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मध्य प्रदेश

विज्ञापन के फेर में पत्रकारिता को मात्र चाटुकारिता बनाने की साजिश!

MAMTA MALHAR : मध्यप्रदेश की पत्रकारिता की तीन चार पीढ़ियाँ Prakash Bhatnagar जी की यह टिप्पणी जरूर पढ़ें और आईना देखें। कुछ पहलू छूट गए हैं। जो कभी न कभी लिखे जाएंगे।

बात अब सिर्फ विज्ञापन की नहीं रह गई आत्मसम्मान और स्वाभिमान की भी है। पर इस ओर फोकस गिनेचुनों का है। मेरा तो एक सीधा सवाल हमेशा होता है कि हमसे पहले वालों ने आखिर ऐसा क्या किया कि हमें सिर्फ गालियां ही मिलती हैं? कुछ जवाब तो मिले हैं। फिलहाल पढ़िये ये टिप्पणी –

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हम खुद हैं इसके दोषी

प्रकाश भटनागर

बीते कई दिनों से मध्यप्रदेश में अपने पत्रकार बंधुओं के एक तबके को भयावह रूप से विचलित देख रहा हूं। वे राज्य की सरकार से दु:खी हैं। वजह पत्रकारिता के पेशे से जुड़ी वह अहम जरूरत है, जिसे विज्ञापन कहा जाता है। इस जीवनदायिनी वायु का प्रवाह कहीं मंद हो गया है तो कहीं पूरी तरह बंद हो चुका है।

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नतीजतन, सोशल मीडिया पर शालीन शब्दों में सरकारी कारकूनों और कारतूसनुमा अफसरों को धिक्कारने का सिलसिला जारी है। परतंत्रता के दौर की तर्ज पर ‘असहयोग आंदोलन’ चलाने का आव्हान किया जा रहा है। मेरे कई हमपेशा लिखित और मौखिक, दोनों तौर पर इस दिशा में भारी सक्रियता दिखा रहे हैं।

लेकिन क्या कोई भी ईमानदारी से यह जानने का प्रयास करेगा कि आखिर ऐसी नौबत आयी कैसे? आज जो हम फटी आंखें लेकर बाकियों की नींद उड़ाने का प्रयास कर रहे हैं, वही हम कुछ समय पहले के इस तथ्य से आंख मूंदकर बैठे रहे कि कैसे विज्ञापन के फेर में पत्रकारिता को मात्र चाटुकारिता बनाने के षड़यंत्र चल रहे हैं।

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सब जानते थे, लेकिन केवल इतना कर सके कि विधानसभा के पत्रकार कक्ष में पत्रकारों के एक संगठन द्वारा तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के जन्मदिन का केक काटे जाने पर तालियां पीटने के सहभागी बने।सोशल मीडिया पर उन पोस्ट को लाइक करते रहे, जिन पर कोई हमपेशा किसी राजनेता के साथ भोजन करते हुए अपने फोटो डालता था। कोई पत्रकार भांडों की तरह यह बताता था कि आज कितने महान तथा योग्य किसी अफसर का जन्मदिन है।

हम उस दिन अपने किसी साथ वाले की खिल्ली उड़ाते रहे, जब भरी पत्रकार वार्ता में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी ने उसे डांट दिया। पत्रकार का कसूर यह था कि उसने तिवारी जी से चुभने वाला एक सवाल दाग दिया था। हम इस बात पर केवल मुस्कुराकर रह गये कि पत्रकार वार्ता में किसी कलमकार ने पूरे आदर के साथ अर्जुन सिंह को ‘कुंवर साहब’ कहकर संबोधित किया।

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कहां चली गयी थी हमारी एकता, जब दिवंगत सुंदरलाल पटवा ने एक वरिष्ठ पत्रकार से तिलमिलाकर उन्हें अपने चश्मे का नंबर बदलने की सलाह दे डाली थी! हमने तब ठहाके लगाये, जब एक मुख्यमंत्री ने सारी प्रेस के सामने राष्ट्रीय स्तर के दो पत्रकारों को यह कहते हुए बेइज्जत किया कि शायद एक सरकारी विज्ञापन उनके अखबार को नहीं दिया गया है।
वह पत्रकार आज शासन तंत्र की आंख और कान है, जिसने दिग्विजय को मुख्यमंत्री रहते हुए, ‘आप जैसे संवेदनशील मुख्यमंत्री पर ऐसे आरोप खलते हैं’ कहकर नवाजा था और इसी पेशे से जुड़ा वह आदमी अंतत: यह राज्य छोड़कर चला गया, जिसने मढ़ोताल भूमि कांड से जुड़े एक सवाल पर दिग्विजय को जमकर उलझा दिया था। उसने पूछा, ‘आपकी सरकार में क्या हर फाइल इतनी ही तेज चलती है?’ सिंह का जवाब था, ‘मकान आवंटन से जुड़े मामलों के अलावा बाकी सब में ऐसा ही होता है।’

कलम का वह कलाकार आज शीर्ष में गिना जाता है, जिसने शिवराज सिंह के भीतर के मानव को कुरेदकर बाहर लाने के प्रायोजित यज्ञ में महान आहूति दी थी। पूछा था कि उन्हें विपक्ष पर गुस्सा क्यों नहीं आता है। इधर, कलम का वह सिपाही सत्ता से बुरी तरह लांछित किया गया, जिसने व्यापमं कांड के बाद श्यामला हिल्स में निवासरत एक अ-सरकारी किंतु बेहद असरकारी महिला को लेकर विस्तार से तथ्यों सहित खबर प्रकाशित कर दी थी।

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यूं नही कि इस दौरान पूरे कुंए में भांग घुली रही। तब भी ऐसा पत्रकार हमारे बीच था, जिसने अविभाजित मध्यप्रदेश में दैवभोग की हीरा खदान को लेकर चल रही खबर सविस्तार प्रकाशित की थी। यह उल्लेख करते हुए कि खबर रुकवाने के लिए जनसंपर्क महकमे के दिग्गज अफसरान किस तरह दबाव बनाते रहे। वह कलमकार भी देखे गये, जिन्होंने भोपाल में पत्रकारों पर बरसते कांशीराम को उनसे भी अधिक आक्रामक शैली में जवाब देकर चुप करा दिया था। लेकिन ऐसे उदाहरण गिनती के रहे। बाकी हम में से ज्यादातर उस घोड़े की तरह आचरण करते रहे, जिसने अपने किसी दुश्मन को पकड़वाने के लिए इंसान को यह बताया कि वह उसकी पीठ पर सवार हो सकता है।

नतीजा यह कि घोड़ा इंसान की सवारी बनकर रह गया। पत्रकार ही पत्रकार के दुश्मन बन गये। निजी स्वार्थों के चलते ऐसी गंदगी फैली कि जिसे अब ठीक किया जा सकना शायद असंभव है। दिल दुखाने वाले ऐसे अनेक उदाहरण हैं। जिनमें इस पेशे से जुड़ा वह शख्स भी याद है, जो एक दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ छपी एक खबर पर पत्रकार को जारी किये गये मानहानि के नोटिस में बकायदा गवाह की हैसियत से नजर आया था।

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मीडिया ने खुद ही अपनी एकता का क्षरण किया। कुकुरमुत्तों की तरह उगते पत्रकार संगठन परस्पर जुड़े व्यवहार की नींव में दीमक बनकर प्रवेश कर चुके हैं। इस सबके चलते वही होना था, जो हुआ। इसलिए उस पर रोना भले ही स्वाभाविक बात हो, किंतु रोने की यह नौबत आने में अस्वाभविक होने जैसा कुछ भी नहीं है। हम खुद इसके दोषी हैं।

मध्य प्रदेश की पत्रकार ममता की एग्बी वॉल से.

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0 Comments

  1. फरसाराम

    February 18, 2020 at 6:56 pm

    वर्तमान पत्रकारिता कि सच्चाई

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