भारत की उच्च शिक्षा को दुनिया के खुले बाजार में लाने का पहला बड़ा प्रयास वाजपेयी की अगुवायी वाली एनडीए सरकार ने किया था। उस वक्त उच्च शिक्षा को डब्ल्यूटीओ और गैट्स के पटल पर रखा गया था और तभी पहली बार यह मान लिया गया था कि भारत में उच्च शिक्षा भी दुनिया के कारोबार का हिस्सा बन रही है।
उच्च शिक्षा को लेकर वाजपेयी दौर के इस नज़रिया पर मनमोहन सिंह सरकार ने भी मोहर लगा दी। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में शिक्षा का बाज़ारीकरण तब और खुल कर सामने आया जब अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने इंडो-अमेरिकन संवाद में दो सवाल सीधे उठाये। पहला, अमेरिका चाहता कि दुनिया के दूसरे हिस्सों से छात्र आयें और अमेरिका में पढ़े। और दूसरा, भारत के विश्वविद्यालयों में अमेरिकी विश्वविघालय के कैंपस स्थापित हो। जिससे वह कमाई कर सके और अमेरिका का यह रुख उसकी अपनी डगमगाती अर्थव्यवस्था की वजह से है। अमेरिका अपने यहां लगातार उच्च शिक्षा में सरकारी अनुदान कम कर रहा है। लेकिन अमेरिकी विश्वविघालयो की कमाई के लिये वह भारत जैसे देश पर दबाव भी बना रहा है। भारत इस दबाब के आगे झुका इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि इसी के बाद से भारत में भी शिक्षा का पैटर्न अमेरिकी यूनिवर्सिटी जैसा करने की पहल हुई।
जिसका पहला प्रयोग दिल्ली यूनिवर्सिटी में चार बरस के ग्रेजुएट कार्यक्रम से हुआ। इसलिये सवाल यह नहीं है कि अब देश में सरकार बदली है तो चार बरस का कोर्स दुबारा तीन बरस का हो जायेगा। असल सवाल यह है कि भारत की उच्च शिक्षा को जिस तरह दुनिया के बाजार में धंधे के लिए खोल दिया गया है। क्या इसे रोका जायेगा। अमेरिका का जो दबाव भारत पर उच्च शिक्षा का लेकर है, उससे भारत मुक्त होगा। जब तक मोदी सरकार यह बात खुल कर नहीं कहती है और उच्च शिक्षा को किसी दबाब में नहीं बदला जायेगा की बात पर अमल में नहीं लाती तब तक यूजीसी की गरिमा भी बेमानी होगी। यूनिवर्सिटी की स्वायत्त्ता भी नहीं बचेगी और उच्च शिक्षा के नाम पर छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ भी होगा। और लगेगा यही कि सियासत जीत गयी। जो ज्यादा खतरनाक होगा। खतरनाक इसलिये क्योंकि भारत के उच्च शिक्षा का विदेशी सच है कितना त्रासदी वाला यह आंकडों से समझा जा सकता है। क्योंकि उच्च शिक्षा के लिये करीब 3 लाख भारतीय छात्र हर बरस विदेश जाते हैं। और उच्च शिक्षा के लिये विदेश जाने वाले छात्रों का खर्चा 78 हजार करोड़ रुपये सालाना है। इसमें भी सिर्फ अमेरिका जाने वाले कम्प्यूटर एक्सपर्ट से भारत को 12 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है।
अब सवाल है कि नरेन्द्र मोदी जनादेश की जिस ताकत के साथ प्रधानमंत्री बने हैं। अर्से बाद असर उसी का है कि हायर एजूकेशन पर तेजी से निर्णय लेने की स्थिति में यूजीसी भी आ गयी है। और दिल्ली यूनिवर्सिटी की स्वयत्ता का सवाल वीसी के तानाशाही निर्णय के दायरे में सिमट गया है। यानी बीते डेढ़ दशक से हायर एजुकेशन को लेकर लगातार जो प्रयोग बिना किसी विज़न के होते रहे उस पर नकेल कसने की शुरुआत हुई है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन मुश्किल यह है कि जो यूजीसी पिछले बरस तक लुंज-पुंज तरीके से चार बरस के ग्रेजुएशन कार्यक्रम को लेकर काम कर रही थी वह एकाएक सक्रिय होकर निर्णय ले रही है तो उसके पीछे उसकी अपनी समझ नहीं बल्कि राजनीतिक दवाब है।
बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में दिल्ली यूनिवर्सिटी के चार बरस के शिक्षा सत्र को तीन बरस करने का वादा किया था। जनादेश ने बहुमत दिया तो मोदी सरकार ने फैसला ले लिया। अब इसमें यूजीसी की भूमिका कहां है। क्योंकि पिछले बरस ही डीयू के वीसी ने जब FYUP लागू कर दिया तो उसके बाद यूजीसी ने चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम की समीक्षा के लिये एक उच्च अधिकार प्राप्त समीति बनायी। जिससे जानकारी मांगी गयी कि पूरे देश में इसे लागू किया जा सकता है या नहीं। फिर ये समिति अभी भी बनी हुई है। और 1 अगस्त 2013 को यूजीसी की इस कमेटी की बैठक में जो सवाल उठे उसने इसके संकेत भी दिये कि जो यूजीसी आज तलवार भांज रही है वहीं यूजीसी पिछले बरस तक चार बरस के कार्यक्रम के खिलाफ नहीं थी। क्योंकि इस बैठक में दो ही सवाल उठे। पहला डीयू के वीसी को नये शिक्षा कार्यक्रम लागू करने से छह महीने पहले जानकारी देनी चाहिये। और दूसरा यूजीसी डीयू के वीसी की सुपर बॉस होकर निर्णय नहीं ले सकती है।
खास बात यह है कि ये समिति अभी भी बनी हुई है, उसे खत्म भी नहीं किया गया है। और बहुत कम लोगों को पता है कि बंगलौर विश्वविद्यालय को निर्देश जा चुके हैं कि इस अकादमिक सत्र से आप भी चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम शुरू कर दीजिए। लेकिन अब मोदी सरकार के दबाव में यूजीसी पीछे हट रही है। लेकिन सच यही है कि यूजीसी ने इस फ़ैसले को पूरे देश में लागू करने का मन बना लिया था क्योंकि ये काम अमरीका के दवाब में किया जा रहा था। लेकिन अब जो निर्णय जिस तर्ज पर लिया जा रहा है वह कहीं ज्यादा परेशानी पैदा करने वाला है क्योकि अब यूजीसी की अपनी स्वायत्ता और जनता के बीच उसके भरोसे पर हमला हो रहा है।
हो सकता है कि मोदी सरकार का फैसला बड़ा लोकलुभावन लग रहा हो। लेकिन जब तक सरकार खुले तौर पर यह नहीं कहेगी कि उच्च शिक्षा किसी दूसरे मुल्क के दबाव में बदले नहीं जायेगें तब तक साख तो देश की ही खत्म होगी। और जिस तेजी से उच्च शिक्षा के लिये देश की प्रतिभाओं का पलायन विदेशों में हो रहा है वह देश के लिये कम खतरनाक नहीं है। आलम यह है कि साइंस, इंजीनियरिंग और मेडिकल में पीएचडी करने के लिये जाने वाले छात्रों में से सिर्फ 5 फीसदी भारत लौटते है। भारत के 75 फीसदी साइंटिस्ट अमेरिका में है। भारत के 40 फिसदी रिसर्च स्कॉलर विदेश में है। अमेरिका H-1B वीजा के कुल कोटा का 47 फीसदी भारतीय प्रोफेशनल्स को बांट रहा है। और अक्टूबर 2013 के बाद अमेरिका जाने वालो में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
अब इस हालात में अगर छात्रों के भविष्य को लेकर मंत्री, नौकरशाह और वीसी की अपनी अपनी समझ हो और तीनो में कोई मेल ना हो तो क्या होगा। क्योंकि डीयू के वीसी का मानना है कि उन्होंने चार बरस के शिक्षा सत्र के जरिये अंतराष्ट्रीय शिक्षा बाजार में भारतीय छात्रों की मांग बढा दी है। यूजीसी का मानना है कि जब शिक्षा देने का पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है तो फिर चार बरस क्यों। वहीं सरकार का मानना है कि मौजूदा शिक्षा सत्र को विदेशी विश्विद्यालय के लिये जानबूझकर नायाब प्रयोग करने की जरुरत क्यों है। ध्यान दें तो तीनो अपनी जगह सही हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि पहली बार डीयू के प्रयोग ने उस कलई को ही खोल दिया है। जहां उच्च शिक्षा को लेकर कोई समझ ना तो सरकार के तौर पर ना ही यूजीसी के तौर पर विकसित की गयी। यानी नौकरी के लिये ही शिक्षा जरुरी है और ज्यादा कमाई के लिये उच्च शिक्षा होगी तो फिर विदेशी यूनिवर्सिटी से डिग्री की महत्ता खुद ब खुद बन जायेगी। और हो यही रहा है। सिर्फ यूनिवर्सिटी ही नहीं आईआईटी से निकले इंजीनियर हो या मैनेजमेंट कोर्स करके निकले प्रोफेशनल्स। विदेशो में उनके मुकाबले उनकी यूनिवर्सिटी से पासआउट छात्रो को ज्यादा वेतन मिलता है। चाहे काम एक सरीखा ही क्यों ना हो। इसके बावजूद भी छात्र विदेशो में इसलिये चले जाते है क्योकि भारत में उच्च शिक्षा पाने के बाद रोजगार के अवसर भी नहीं है, वेतन भी कम है और देश में कोई विजन भी नहीं है जिससे उच्च शिक्षा करना महत्वपूर्ण माना जाता हो।
वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से साभार।