अजय कुमार, लखनऊ
राजनैतिक रैलियों में जुट रही भीड़ से इस बात का अंदाजा नहीं लगाना चाहिए कि मतदाता का रुख किधर जा रहा है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब सभी दलों की रैलियों में भीड़ दिखाई दे रही है. ऐसा ही नजारा 2019 के लोकसभा चुनाव के समय भी देखने को मिला था. जब प्रियंका वाड्रा ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस की कमान बतौर प्रभारी संभाली थी.
इसी तरह से 2017 के विधान सभा चुनाव में भी अखिलेश और राहुल गांधी की संयुक्त रैलियों में भी अपार जनसमूह उमड़ता था. 2017 का विधान सभा चुनाव कांग्रेस और सपा ने मिलकर लड़ा था, लेकिन जीत का का स्वाद बीजेपी ने चखा. बीजेपी ने 300 से अधिक सीटें हासिल की थीं.
खैर, बसपा की तो बात ही निराली है, बसपा की रैलियां तो हमेशा से ही एतिहासिक रहती हैं. बसपा सुप्रीमों मायावती के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि वह एक मात्र ऐसी नेत्री हैं जिनके लिए मैदान छोटा पड़ जाता है. मायावती जैसी रैलियों का नजारा कहीं और नहीं, सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली में देखने को मिलता है. इसलिए किसी की रैली में उमड़ी भीड़ के आधार पर किसी पार्टी या नेता की जीत का दावा करना बेईमानी है.
यहां एक वाकया याद आ रहा है. बिहार में विधान सभा चुनाव चल रहे थे. सभी दल वोटरों को लुभाने में लगे थे. रैलियों में भीड़ भी दिखाई दे रही थी. लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री और पुनः सीएम पद के प्रबल दावेदार माने जा रहे सुशासन बाबू नीतिश कुमार हैरान-परेशान थे,उनकी रैलियों से भीड़ न जाने कहां गायब हो गई थी. नीतिश की हाताशा का आलम यह था कि वह मान चुके थे कि सत्ता उनके हाथ से फिसल कर राष्ट्रीय जनता दल की तरह खिसक रही है. लेकिन जब वोटिंग मशीनों से नतीजे निकले तो राजनैतिक पंडित ही नहीं नीतिश कुमार भी आश्चर्यचकित रह गए. तब इस बात का अहसास हुआ कि नीतिश कुमार की जीत में महिला वोटरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. नीतिश सरकार द्वारा प्रदेश में शराब बंदी किए जाने से महिलाएं नीतिश सरकार की मुरीद हो गई थीं. इसके अलावा कानून व्यवस्था में सुधार भी एक अहम मुद्दा था.
बिहार की महिला वोटरों को लगता था कि यदि बिहार में राष्ट्रीय जनता दल की सरकार बन जाएगी तो बिहार में पुनः जंगलराज कायम हो जाएगा. माफिया खुले आम तांडव करने लगेंगे. इसी प्रकार का नजारा पश्चिम बंगला में देखने को मिला, जहां बीजेपी की रैलियों में जनसैलाब उमड़ रहा था. ऐसा लग रहा था कि ममता बनर्जी की सत्ता से विदाई तय है. बीजेपी की रैलियों में जनता की मोदी के प्रति दिवानगी देखने लायक थी. पश्चिम बंगाल के कोलकाता में ब्रिगेड मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली में उमड़े जनसैलाब की तस्वीरों को कौन भूल सकता है, क्योंकि पिछले कुछ दशकों में यहां किसी भी नेता को सुनने के लिए इतने लोगों की भीड़ एक साथ इकट्ठी नहीं हुई थी. इस मैदान के बारे में यह कहा जाता रहा है कि केवल कम्युनिस्टों की रैली में ही यह पूरा भर जाता रहा है. टीएमसी की रैली में भी इस मैदान में काफी भीड़ जमा होती थी, पर बीजेपी की यहां हुई रैली में जुटी भीड़ मायने रखती थी, इस रैली के जरिए बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में अपनी स्थिति को दिखाया था.
भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली के लिए 10 लाख की भीड़ जुटाने का टारगेट रखा था. इसके लिए बीजेपी ने बंगाल के हर शहर हर गांव से कार्यकर्ताओं को कोलकाता पहुंचने का आदेश दिया था. दरअसल भारतीय जनता पार्टी के लिए यह रैली बंगाल में प्रतिष्ठा का विषय बन गई थी. इसी वजह से भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं ने बंगाल के नेताओं को साफ निर्देश दिया था किसी भी कीमत पर इस रैली को सफल बनाना है. कैलाश विजयवर्गीय इस रैली की देखरेख खुद कर रहे थे. उन्हीं के नेतृत्व में बंगाल के लोकल बीजेपी नेताओं ने कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में इतनी बड़ी संख्या में जनसैलाब जुटाया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में तीन रैलियां की हैं, बंगाल विधान सभा चुनाव से पहले मोदी ने यहां 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में रैली की थी. वह भी भीड़ के हिसाब से ऐतिहासिक ही थी.लेकिन जब नतीजे आए तो बीजेपी चारो खाने चित नजर आई. ममता फिर से सीएम बनी.
दरअसल, एक समय था जब किसी दल या नेता की रैलियों में जुटने वाली भीड़ से अंदाजा लगा लिया जाता था कि किस दल का पलड़ा हल्का या भारी है. इसके पीछे की मुख्य वजह यही थी कि तब मतदाता या जनता अपनी मर्जी से अपने चहेते नेताओं के भाषण सुनने और उसे देखने आया करते थे,लेकिन धीरे-धीरे भीड़ जुटाने के लिए रणनीति बनने लगीं. लोगों को खाने-पीने और पैसे का लालच देकर रैली स्थल पर बुलाया जाने लगा. इसीलिए कई बार भीड़ में जो चेहरे एक पार्टी के रैली में दिखाई देते थे, वह ही चेहरे दूसरी पार्टी की रैली में भी दिख जाते थे.
ज्यादा पीछे नहीं जाकर 2014 एवं 2019 के लोकसभा और 2017 के विधान सभा के चुनावों की बात की जाए तो इन तीनों ही चुनावों में नेता और दल भीड़ जुटाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाते दिख जाते थे. इस बार भी यही सब हो रहा है. पार्टियां और उनके रणनीतिकार बाकायदा दावा करते हैं कि अमुक नेता की रैली में इतने लाख की भीड़ जुटेगी. जुटती भी है. लेकिन इसमें कौन किस पार्टी को वोट देगा, कोई नहीं जानता है.
कुल मिलाकर अब रैलियों की भीड़ से किसी दल या नेता की लोकप्रियता का पैमाना नहीं होता है. न इसके आधार पर किसी वोटर को यह धारणा तय कर लेना चाहिए कि किसकी सरकार बनने वाली है. इसके लिए किसी नतीजे पर पहुंचने की बजाए नतीजों का इंतजार करना ही बेहतर है.