दिनेश श्रीनेत-
लोकप्रिय संस्कृति और बहुत से शिक्षित लोगों की भाषा में भी जेंडर के प्रति सवेदनहीनता मुझे अक्सर हैरान करती है। विधवा, विधवा विलाप, वेश्या, हिजड़ा, नामर्द जैसे शब्द, चूड़ियां पहनना, पल्लू में मुंह छिपाना और हाल की पीढ़ी की अंगरेजी बोलचाल में Mama’s Boy जैसे शब्द कहीं न कहीं एक जेंडर के बरअक्स दूसरे जेंडर को हीन दिखाते हैं।
यह हमारे अवचेतन में दृढ़ता से इस सोच को स्थापित करता है कि समाज में एक जेंडर का वर्चस्व और श्रेष्ठताबोध मौजूद है, बाकी सदैव दूसरे या तीसरे दर्जे पर रहेंगे। इन शब्दों का इस्तेमाल किसी को अपमानित करने के लिए किया जाता है।
यह पूरी शब्दावली ही एक अलोकतांत्रिक हिंसा से भरी हुई है, लेकिन न सिर्फ हमें ये शब्द लोकप्रिय फिल्मों में तालियां बजाने वाले संवादों में मिलते हैं बल्कि हिंदी साहित्य में भी इस शब्दावली का खूब इस्तेमाल होता है, कई बार प्रगतिशील कहे जाने वाले लेखकों कवियों की रचनाओं में भी। पिछली पीढ़ी के कई वामपंथी चिंतकों ने तो बाकायदा थर्ड जेंडर और फेमिनिज़्म को खारिज कर रखा था।
Anuradha Gupta ने विष्णु खरे का संदर्भ लेते हुए इस प्रवृति की तरफ इशारा किया है, इससे पहले मुझे राजकमल चौधरी और धूमिल में भी यह दिक्कत नज़र आई है। यहां तक कि बहुत से कथाकारों की भाषा को यदि डिको़ड किया जाए तो यह समझ में आता है कि जेंडर के प्रति सामान्य समझ का होना तो दूर वे स्पष्ट रूप से स्त्रीद्वेषी या misogynist नज़र आते है। भाषा में इस प्रवृति का बैठा रह जाना, इसे जाने-अनजाने प्रोत्साहित करना एक ही सोसाइटी में विभिन्न जेंडर के बीच की खाई को और गहरा करना है।
जब हमारे बच्चे, हमारे विद्यार्थी इस भाषा को बिना किसी अतिरिक्त टिप्पणी के पढ़ते हैं तो अनचाहे इस अलगाव को आत्मसात कर लेते हैं। जब हमारे आलोचक, समाजिक चिंतक ऐसी शब्दावली को अपना हथियार बनाते हैं तो वे उन लोगों से कहीं भी अलग नहीं होते जो स्त्री को अपमानित करने वाली गालियां देते हैं। इससे मुझे एक अवांतर प्रसंग याद आ गया जब एक तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकार ने अपने ब्लॉग के जरिए सिनेमा में गालियों के इस्तेमाल को समर्थन देने के लिए बाकायदा एक अभियान चलाया था।
भाषा के इस खेल की सामाजिकता बहुत गहरी है। यह भाषा इस तरह से लकीरें खींचती है कि यदि दूसरे किसी भी जेंडर से किसी ने खुद को आइडेंटिफाई भी कर लिया तो वह अपराधबोध से भर जाता है। भाषा की यह कहानी दरअसल यहां से शुरू होकर बहुत दूर तक जाती है। यह ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ और ‘Boys don’t cry’जैसे फ्रेज़ तक जाती है। यह वीरता, हिंसा, युद्ध जैसे भावों को पुरुष से और कोमलता, विनम्रता और करुणा को स्त्री से जोड़कर देखती है, जबकि दोनों ही गलत हैं।
हिंदी में यह समस्या और गहरी हो जाती है, जहां क्रिया में ही स्त्री और पुरुष के बीच विभेद है। मुझे नहीं पता इन दिनों कैसी भाषा इस्तेमाल की जाती है, मगर जिस दौर में मैंने पाठ्यपुस्तकें पढ़ी थीं उसमें सारा संबोधन एक लड़के के प्रति होता था- यानी कि “तुम जब यह प्रयोग करते हो”, “जब तुम आगे की कक्षाओं में पढ़ोगे”, “तुम इस बारे में क्या जानते हो”। यह हमेशा एक लड़की के अवचेतन में इस बात को मजबूती से बैठा देता है कि वह द्वितीय है, गौण है, प्रमुख तो वह बालक है जिसको इस पाठ्य पुस्तक का लेखक संबोधित कर रहा है।
मुझे लगता है कि न सिर्फ ऐसी भाषा के प्रयोग को हतोत्साहित किया जाना चाहिए बल्कि जहां मजबूरी में ऐसी भाषा में लिखे साहित्य को पढ़ाया जाए वहां पर डिस्क्लेमर या प्रश्नचिह्न जरूर लगाया जाना चाहिए। ताकि विद्यार्थी भाषा में जेंडर के प्रति संवेदनशील हो सकें और तार्किक नजरिया विकसित कर सकें। हालांकि मुझे नहीं लगता कि हमारे हिंदी के आलोचकों ने भी कभी साहित्य भाषा और जेंडर संवेदनशीलता पर ऐसा कोई विमर्श आगे बढ़ाया है।
मुझे हिंदी पट्टी के ऐसे बौद्धिक लोग नापसंद हैं या कम से कम उनकी यह बात नापसंद है- जब वे बिना किसी परिप्रेक्ष्य के स्थानीय बोली, अपने इलाके, क्षेत्रीय संस्कृति, पूर्वांचली, पहाड़ी या बिहारी संस्कृति का गुणगान करने में लग जाते हैं। मुझे हमेशा लगता है कि यह न सिर्फ परोक्ष रूप से क्षेत्रवाद को बढ़ावा देता है बल्कि लोगों के बीच फ़र्क की बारीक सी रेखा खींचने में मदद करता है। वैसे भी अपनी ही चीजों पर गर्व करते रहने को बहुत विकसित मानसिकता नहीं माना जा सकता।
और कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि गर्व करने के लिए हिंदी पट्टी के पास रह क्या गया है? घिसे-पिटे रीति-रिवाज़, खत्म होती भाषा या अप्रासंगिक हो चुके रहन-सहन के तरीके…बस। जो लोग अपनी लोक-संस्कृति पर गर्व जताते हैं, उनके यहां भी शादियों में डीजे पर पंजाबी या हरियाणवी गीत ही बजते हैं। हिंदी पट्टी के ये बुद्धिजीवी अपनी लोक संस्कृति की बात तो करते हैं मगर तेजी से बढ़ती अपसंस्कृति पर चुप्पी साध जाते हैं। मंदिरों में होने वाले भजन तो कब के नरेंद्र चंचल जैसे लोगों की वजह से फिल्मी गीतों की भेंट चढ़ गए। किसी जमाने में भोजपुरी में अश्लील गीतों को स्थापित करने वाले बालेश्वर यादव को प्रदेश सरकार सम्मान देती है। भोजपुरी सिनेमा की वजह से आज पूर्वांचल की गलियों, आटो, बसों और शादियों में घनघोर अश्लील गाने बजते हैं और उसी पूर्वांचल की संस्कृति पर गर्व करने वालों के परिवारों की स्त्रियां हवा में तैरती अश्लीलता के बीच खुद को समेटे दुनिया जहान के काम पर निकलती हैं।
जिस पूर्वांचल को मैं जानता हूँ, वहां के गांवों, कसबों, शहरों का समाज घनघोर जातिवादी और पितृसत्तात्मक नजर आता है। मैं पाता हूँ कि इन इलाकों में बसने वाले ज्यादातर लोग सभ्य नागरिक होने की चेतना से कोसों दूर हैं। मेलों और शादियों में मर्दों के मनोरंजन के लिए छोटे बच्चों की मौजदगी में अश्लील नाच होते हैं। बंदूकों और बड़ी गाड़ियों से शक्ति का प्रदर्शन किया जाता है। अधिकतर लोग कर्मकांडी और पाखंडी हैं। औरतों के प्रति सामंती दृष्टिकोण है। सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में एक-दूसरे की जाति देखकर बात की जाती है। घरों में साल में कई बार लाउडस्पीकर पर बेसुरी आवाजों में कीर्तन होते हैं और लोग अपने बेटों के विवाह में ज्यादा से ज्यादा दहेज बटोरने में लगे रहते हैं। क्या इन्हीं सब पर हम गर्व करना चाहते हैं?
बौद्धिक लोग जब क्षेत्रीय संस्कृति पर अभिमान की बात करते हैं तो वह किस समाज के बारे में बात करना चाहते हैं? उनका मंतव्य क्या है? कभी इस पर चर्चा नहीं होती। यदि हम दूसरी संस्कृति को अपने जीवन में जगह नहीं दे पा रहे हैं तो इसे हमारी सांस्कृतिक चेतना की विपन्नता ही कहा जाएगा। दुनिया में संपर्क के साधन जिस तेजी से बढ़ रहे हैं हम जिस तरह से भिन्न संस्कृति के लोगों से मिलते हैं, उनके साथ संवाद करते हैं, क्या खुद में सिमटे रहने को किसी भी तरह से उचित ठहराया जा सकता है? बंगाल ने ब्रिटिश संस्कृति से तालमेल बिठाया और उनके यहां अंतरर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिभाएं सामने आईं। क्यों एक उत्तर प्रदेश का व्यक्ति राजस्थान के मांगनिहार ब्रदर्स के गीतों को नहीं सराह सकता? या फिर बिहार के लोग पहाड़ी लोक संगीत क्यों नहीं सुन सकते?
जाहिर है यह निजी पसंद नापसंद का मामला है, मगर हमें अपने दरवाजे कम से कम खोलकर रखने चाहिए। हिंदी पट्टी के लोगों को अपनी संस्कृति पर झूठा गर्व करने की बजाय दूसरों की संस्कृति को सम्मान देने का चलन विकसित करना चाहिए। जब दूसरे की संस्कृति को सम्मान देंगे तो अपनी संस्कृति को सम्मान देना खुद-ब-खुद आ जाएगा। मराठी या बंगाली समाज के मुकाबले हिंदी क्षेत्रों में नृत्य, संगीत या नाटक के प्रति हिकारत का भाव है। बचपन में मैं देखता था कि गोरखपुर के लोग बंगाली या ईसाई लोगों का मजाक उड़ाया करते थे और उनके प्रति असहयोग की भावना रखते थे। जबकि दोनों ही समुदायों का इस शहर के सांस्कृति विकास में गहरा योगदान रहा है।
यह अच्छा है कि उत्तर भारत की नई पीढ़ी अपनी क्षेत्रीयता के झूठे अहंकार और जकड़बंदी से दूर है। ज्यादातर मिडिल क्लास फैमिली के बच्चे अपना शहर छोड़कर पूणे, चेन्नई, मुंबई, पढ़ने जा रहे हैं और वहीं पर नौकरियां कर रहे हैं। जिस मल्टीनेशनल कंपनी में वे काम करते हैं वहां बिहार के लड़के के बगल की सीट पर महाराष्ट्र की लड़की और उसके बदल में आंध्र का लड़का और उसके बगल में बंगाली या नार्थ ईस्ट की लड़की बैठे होते हैं। जब उनके बीच संवाद होता है तो यह समझ में आता है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दोनों की भाषा और खान-पान अलग है, अंततः दोनों को ही नेटफ्लिक्स पर ‘मनी हेस्ट’ सिरीज पसंद है। दोनों एक जैसे चुटकुलों पर हँस सकते हैं। दोनों एक-दूसरे के खाने का स्वाद ले सकते हैं।
नई संस्कृति में इस उदारता के लिए जगह बनानी होगी। ऐसा क्यों है कि हिंदी पट्टी के लोग अब तक देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले सम्मानजनक स्थिति नहीं हासिल कर सके हैं? कहीं न कहीं उनका अपने पुराने तौर-तरीके से चिपके रहना है। वे अपने रहन-सहन, आचार-व्यवहार और सोच में प्रगतिशील नहीं हैं। नई चीजों और नए लोगों के प्रति संदेह रखते हैं। वे अवसरवादी हैं। और हमारे बुद्धिजीवी किसी गोष्ठी में कहते पाए जाते हैं, मुझे गर्व है कि मैं फलां जगह आता हूँ। माफ कीजिए, मुझे गर्व करने लायक कोई बात नज़र नहीं आती। यदि गर्व कहना है तो पहले अपने समाज को इस लायक बनाइए कि उसकी सराहना खुद घूम-घूमकर न करनी पड़े। साथ ही जिन्हें हम विचारक, चिंतक मानते हैं, जिनकी बातों से सोसाइटी में ओपनियन बनती है, उन्हें अपने इस ‘क्षेत्रवाद’ से बाहर आना होगा।
पाश ने लिखा था-
जब भी कोई समूचे भारत की
‘राष्ट्रीय एकता’ की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है —
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ
मैं यहां पर ‘समूचे भारत की राष्ट्रीय एकता’ की जगह ‘हमारे क्षेत्र की संस्कृति’ लिखना चाहूँगा। बाकी टोपियां उछालनी जरूरी हैं…
जब मैंने हिंदी पट्टी की सांस्कृतिक विपन्नता और उनके झूठे दर्प पर पिछली पोस्ट लिखी तो कुछ ऐसी प्रतिक्रियाएं आईं, जिससे मुझे लगा कि अलग से कुछ बातों को स्पष्ट किया जाना जरूरी है। मेरी पिछली पोस्ट की भाषा में किंचित तीखापन और उलाहना था। जब मैं झूठा दर्प कहता हूँ तो मेरा आशय यही होता है कि आप अपनी सांस्कृति जड़ों के विकृत और बाजारू होने की तरफ आँखें मूंदे हुए हैं और ‘संस्कृति’ शब्द को एक रेटॉरिक की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे इन दिनों ‘हिंदू संस्कृति’ या ‘भारतीय संस्कृति’ की गहराई में गए बिना उसे एक जुमले की तरह कहीं भी इस्तेमाल कर दिया जाता है।
अगर अतीत का ज्ञान हमारे भविष्य के लिए रोशनी नहीं बनता है तो उसे छोड़कर आगे बढ़ जाना ही बेहतर है। यूरोप का पुनर्जागरण काल इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है। उन्होंने अपने अतीत से प्रेरणा ली मगर अतीत की तरफ लौटे नहीं। बल्कि ज्ञान की शाखाओं का उत्तरोत्तर विकास करते गए और निःसंदेह पश्चिम की संस्कृति इस धरती की सबसे प्रभावशाली संस्कृति साबित हुई, इस बात को हमें ईमानदारी से स्वीकार कर लेना चाहिए।
वापस अपनी सांस्कृतिक जड़ों की बात पर लौटते हैं- तो हिंदी पट्टी में हमने जो कुछ भी अच्छा था वो सब छोड़ दिया। पिछली पोस्ट पर कुछ लोगों ने दक्षिण भारत का उदाहरण दिया तो यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि दोनों ही संस्कृतियों में जमीन-आसमान का फर्क है। दक्षिण भारतीयों से हमें सीखना चाहिए कि अपनी भाषा को हेय समझे बिना अंगरेजी को कैसे स्वीकारा जा सकता है और अपनी स्थानीय संस्कृति को छोड़े बिना कैसे अंतरर्राष्ट्रीय हुआ जा सकता है। मैंने कई हिंदी के लेखकों को किंचित गर्व से यह कहते सुना है कि मेरे बेटे-बेटी को हिंदी में रुचि नहीं है। उनके लिए भाषा गर्व का विषय है। हमारे लिए भाषा एक राजनीति है।
मैं बंगलुरु में करीब तीन साल रहा और पाया कि वहां अंगरेजी बोलना स्टेटस सिंबल नहीं है, बल्कि आपसी संवाद का जरिया है। एक आटो वाला, एक गृहणी या फिर कोई प्रोफेसर; सभी अपने-अपने तरीके से अकुंठ भाव से अंगरेजी का प्रयोग करते हैं। वहां किसी सार्वजनिक स्थान पर अगर दस लोग खड़े हैं तो संभव है कि वे छह अलग-अलग भाषा परिवार से आते हों। दक्षिण की भाषाओं में ऐसी समानता नहीं है जैसी हिंदी प्रदेश की बोलियों में है। लिहाजा अंगरेजी सबसे सहज तरीका है आपस में बातचीत का।
दक्षिण की भाषाओं की सांस्कृतिक जड़ें बहुत गहरी हैं, खास तौर पर तमिल की। उन्हीं दिनों एक चर्चा में मेरे मलयालम एडीटर ने बताया कि तमिल में अंगरेजी के शब्दों को जस का तस स्वीकारने की बजाय एक नए शब्द का इजाद करने का चलन है। बहुसंस्कृतिवाद का पाठ मैंने बंगलुरू में ही सीखा। मेरे पड़ोस में एक दंपती थे, जिसमें पति तमिल ब्राह्णण था और पत्नी असम की। जाहिर है दोनों की आपसी भाषा अंगरेजी थी। उनके आठ साल के बेटे की भाषा भी अंगरेजी थी और मातृभाषा के नाम पर थोड़ी-बहुत मां की भाषा।
मेरे यहां एक 16-17 बरस की लड़की सुकन्या काम के लिए आया करती थी और वह फर्राटे से अंगरेजी बोलती थी मार्डन स्लैंग्स के साथ। क्योंकि उसने चार साल एक ऐसे दंपती के साथ काम किया था जो उससे अंगरेजी में ही बात करते थे। कुल मिलाकर यह कि वहां की हवाओं में अंगरेजी हावी नहीं बल्कि सहजता से बहती है। दक्षिण भारतीयों का सादगी भरा रहन-सहन, बाहर निकली कमीज और पूरी बांह का सलवार-सूट पहने लड़कियां, गजरे या लंबी चुटिया, खाना खाने का तरीका- कई बार हम उत्तर भारतीयों के लिए उपहास का विषय होता है। पर वे दूसरे अर्थों में आधुनिक हैं। उन्होंने शिक्षा को, सांस्कृतिक विरासत को तथा साइंस और टेक्नोलॉजी को अहमियत दी है।
मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी समाज अपनी संस्कृति को उपादेयता की दृष्टि से देखता है न कि एक जीवन शैली के रूप में। संस्कृति जीवन शैली का हिस्सा कैसे हो सकती है, इसका सबसे सुंदर उदाहरण दक्षिण में लगभग हर घर के दरवाजे पर बनाई जाने वाली सादा सी ज्यामितिक रंगोली है। वहां शादियां दिन में होती हैं। कम खर्च में होती हैं। कोई तड़क-भड़क नहीं, कोई डीजे नहीं। मैंने अपने अनुभव में हमेशा परंपरागत कर्नाटक संगीत ही बजते देखा। लोग आज भी बैठकर केले के पत्तल में ही खाते हैं। मंदिर बहुत साफ-सुथरे हैं। मैंने यहां की तरह किसी मंदिर के आसपास भिखारी को मंडराते नहीं देखा।
इससे यह आशय न निकाला जाए कि वहां सब कुछ अच्छा है और रूढ़ियां नहीं हैं, मगर जो अच्छा है फिलहाल मैं उसी की बात कर रहा हूँ। बंगाली संस्कृति में किताबों, चित्रकला और संगीत का महत्व कितना है यह किसी भी परंपरागत बंगाली परिवार में देखा जा सकता है। करीब तीन साल पहले अर्से बाद मैने गाजियाबाद में दुर्गापूजा पर कालीबाड़ी का कार्यक्रम देखा और पाया कि गीत-संगीत और नृत्य के प्रति उनका प्रेम अभी भी बरकरार है। कुछ भी बदला नहीं है कि आयोजन मुझे किशोरवय में स्मृतियों में ले गया।
हमारे यहां परंपराएं खत्म हो ही हैं और बाजार तेजी से हावी हो रहा है। एक और खास बात यह है कि हिंदी समाज के पास संस्कृति अपने ‘लोक रूप’ में मौजूद थी। जैसे-जैसे हम सभ्य होते गए हमने ‘लोक’ को देहाती या पिछड़ा माना और उसे छोड़ते गए। अब खाली जगह को कोई न कोई तो भरेगा, उसे बाजारू और फूहड़ संस्कृति ने भर दिया। पुराने लोक नृत्यों और लोक गीतों की जगह फिल्मी धुनों पर अश्लील गाने बजने लगे। सिनेमा तक में मन्ना डे और महेंद्र कपूर की आवाज में “हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा कि अपना बसे रे परदेस” की जगह “लॉलीपॉप लागेलु” ने ले ली।
लोक को छोड़ने की वजह से उसका परिष्कार नहीं हुआ, जबकि बंगाल और दक्षिण के समाज में उनकी कलाओं का परिष्कार होता चला गया और उन्होंने मध्यवर्ग के जीवन में अपनी जगह ले ली। हिंदी पट्टी में उलटा हुआ। हमें लगा कि आधुनिक होने का अर्थ इन गंवई कलाओं को छोड़ना है। नतीजा हम खाली होते गए अपने खालीपन को हमें एक उथली आधुनिकता से भरना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि हम न तो अपनी संस्कृति से जुड़ पाए और न ही आधुनिक बन सके। आज की तारीख में हिंदी के ‘संस्कारी’ शब्द का इतना दुरुपयोग हुआ है कि अब यह एक हास्यास्पद शब्द बन गया है।
हम सांस्कृतिक रूप से इतने सूख चुके हैं, बंजर हो चुके हैं कि हम राजनीतिक हिंदुत्ववाद के उभार को भी अपनी पहचान से जोड़ने लगे हैं। हमारे भीतर अपनी संस्कृति के प्रति इतनी हीनभावना बस चुकी है कि उसे श्रेष्ठ बताने के लिए हम सोशल मीडिया या सार्वजनिक जीवन में दूसरों की संस्कृति और पहचान को अपमानित करने या उसका मजाक उड़ाने पर उतर आए हैं।
धीरे-धीरे हम एक अनुदार और सांस्कृतिक रूप से निर्धन समाज में बदलते जा रहे हैं, आर्थिक रूप से चाहे कितने भी सपन्न क्यों न हो रहे हों।