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मालिकाना हक बदलने के बाद ‘हफ़पोस्ट इंडिया’ का संचालन बंद

-प्रकाश के रे-

हफ़पोस्ट इंडिया के बंद होने से भारतीय मीडिया लैंडस्केप और भी दरिद्र हो गया है. इस वेबसाइट पर हमारे समय के कुछ बेहतरीन पत्रकार काम कर रहे थे. इसी के साथ हफ़पोस्ट का ब्राज़ील संस्करण भी बंद हो गया है. हफ़पोस्ट का मालिकाना वेरीज़ोन से बज़फ़ीड के पास चला गया है. इस कंपनी का कहना है कि डिजिटल मीडिया में 26% विदेशी निवेश की सीमा होने के कारण भारत में इस साइट को चालू रखना संभव नहीं था. ब्राज़ील के नियमों के मुताबिक, वहाँ इस साइट को चलाने के लिए ब्राज़ील के बज़फ़ीड एडिशन को बेचने की शर्त थी, जिसे मानना बज़फ़ीड के लिए संभव नहीं था. हमारे देश में रक्षा से रिटेल तक भरपूर विदेशी निवेश की अनुमति है, लेकिन सरकार को डिजिटल मीडिया में ऐसा निवेश नहीं चाहिए.

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बहरहाल, हम लोगों को अपने मीडिया का आभारी होना चाहिए कि आज के दौर में भी टीवी चैनल खैनी से सस्ते और अख़बार गुटखे से कम दाम पर उपलब्ध हैं. अक्सर कूपन आदि भी मिल जाते हैं, जिन्हें हुंडी की तरह भंजा सकते हैं. कभी-कभी बाल्टी-मग और ट्रैक सूट भी मिलता है, जिसकी क़ीमत अख़बार से अधिक होती है. मीडिया से वैचारिकता और सम-सामयिक सूचनाएँ तो मिलती हैं, टीवी मनोरंजन भी देता है. आलमारी पर या खाना खाते समय बिछाने के अलावा अख़बार में सामान आदि भी लपेटा जा सकता है. पूरी-कचौरी का तेल सोखने के लिए भी चतुर लोग अख़बार का इस्तेमाल करते हैं. इसके बाद भी बचे हुए अख़बार को कबाड़ी में बेचकर कुछ नगदी भी मिल जाती है.

ख़ैर, मेरी चिंता यह रहती है कि ‘माले-मुफ़्त दिले-बेरहम’ मीडिया को देख-देख और पढ़-पढ़ कई लोग अपना ख़ून जलाते रहते हैं, जबकि मेनस्ट्रीम मीडिया का पेट्रोल लोग ही हैं. उन्हीं से टीआरपी मिलती है. विज्ञापन आते हैं. मीडिया की कमाई का बड़ा स्रोत सरकारी और कॉर्पोरेट विज्ञापन होते हैं. एक अख़बार छापने में 25-30 रुपए का ख़र्च आता है. पाठक जो देते हैं, वह तो हॉकर/डिस्ट्रिब्यूटर के लिए ही पूरा नहीं पड़ता. यही हाल चैनलों का है. हमारे प्रिय एंकर-एंकरानियों के लाखों के वेतन केबल/डीटीएच को दिये गये पाँच-दस रुपये से जमा नहीं होते. लोग कहते हैं कि पश्चिम का मीडिया ऐसे लिख देता है, वैसे बोल देता है. कभी उनके अख़बारों के दाम देखना चाहिए.

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ले-देकर वैकल्पिक न्यू मीडिया को सौ-पचास रुपए चंदा देते रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं दिख रहा है. लोग बड़े चैनलों/अख़बारों/साइटों का झूठ भी पचा लेते हैं, उन्हें सोशल मीडिया पर साझा भी करते हैं. यदि लोग कुछ मूडी, खोजी और छोटे मीडिया के काम को भी सराहने लगें और आगे बढ़ाने लगें, तो बात कुछ बनने की गुंजाइश बन सकती है.

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