पिछले दिनों ओडिशा एक बार फिर से सुर्ख़ियों में रहा। वहाँ कभी हैजा से लोग मरते हैं तो कभी भूखमरी मौत की निशानी छोड़ जाती है। यदि अकेले कालाहांडी से १२ लाख मजदूरों का मौसमी पलायन हर साल होता है तो राज्य में हर जगह कुपोषण का व्यापक प्रकोप है– यह बात और है कि राष्ट्रीय मीडिया को ऐसा कुछ भी नहीं दिखता। लेकिन सच के गलियारे में चहलकदमी कीजिये– युगीन गरीबी से घिरी फानस पुंजी की याद ताज़ी हो जाती है। ‘सम्बाद’, ‘धरित्री’ और ‘समाज’ अखबारों ने हल्ला-हड़बोंग तब जमकर मचाया था। उस फानस पूंजी ने अपनी ननद को बेचकर देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को जब उद्वेलित किया था तो उसकी चौखट तक मीडिया और मंत्री दौड़े चले गए — गरीबी के इस पात्र को टटोलकर, उसे छूकर देखने कि कैसे ओडिशा में रेणु की ‘परती परिकथा’ अपनी पूरी समग्रता में खिलता है। इन तमाम उपकथाओं के बीच पत्नी की लाश कंधे पर ढोनेवाले दोना मांझी जैसे लाचार चरित्र खबरों के सरताज बन जाते हैं और मीडिया मंडी की बिकवाली में दोना नाम की जमकर बोलियां लगीं। तब उसे और ओडिशा को देश और विदेश और भी तरीके से जान गया। इस प्रकरण के बाद बदहाली का एकांकी होता रहा। बीते हफ्ते ओडिशा के एक बेहद पुराने अखबार ‘समाज’ में बोलांगीर जिले के कई गॉंव में गुर्दे की बीमारी की खबर आयी। छपी खबर की गीली स्याही अभी सूखी भी नहीं थी, तभी एक और खबर ‘धरित्री’ में आयी कि कालाहांडी के गोलमुंडा प्रखंड में फ्लोरोसिस से लोग अपाहिज बनते चले जा रहे हैं। इसी बीच उसी अखबार में कंधमाल जिले में किसी नवजात की मौत की भी खबर आयी।
वैसे तो इन तमाम प्रजाति की खबरों का कोई असर शासन-प्रशासन पर नहीं पड़ता क्योंकि राज्य का पूरा लोकमानस अवमानवीय (सब-ह्यूमन ) हालात में जीने को अभ्यस्त है। टीवी स्क्रीन्स के सबसे नीचे कभी बीमारू राज्यों की बेटियां हरियाणा से आये दलालों के हाथों बिकने से चर्चित हो जातीं हैं लेकिन कभी बिन शादी किये बेटियां माँ बनने का मामला आज की तरीख में कवर होता है। यानी आलम यह है कि ओडिशा जैसा राज्य इंसानी समाज से बना राज्य न होकर खबरों की मंडी भले ही बन चुका है लेकिन वहाँ किसी नवजात की मौत की यह खबर वहीं के अंग्रेजी अखबार छापने से नाक भौं सिकोड़ते हैं। क्योंकि नवीन बाबू अंग्रेजीदां समाज के वाशिंदे रहे हैं। उन्हें यह भी पता नहीं कि उनकी रियासत में हर साल एक हजार पैदा हुए बच्चों में ६९ बच्चे मौत का निवाला बनते हैं। यानी अपार गरीबी से त्रस्त सूडान, प्रति व्यक्ति सवा डॉलर रोजाना की कमाई वाले युगांडा से लेकर गृह युद्ध में तकरीबन ९ लाख लोगों की जान थोड़े से समय में गँवानेवाले रवांडा और मादक द्रव्य के ग्लोबल मंडी बने बोत्सवाना में हर साल इतने नौनिहालों का भोग ‘मौत का देवता’ नहीं लगाता। राज्य में साढ़े ४ करोड़ से कुछ ज्यादा की आबादी का ८३.३१ फीसद हिस्सा गॉंवों में रहता है जिसके लिए कुल ६८३ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) हैं। मतलब औसतन ६७ हजार की आबादी पर एक पीएचसी की मौजूदगी इनके गुड गवर्नेंस तो नहीं बल्कि ‘साइलेंट गवर्नेंस’ होने का नजारा पेश करती है। इसी कारण से ओडिशा में महाकाल की गोद में बच्चे लोरियां सुनते हैं– हर साल हजार की संख्या के पार नवीन बाबू के गवर्नेंस में नाबालिग मुर्दा बन जाते हैं। ओडिशा के बोलांगीर-कोरापुट और कंधमाल के कई ऐसे इलाके हैं जहाँ बच्चों का नामकरण ५ साल की उम्र तक आज भी नहीं किया जाता। लेकिन इन आंकड़ों से राष्ट्रीय अख़बारों या टीवी चैनल्स का सरोकार नहीं होता।
टीवी बेखबर है। पुलवामा को लेकर बदहवास है। मान्यवर प्रधानमंत्री जी के दावतों को लेकर हलकान है। और दलितों या सफाईकर्मियों के पाँव पखारते मोदी समाज में नयी क्रांति लाने का आगाज करने का बिम्ब पैदा करते हैं तो अखबारें वहीं भावविमुग्ध हो जाती है। लेकिन मीडिया को, मतलब उस प्राइम टाइम वाले हीरो को, मुर्गा लड़ानेवाले केसरिया राष्ट्रभक्त एंकरों को कंधमाल की उस दिवंगत बेटी की सुधि नहीं हुई जो एक अनब्याही माँ की बेटी थी। उस नवजात की माँ जब सातवीं कक्षा में पढ़ती थी तभी गर्भवती हुई, यह न प्रणव बाबू के चैनल को पता है और न अरुण पुरी महोदय के सबसे तेज़ चैनल को। केवल मीडिया नहीं, यूनिवर्सिटी के समाजविज्ञानियों और करोड़ों का रिसर्च फण्ड ढकोरने वाले ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट कलेजे में पैदा होनेवाली और माँ बननेवाली ऐसी अभागी बेटियों की लगातार बढ़ती तादाद को लेकर किसी तरह की संवेदना जगती है।
राष्ट्रिय मीडिया केलिए ओडिशा के रोग-व्याधि-कुपोषण को लेकर कोई चिंता नहीं है जबकि ये तमाम विकार ओडिशा की सबसे बड़ी त्रासदी हैं जिसके बारे में समूची दुनिया जानती है। सूखे और भूख से कमर कसकर लड़ने केलिए भले ही यूनाइटेड नेशन की पांच अलग-अलग संस्थाएं इस राज्य में डेरा जमाये बैठीं हैं लेकिन ओडिशा के अंग्रेजी अखबारों से लेकर राष्ट्रीय मीडिया ने जानने की कोशिश कभी नहीं की है कि ऐसा क्यों है? आलम यह है कि विकास और आधिकारिता के तमाम नुस्खों-टोना-टोटके आजमाए जाने के बावजूद शासन-विधि को प्रभावहीन करती एक ही तरह की कई खबरें कुछ हफ़्तों से वहाँ लगातार आ रहीं हैं कि राज्य के छात्रावासों में नाबालिग लडकियां गर्भवती हो रहीं हैं। लेकिन यह चिंता कस्बाई पत्रकारिता की चिंता है, नोयडा के फिल्मसिटी में चरते-विचरते उन वीर पुरुषों की नहीं जो खबरों से खेलनेवाले खबरची हैं।
कहीं भी किसी भी राष्ट्रीय अखबार में खबर के रूप में या किसी भी रूप में ओडिशा में शिशुओं की मौत और लड़कियों के माँ बनने को लेकर अमूमन कुछ भी नहीं छपता। इस मामले में भाषायी अखबार और खास तौर से ओड़िया अखबारों ने समाज के तलछट से चिपकी खबरों को जरूर सार्वजानिक किया है। जबकि ओडिशा में हिंदी अखबारों ने अपनी पैठ हाल के वर्षों में जरूर बनायीं है। लेकिन उन अख़बारों की प्राथमिकता में कस्बों से ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन बटोरना होता है। ऐसे में राज्य में हिंदी अखबारें बाजारवाद की भेंट चढ़ रहीं हैं। लेकिन उन्हीं ओड़िया अखबारों से जानकारी मिली कि राज्य के सबसे ठंढे इलाकों में शुमार दरिंगबाड़ी के सेवाश्रम हाई स्कूल की सातवीं कक्षा की छात्रा ने बीते जनवरी के दूसरे शनिवार को एक बच्चे को जन्म दिया। इसके बाद प्रशासन सक्रीय होती है। गिरफ्तारियाँ होती है। लेकिन परिणाम कुछ भी नहीं होता। प्रेमी-शोषक या कोई और, जो नाबालिगों या युवतियों को शादी किये बगैर माँ बना देता है। उड़िया अखबारें आवाज उठातीं हैं और पूछतीं हैं कि राहत और पुनर्वास के नाम पर गर्भ काल में शार्ट-स्टे होम की सुविधा सरकार जरूर देती है लेकिन उसके बाद। इसके बाद बच्चा पैदा किये जाने के बाद सरकार हाथ ऊपर उठा देती है। असली कहानी तभी शुरू होती है जब समाज के शोहदे और बड़े-बुजुर्ग उक्त महिला या नाबालिग के अतीत को जान लेते हैं। इसके बाद तो ओडिशा की हर लड़की लुचना बन जाती है। ओडिशा के अंग्रेजी अखबार ‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ को लुचना की खबर नहीं है।
वही लुचना जो आज से कोई १८ साल पहले बिनब्याही माँ हो गयी थी। वह मजदूरी करती थी और मेहनताना में उसे रोज ४५ रूपये मिलते थे। जिस रात ठेकेदार उसे रोक लेता था उस दिन उसकी कुल कमाई एक सौ रूपये की होती थी। मतलब एक रात के ५५ रूपये– उन दिनों कालाहांडी में मुर्गे के एक किलो गोश्त की कीमत थी ७० रुपये। उन दिनों भाषा संवाद एजेंसी से जरी इस खबर को देश भर के हिंदी अखबारों ने प्रकाशित किया था, ‘लुचना की देह की कीमत मुर्गे के एक किलो गोश्त से भी कम’– मगर इतना हंगामा-हल्ला-हड़बोंग के बाद भी लुचना को न्याय नहीं मिला। क्योंकि उन अख़बारों की ख़बरों का रसायन अब पहले जैसा प्रभावी और तेजाबी नहीं रहा। तो राजयतंत्र सोया रहा। आयोगों को पता नहीं चला। राज्य में एक नहीं कई लुचनायें यूँ ही एक किलो मुर्गे और दर्जन भर अंडे की कीमत से भी कम रेट पर समझौता करतीं रहीं। अनब्याही माताओं के हालत से जुडी खबरों के आधार पर इंडियन कौंसिल ऑफ़ सोशल साइंस रिसर्च ने ज़मीनी अनुसन्धान के बाद अनुमान लगाया कि राज्य में चालीस हजार से ज्यादा की संख्या में अनब्याही माताएं हैं। लेकिन इसके बाद कुछ खबरें कवर स्टोरी बनकर चीखने लगीं लेकिन तूफ़ान टलने के बाद की ख़ामोशी पसारती चली गयी। फिर न प्राइम टाइम में हंगामा मचा और न कोई कवर स्टोरी सामने आयी। इतना ही नहीं अनब्याही माता होने की पीढ़ीगत परम्परा के अनगिनत महीन और भद्दी वजहों को तलाशता कोई नौकरशाह नहीं मिला, कोई समाजसेवी भी नहीं और कोई पत्रकारनुमा सोशल एक्टिविस्ट भी नहीं दिखा। तब ऐसी खबरें लिखने की आत्मश्लाघा बिलकुल धराशायी हो गई — साफ़ सी बात है कि अख़बारों में चर्चित हुई लुचना टीआरपी के बिसातियों को रास नहीं आयी।
कालाहांडी जैसे इलाके ख़बरों की खान हैं। जहाँ न राष्ट्रीय महिला आयोग की पैठ है और न ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जानकारी है– जब आयोग, पुलिस और प्रशासन समाज की संकीर्णताओं और कुपरम्पराओं के सामने बौने हो जाएं तो खबरों की रेहड़ियां पग-पग दिखने लगतीं हैं। दुःख की बात है कि इस देश में सोशल सिक्योरिटी की तसल्लियों और वेलफेयर स्टेट होने की दावेदारियों के बावजूद कालाहांडी की लुचना की बिटिया भी अनब्याही माँ बन गयी थी। बाद में माँ-बेटी कहीं नहीं देखे गए। किसी ने ध्यान भी नहीं दिया क्योंकि उस राज्य की समाज के बीच माँ बनतीं अनब्याही मादा देह कोई बड़ी घटना नहीं है क्योंकि वहां के आदिवासी और ग्रामीण समाज सेक्स कभी टैबू नहीं रहा। जब देह वर्जना नहीं है तो जितना खुलापन है, वह सामान्य है– कोई रोकटोक नहीं है। केंद्र के स्तर पर कई तरह के क़ानून बने, नारी शुचिता को लेकर संसद और समाज में कसमें खायी गयीं मगर ओडिशा में कुंवारी लड़कियों के माँ बनने का सिलसिला थमा नहीं। दूर देस से आये शिक्षक-ठेकेदार-अधिकारी-कर्मचारी से लेकर सोशल एक्टिविस्ट विकास के एजेंट बनकर उन पहाड़ी इलाकों में गए तो कुदरत की गोद में जी रहे ‘हुस्न की दौलत’ से खुद को बचा नहीं पाए। समय के साथ बढ़ती आबादी के से जंगलों पर बोझ बढ़ा, बाजारवाद और जंगलों पर सरकार के बढ़ते शिकंजे ने स्थानीय लोगों को अपने ही रियासत में रियाया बना दिया कुदरत के कुबेर पर व्यावसायिक लोगों ने सेंध लगा दिया और उन्हीं लोगों ने मजदूरिन बनीं स्थानीय कन्याओं को रात के नग्न उत्सवों का शिकार बना लिया।लुचना वैसी ही शिकार की परम्परा की अद्यतन पात्र है — मगर मीडिया इन सबसे बेखबर रही है। यह भी सच है कि स्थानीय मीडिया ने जब तत्परता दिखाई है तो संसद से लेकर सरकार तक शर्मसार हुई है।
लेकिन विद्यालय परिसर में, सरकारी कर्मचारियों की देखरेख में किसी नाबालिग का गर्भाधान पूरे सिस्टम पर सवालिया निशान है। ध्यान रहे सेवाश्रम हाई स्कूल की सातवीं कक्षा की छात्रा के माँ बनने से पहले भी बीते साल मलकानगिरी के आदिवासी छात्रावास में दो छात्राएं माँ बनकर स्थानीय अख़बारों की सुर्ख़ियों में सज चुकी हैं। मलकानगिरी प्रसंग पर और कार्यवाई भी हुई– कोर्ट-कचहरी का मामला बना और फिर वही हुआ। ख़बरों के कब्रग्राह में एक बड़ी खबर फिर से दफ़न की गई किन्तु अनब्याही माताओं की बढ़ती जनसंख्या थमने का नाम नहीं ले रहा– मतलब मुद्दा जस का तस है। अनब्याही माँ का मतलब बिन शादी के किसी का माँ बन जाना ओडिशा-मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़-झारखण्ड और पश्चिम बंगाल के जंगल-पहाड़ों में गुजर-बसर करनेवाली जातियों और जनजातियों के बीच तक़रीबन एक लाख की तादाद में जो अनब्याही माताएं सांसें ले रहीं हैं उनसे कहीं ज्यादा संख्या में आधुनिक कुंतियाँ अकेले यवतमाल-नांदेड़-वर्धा और अमरावती के समाजों में पल रहीं हैं।
बात अमरावती की हो या कंधमाल की– राज्य के सिस्टम को चलानेवाले कापुरुषों को देर-सवेर यह समझना होगा कि समाज की एक परम्परा जो आज विद्रूपता का रूप ले चुकी है, उसे मिटाने और नकारने की दिशा में सरकार ने क्या किया। मत दीजिये नारा ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ का श्रीमान। पढ़ने जानेवाली बेटियां या पढ़ने केलिए विद्यालयों के छात्रावास में रहनेवाली बेटियां जिस दरींदेपन की शिकार हो रही हैं, उसे सो कर-गाकर और चिल्लाकर दूर नहीं किया जा सकता। अभी देश दरिंगबाड़ी की नवजात अनब्याही माँ को लेकर चर्चाएं थमीं भी नहीं है कि कालाहाँडी के नारला प्रखंड की एक दलित छात्रा के गर्भवती होने की खबर आयी है। मगर सवाल है कि ऐसी खबरें उभरतीं तो हैं लेकिन जातीं कहाँ हैं ? ऐसे में कहना मुनासिब जरूर है कि राजनीति में तटस्थता के साथ ओढ़ा गया मौन-व्रत नवीन बाबू की खासियत हो सकती है लेकिन राज्य में नारी की अस्मिता और नौनिहालों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ का सिलसिला अभी जिस अंदाज में बढ़ता जा रहा है यह ओडिशा को वेलफेयर स्टेट कहे जाने की परम्परा का मजाक है– जैसे सरकार पोस्को अधिनियम लागू करवा पाने में असमर्थ है। लेकिन इस कालातीत मजाक को लेकर राज्य-देश की मीडिया किस हद तक जिम्मेवार है, यह सोचने का वक़्त आ गया है। ऐसे में नौनिहालों को सुरक्षित जिंदगी देने का विज्ञापन महज चोंचलेबाजी के अलावा कुछ भी नहीं है। नवीन बाबू भी चुप और राष्ट्रीय मीडिया भी चुप– इस चुप्पी की कुछ तो वजह होगी ?
चूँकि प्रधानमंत्री दिल्ली में रहते हैं तो मानवाधिकारों से लेकर लोकतान्त्रिक मूल्यों में आयी गिरावट केलिए केवल केंद्र सरकार जिम्मेवार है, इसलिए देश के बाकी मुद्दे गौण है– ऐसे में सरोकार की पत्रकारिता की दुहाई देना श्मशान घाट में अश्लील चुटकुले सुनाने जैसी बात है। आज सवाल पूछने का वक़्त है — जो नाबालिग लडकियां माँ बनतीं है उन्हें पहले बहलाया-फुसलाया और डराया जाता है और उसके बाद उनके साथ सिलसिलेबार रेप होता है। क्योंकि नाबालिग के साथ परस्पर सहमति से सम्बन्ध बनने की दलील बेमानी है। लेकिन सवाल कौन पूछे और किससे पूछे? काश, मीडिया का कोई मुख्तार चौथे खम्भे पर बैठकर कोई पहल करता। सवाल पूछता, गुहार लगाता और गुजारिश करता कि बीजू बाबू के लाडले! राज्य के हॉस्टल को हरम होने से बचाइए।
अमरेंद्र किशोर वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक चिंतक हैं. संपर्क :
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