सुदेश गौड़-
भारत में कोरोना से जूझते हुए हम सबको करीब 13 महीने हो रहे हैं। इस दौरान सकारात्मक के साथ नकारात्मक चीजों से भी सावका पड़ा है। कोरोना जैसी महामारी के दौरान मीडिया की भूमिका क्या होनी चाहिए थी और क्या रही, इसकी यदि विवेचना की जाए तो स्पष्ट रुप से यह तथ्य सामने आएगा कि कोरोना काल में मीडिया ने कुछ सकारात्मक खबरें तो दी है लेकिन हमें डराया भी है। कल ही मैंने दिल्ली Dateline से एक खबर पढ़ी कि मिशीगन (अमेरिका) में स्थित एक भारतीय इपीडेमियोलोजिस्ट (Epidemiologist) प्रोफेसर बी मुखर्जी के अनुसार कोविड-19 के मामले जिस तरह से भारत में बढ़ रहे हैं, अगले 4 हफ्ते तक रोज 5 लाख प्रभावितों की संख्या तक आ सकती है। हमें यहां देखना होगा कि किसी को सतर्क करने और डराने में बहुत महीन या कहें बाल बराबर अंतर होता है। इस खबर करने वाले पत्रकार का तर्क यही होगा कि हमने यह जानकारी लोगों को सतर्क करने के लिए शेयर की है जबकि जिन भी पढ़े लिखे समझदार लोगों से मेरी चर्चा हुई वे सब इस तथ्य को जानकर डर के साथ घबरा भी गए थे। आम जनता द्वारा कोरोना काल में भोगा गया सत्य मीडिया के लिए महज आंकड़े होते हैं जबकि परिवार वालों के लिए वह एक कड़वी वास्तविकता होती है जिसके साथ उन्हें जीवनपर्यंत रहना होगा।
न्यूजरुम एक तरह से मानवीय संवेदनाओं से परे होता है। कोई बड़ी खबर न होने माहौल गमगीन सा होता है। एक बार न्यूजरुम में बड़ी खबर न होने से माहौल पूरी तरह ठंडा सा था। हम रेल या बस एक्सीडेंट की खबर आने पर यह सोचते हैं कि इसे तीन कालम में लगाना चाहिए या चार कालम में। उस घटना में मरे लोगों के बारे में सोचने का वक्त ही नहीं होता है बल्कि हम यह सोच रहे होते हैं कि कोई रोते बिलखते परिजनों विशेषकर महिलाओं का फोटो मिल जाए तो पैकेज अच्छा बन जाएगा। रिपोर्टर से बार बार पूछते हैं कि परिजन, बेटी या पत्नी क्या कह कर विलाप कर रही थी ताकि हम कोई अच्छी इमोशनल हेडिंग लगा सके जो हमारे मंथली प्रजेंटेशन में काम भी आए और मुझे व्यक्तिगत मान सम्मान भी दिलाए। टीवी रिपोर्टर्स को कई बार आपने भी देखा होगा किसी हादसे में जिस बाप ने अपना बेटा खोया होता है, उनसे हमारे असंवेदनशील रिपोर्टर पूछते हैं इस हादसे में बेटा खोकर आप कैसा महसूस कर रहे हैं। यह सवाल सुनकर बाकी लोगों की तरह आपने भी माथा पीटा होगा और मुंह से गालियां निकलीं होंगी।
वर्ष 1988-89 में जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था। आतंकवादी रोज 10-12 लोगों को मारा करते थे। कोई एक बड़ी घटना न होने पर सबकी मृतक संख्या जोड़कर एक रुटीन खबर बना दी जाती थी। मान लीजिए उस दिन विभिन्न आतंकवादी वारदात में कुल 10 लोग मारे गए, मैंने वह खबर बना कर अपने प्रभारी को दी तो उन्होंने उसमें मरने वालों का संख्या बढ़ा कर 14 कर दी। जब मैंने इस बारे में पूछा तो वे बोले सुबह तक इतने तो मार ही दिए जाएंगे। उन दिनों मृतक संख्या कम प्रकाशित होने पर प्रबंधन पूछता था कि अपनी संख्या प्रतिद्वन्द्वी से कम कैसे रह गई। हमारे प्रभारी ने संख्या बढ़ाकर इसका सटीक तोड़ निकाल लिया था। हालांकि बाद में हमारे प्रतिद्वन्द्वी अखबार के मित्र को भी यह तिलिस्म पता चल गया तो वे भी बढ़ाचढ़ा कर संख्या लिखने लगे थे। यह प्रकरण यहां यह साबित करता है कि न्यूजरुम में मृतक संख्या एक नंबर से ज्यादा कुछ नहीं होती है। यह परंपरा आज भी वैसे ही चल रही है। पिछले दिनों भोपाल एम्स में 112 डाक्टरों के कोरोना पाजिटिव होने की खबर एक अखबार ने छाप दी। हड़कंप मचा, एम्स ने खंडन जारी कर कहा कि हमारे सिर्फ 2 डाक्टर कोरोना पाजिटिव हुए हैं न कि 112.
हाल ही में खबर चली कि भोपाल के एक चर्चित अस्पताल में आक्सीजन खत्म हो जाने से 35 कोरोना पीड़ितों ने दम तोड़ दिया। बाद में पता चला कि वास्तविक संख्या काफी कम थी।
मैं यहां अमेरिकी मीडिया की 9/11 घटना का विशेष उल्लेख करना चाहूंगा। मैं यहां डिस्क्लेमर के तौर पर स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं अमेरिकी समर्थक नहीं हूं। मैं खालिस भारतीय हूं पर अमेरिका के कुछ तौर-तरीकों से प्रभावित जरूर हूं। 9/11 के कवरेज में अमेरिकी मीडिया में जो संयम बरता वैसा कोई दूसरा उदाहरण मेरी जानकारी में नहीं है। हादसे के वक्त पूर्व राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर आस्ट्रेलिया में थे। जैसे ही उन्हें जानकारी मिली, उन्होंने अपना दौरा रद्द कर तुरंत वापस अमेरिका लौट कर राष्ट्रपति जार्ज बुश से भेंटकर अपना पूरा समर्थन दिया।वहां पार्टियों का अंतर या विचारधारा का अंतर कोई बाधा नहीं बना, क्योंकि वे पहले एक अमेरिकी थे, रिपब्लिकन या डेमोक्रेट बाद में। एक भी अमेरिकी द्वारा राष्ट्रपति जार्ज बुश से इस विफलता के लिए इस्तीफा भी नहीं मांगा गया। पूरे अमेरिका ने इस मौके को अमेरिकी गौरव को अक्षुण्ण बनाए रखने व मजबूत करने के लिए किया। क्या आपमें से किसी ने उस कांड में एक भी ऐसा वीभत्स फोटो देखा है जिसमें खून रिस रहा हो, विकृत या क्षत विक्षत शव पड़ा हो, कोई उनकी घड़ी या चेन निकाल रहा हो, परिजन बिलख रहे हो, सरकार को कोस रहे हो। चूंकि वह क्राइम सीन था, इसलिए न्यूयार्क के गवर्नर ने एक आदेश निकाला कि यह कोई टूरिस्ट स्पाट नहीं है, इसलिए शौकिया फोटोग्राफर कोई फोटो नहीं ले सकेंगे। सारे टीवी क्रू टीम और प्रेस फोटोग्राफरों ने वहां की हर गतिविधि को रिकार्ड किया पर अखबार में छापने या अपने चैनल पर दिखाने के लिए नहीं बल्कि सरकारी रिकार्ड के तौर पर जांच में मदद करने के लिए। साजिश को क्रमवार समझने के लिए, दोषियों की पहचान पता लगाने के लिए। उनकी फोटोग्राफी और टीवी रिकार्डिंग से मृतकों की शिनाख्त में मदद मिली। 9/11 के मलबे में दबे लोगों के पास भी मोबाइल व अन्य कैमरे मिले, उनकी रिकार्डिंग्स व फोटो सबूत के तौर पर प्रयोग किए गए। अमेरिकी अखबारों के संपादकों ने भी वीभत्स, भय पैदा करने वाले फोटो या बच्चों के मनोभावों पर दुष्प्रभाव डालने वाले फोटो को Classified category डाल दिया ताकि उनका आधिकारिक प्रयोग हो सके पर सार्वजनिक प्रकाशन नहीं किया जा सकेगा। यह पहल अखबारों की तरफ से थी न कि सरकार की तरफ से। ऐसे इसलिए हो सका क्योंकि इस हादसे ने उनको भी अंदर तक तोड़ गिया था। वे सब वहां पर अखबारनवीस को तौर पर नहीं बल्कि एक अमेरिकी नागरिक के तौर पर थे। कुछ अखबारों ने डर पैदा करने वाले कुछ फोटो छापे भी थे पर अंदर के पेजों पर छोटे साइज में। किसी ने भी एक भी Classified category का फोटो प्रमुखता से पेज एक पर नहीं छापा था।
9/11 से हमने क्या सीखा था। कुछ भी नहीं। सितंबर 1993 में लातूर में भयंकर भूकंप आया था। राहत में सब जुटे थे। पर एक नामी अखबार ने खबर छापी कि संघ के कार्यकर्ता मलबे में ही पीड़ितों के धर्म का निर्धारण कर सिर्फ हिन्दुओं को निकाल रहे थे। जबकि ऐसा नहीं था और ऐसा करना संभव भी नही था।
हम कब अपने कवरेज में पैनिक की जगह यूटिलिटी को महत्व देंगे। Remdesivir injection/Oxygen कमी है, बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। पर क्या हम आम पाठकों को राहत पहुंचाने के लिए यह नहीं बता सकते हैं कि कुछ लोग खुद अपनी जान जोखिम में डाल कर दूसरों की जान बचाने के उपक्रम में किस तरह जुटे हैं। कैसे कई जिलों के कलेक्टर और पुलिस कप्तान अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए कोरोना की चपेट में आ गए। आम जनता को कोरोना से बचाने में कितने चिकित्साकर्मियों, डॉक्टरों, पुलिसकर्मियों, अफसरों, स्वच्छता मिशन से जुड़े लोगों समेत अन्यान्य लोगों ने अपना बलिदान तक दे दिया, क्या उनके बलिदान को हमने यथोचित मान दिया। लोगों को यह बताइए कहां से क्या सुविधा मिल सकती है, किस अस्पताल में बेड मिल सकते हैं, कहां दवा मिल सकती है। क्या हमने आगे बढ़कर किसी एक पीड़ित की मदद की है। यदि हां तो आपका इस्तबाल, यदि नहीं तो अब कर दीजिए। सोशल मीडिया पर कितने लोगों ने मदद की पेशकश की है, अपने नंबर तक शेयर किए हैं, उन जानकारियों को ठोक बजाकर हम आम पाठकों के साथ शेयर कर सकते हैं। हमें हमारे सभी जनप्रतिनिधियों के मोबाइल नंबर आम पाठकों के साथ शेयर करने चाहिए ताकि उनको भी अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो और लोग अपने वोट के एवज में उनसे मदद भी मांग सके।
सरकार में जिम्मेदार लोगों से सवाल पूछिए, कड़क-झन्नाटेदार सवाल पूछिए। डंके की चोट पर सच्चाई को उजागर करें लेकिन आटो, लोडर और साइकिल के कैरियर पर लाश ढोने वाले डरावने फोटो तो मत छापिए। लोग डरते हैं, बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक कुप्रभाव पड़ता है। सच बोलिए भी और लिखिए भी पर यह जरूर देखिए कि आपका सच सिर्फ सरकार को डराए न कि आम जनता को। यदि आम जनता को डरा रहा है, उसमें दहशत का संचार कर रहा है तो फिर एक बार सोचिए कि आप कर क्या रहे हैं। हमें यह सोचना होगा कि कोरोना से ज्यादा कोरोना की दहशत लोगों की मार रही है और इस मार को कम करने के लिए हम क्या कर सकते हैं।
हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं की कई पत्रकार पूरी जिम्मेदारी के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं और जनता को सही जानकारी भी दे रहे हैं लेकिन अभी भी इस बात की आवश्यकता है कि हम सकारात्मक रहे। ऐसी खबरों को अवॉइड करें जिससे जनता पर दुष्प्रभाव पड़ता हो। इसका यह भी मतलब नहीं है कि सच्चाई को उजागर करने से हम दूर रहे, वह तो हमारा पहला दायित्व है, पत्रकारिता का धर्म है उसे तो निभाना हीं है लेकिन एक नागरिक होने के नाते हमें यह भी सोचना है कि हमारी एक खबर से कहीं आम जनता प्रभावित तो नहीं हो रही है खासतौर पर ऐसे मौके पर जबकि चारों और दृश्य डरावने है?
सुदेश गौड़
वरिष्ठ पत्रकार