हम पत्रकारों से तो हॉकर ज्यादा भले हैं….
“दुनिया के मजदूरों एक हो ” कार्ल मार्क्स का यह आह्वान वामपंथी नारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं। मार्क्स ने मजदूरों का ही आह्वान क्यों किया किसानों या समाज के किसी अन्य वर्ग का क्यों नही किया। मजदूर सर्वहारा होता है उसके पास पाने के लिए असीम संसार रहता है लेकिन खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं होता है। वैसे तो यह हर हड़ताल में देखने को मिलती है लेकिन देहरादून में लगभग चार दिनों से चल रही हाकरों की हड़ताल ने कार्ल मार्क्स के कथन को न सिर्फ साबित किया बल्कि “नपुंसक” पत्रकारों को आईना भी दिखा रही है।
मूल्य बढ़ोत्तरी में हाँकर अपनी हिस्सेदारी यानी कमीशन बढ़ाने की मांग पर आड़े हैं इसलिए कि कई समाचार पत्रों ने अखबार की कीमत तो बढ़ा दी लेकिन हाँकरों का कमीशन नहीं बढ़या। बस इसी मुद्दे पर हाँकर हडताल पर हैं। अब सवाल यह उठता है कि आखिर लोग हडताल क्यों करते हैं वो भी तब जब यह अच्छी तरह से जानते हैं कि उनका दमन और उत्पीड़न किया ही जाएगा। आज के समय में हड़ताल दो तरह की होती है एक अपनी समस्या को लेकर और दूसरी दूसरों की समस्या को लेकर। अपनी समस्या को लेकर कोई कर्मचारी या कर्मचारी संगठन हड़ताल करता है तो दूसरों की यानी जनता की समस्यों को लेकर राजनीतिक दल हड़ताल करते हैं। हडलात का सीजश भी होता है। लोकसभा व विधानसभा सत्रों के दौरान हडतालों की भरमार रहती है।
बैंक और बीमा कर्मचारियों से लेकर डाक्टर, इंजीनियर, वकील, शिक्षक, तमाम सरकारी / गैर सरकारी / निगमों / परिषदों तक के कर्मचारी जब देखो तब “इंकलाब जिंदाबाद” का नारा बुलंद किये रहते हैं। यही नहीं संविदाकर्मी, शिक्षामित्र-शिक्षा आचार्य ही नही आंगनबाडी कार्यकत्री तक अपनी बेहतरी के लिए अपने लोकतांत्रिक हथियार हड़ताल का इस्तेमाल करतीं हैं। अगर कोई अपने इस लोकतांत्रिक हथियार का इस्तेमाल नही करता है तो वह खुद को लोकतंत्र का चौथा खंबा कहलाने वाला पत्रकार।
वामपंथी कवि शैलेंन्द्र की चर्चित गीत है ” हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है … यानी हड़ताल जोर-जुल्म के विरोध में होते हैं। अमूमन समाज का हर तबका हड़ताल करता है सिवाय पत्रकार के। यानी पत्रकारिता में जोर-जुल्म, शोषण – उत्पीड़न और दमन और अत्याचार नहीं है। सब कुछ सही है यानी रामराज है यानी शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं, न कोई मालिक है और न कोई नौकर।
आये दिन पत्रकार इस अखबार से उस अखबार में मुंह मराते हैं तो उत्पीड़न की वजह से नहीं जोत्षीय या डाक्टर की सलाह पर करते हैं। महीनों पन्द्रहियों मुफ्त में काम करते हैं तो मजबूरी में शौकिया करते हैं। छोटी-छोटी गलती पर संपादक वीकली आँफ कैंसिल कर देता है तो कर्मचारी की बेहतरी के लिए करता है। अखबारों में सालों – साल प्रमोशन नहीं होता, वार्षिक बढ़ोत्तरी नहीं होती, बोनस नही दिया जाता कोई बात नहीं हम पत्रकार चूं तक नहीं करते। अपने को राष्ट्रीय स्तर का कहने वाला एक अखबार अपने कर्मचारियों ढाई-तीन साल से डीए नहीं दे रहा लेकिन कोई हक की आवाज नही उठा रहा है क्यों?
श्रम कानून पौने छह घंटे का कार्य दिवस मानता है। ऐसा कौन सा अखबार प्रतिष्ठान है जिसके यहां कार्य दिवस छह घंटे का हो। कौन सा ऐसा पत्र प्रतिष्ठान है जो दावे के साथ कहे की वह श्रम कानूनों का अक्षरश: पालन करता है। पत्रकारों के हड़ताल न करने का या उसमें शामिल न होने का एक बड़ा कारण उसका मध्यमवर्गीय चरित्र है। चूंकि मध्यम वर्ग की माली हालत निम्न वर्ग की होती है लेकिन उसकै ख्वाब उच्च वर्ग के होते हैं । ठीक यही स्थिति कार्यस्थल की होती है। पत्रकारों की माली हालत निम्न श्रेणी के कर्मचारियों की होती है लेकिन ख्वाब अधिकारियों वाले होते हैं इसलिए वह मारा जाता है। यही चीज हड़ताल पर भी लागू होती है। हड़ताल में वही खुलकर आगे आता है जिसके पास पाने को तो बहुत कुछ रहता है लेकिन खोने को कुछ भी नही रहता। किसी भी हड़ताल में क्लास फोर व थ्री पहले शामिल होता है लेकिन दूसरे श्रेणी का सबसे बाद में।
बात पत्रकारों की हड़ताल पर। बीस – पचीस वर्ष से ज्यादा हो गये होंगे किसी भी अखबार (दशकों पहले जनसत्ता , 25 साल पहले आज पटना और हाल में हुई राष्ट्रीय सहारा की हड़ताल अपवाद थी और अपवाद उदाहरण नही होता) में हड़ताल नही हुई। तो क्या यह समझा जाए कि अखबारों में शोषण/उत्पीड़न नहीं होता अगर नही होता तो फिर अखबारों के हाँकर हड़ताल पर क्यों हैं ? बताते चलें कि देहरादून (लखनऊ में भी हाकरों की हड़ताल है) के कुछ अखबारों ने अपने प्रोडक्ट (अब अखबार के मालिक अखबार को प्रोडक्ट मानते हैं) की कीमत बढा दी। जानकारों का कहना है कि ऐसा मजीठिया के चलते किया गया है। अब सवाल यह उठता है कि पत्रकार (कागजी शेर) वेतन बढ़वाने के लिए हड़ताल क्यों नही करते। हडताल की छोडि़ए किसी के लिखे पर प्रतिक्रिया तक नही व्यक्त करते। विश्वास न हो तो अब तक मजठिया पर जितना भी लिखा गया है उसपर कितने लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की है।
तभी तो किसी ने कहा है…
खुदा के घर से कुछ गधे फरार हो गये।
कुछ पकड़े गये बाकी पत्रकार हो गये।
गधे की भी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती हम पत्रकारों की भी नहीं होती। हमसे तो भले हाकर हैं।
अरुण श्रीवास्तव
देहरादून
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