे, खूब सारे पहाड़ चढ़े, खूब सारा नाचे, खूब सारा हँसे। खून बढ़ने के साथ डिप्रेशन भी चला गया, गुस्सा भी, चिड़ भी, टेंशन भी।
आज फॉलोअप चेकअप में PET स्कैन की रिपोर्ट में एकदम कैंसर फ्री हैं।
किन कारणों से कैंसर होता है इसका पता अभी तक इंसान नहीं लगा पाया है। लेकिन इसको हराना मुमकिन है। अगर आप या आपके आस पास कोई कैंसर से लड़ाई लड़ रहा है तो आप जान लें के ठीक होना मुमकिन है, और उससे भी ज्यादा मुमकिन है आपके समय को खुशहाल बनाना। जितना भी समय आपके पास है उसको नाचते-गाते, हँसते-रोते, पूरा जीते, बिताना।
शुक्रिया अभिषेक जी, हर्षवर्धन अत्रे, बाबूषा, अखिल, नवकिरण, सुमेर, काफिर, मौसी बबली, मौसी राजेश, सुमेर राठोर, जगदीप सिद्धू, मुकेश, नसीर जीजू, डॉ विनोद, डॉ गोगी, डॉ फराज़, राजू, डॉ अमन, हरविंदर मलिक, डॉ पंकज गर्ग, डॉ प्रवेश शर्मा और सब जिन्होंने प्रार्थनाओं में याद रखा।
D. A. Ansari
August 13, 2023 at 4:55 pm
शुक्रिया अभिषेक जी, हर्षवर्धन अत्रे, बाबूषा, अखिल, नवकिरण, सुमेर, (काफिर-?)