भारत का 49 वां अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह गोवा में शुरू हो चुका है। अभी से भारत सरकार अगले साल होनेवाले पचासवें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के लिए बढ़ चढ़कर दावे कर रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि 1952 में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पहल पर शुरू हुआ यह समारोह अब पूरी तरह न सिर्फ दिशाहीन हो चुका है बल्कि अप्रासंगिक भी हो चुका है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि यूरोप अमेरिका तो छोड़िए, कोई भारतीय फिल्मकार भी इसमे अब कोई दिलचस्पी नही दिखाता।
भारत का पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह (24 जनवरी से 1 फरवरी 1952 ) फिल्म्स डिवीजन नें मुंबई मे आयोजित किया था जिसे कोलकाता, चेन्नै, तिरूवनंतपुरम और दिल्ली मे घुमाया गया था। तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली मे 21 फरवरी 1952 को समारोह का खुद उद्घाटन किया था जिसमे 40 फीचर फिल्में और 100 शार्ट फिल्में दिखाई गई थी। तीसरे समारोह मे 1965 में इसे प्रतियोगी बनाया गया जिसकी अध्यक्षता महान फिल्मकार सत्यजीत राय ने की थी।
चौथे संस्करण( 1975) के बाद इसे नियमित किया गया। 2004 से इसका आयोजन हर साल गोवा में किया जाता है। पिछले 15 सालों से गोवा में एक ही बात सरकारी अधिकारी और मंत्री दुहराते रहे है कि इस फिल्म समारोह को कॉन, बर्लिन और वेनिस जैसे दुनिया के महत्वपूर्ण फिल्म समारोह की तरह बनाया जाएगा। पिछले 66 सालों में इस समारोह का न तो कोई अपना चरित्र, न अपनी पहचान और न ही कोई वैश्विक महत्व बन पाया है न ही दुनिया का कोई महत्वपूर्ण फिल्मकार इसे महत्व देता है। जबकि दुनिया के हर बड़े फिल्मकार का सपना होता है कि उसकी फिल्म कॉन बर्लिन और वेनिस फिल्म समारोह मे दिखाई जाय।
यह दुनिया का अकेला ऐसा बड़ा फिल्म समारोह है जिसमे अच्छी और चर्चित फिल्मों को दिखाने के लिए भारत सरकार को प्रति फिल्म पचास हजार से लेकर दो लाख रूपये की रॉयल्टी देनी पड़ती है। हालत यह है कि इसबार जिस फिल्म से समारोह की शुरूआत हो रही है और जिसके वर्ल्ड प्रीमीयर का दावा किया जा रहा है वह फिल्म द एस्पर्न पेपर्स (जूलियन लांडीस) इसी साल वेनिस फिल्म समारोह मे दिखाई जा चुकी है। लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान के लिए सरकार अंत तक जब किसी बड़े फिल्मकार को राजी नही कर पाई तो इजराइली दूतावास की मदद से अपेक्षाकृत कम चर्चित डॉन वोलमैन को लाई जिन्हें दिल्ली इंटरनेशनल फिल्म समारोह जैसे निजी कार्यक्रम में कई साल पहले यह सम्मान दिया जा चुका है।
सिनेमा को लेकर समझ और दृष्टि के अभाव में सरकारी उदासीनता के कारण “कट पेस्ट” कर पूरी प्रोग्रामिंग की जा रही है। आश्चर्य है कि समारोह पर भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय का शत प्रतिशत दबदबा और निमंत्रण कायम है जबकि यहॉ सिनेमा की समझ सिरे से गायब है। भारत जैसे देश मे जहॉ सबसे ज्यादा फिल्में बनती है वहॉ का अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह निर्रथक हो जाय, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि अभी तक इस फिल्म समारोह का कोई स्थाई निर्देशक या संचालक नही है। हर साल दो साल में सरकारी अधिकारी बदल जाते है और फिर शून्य से शुरूआत होती है।
कॉन में जहां दुनिया भर से 48 हजार डेलीगेट और 6 हजार फिल्म पत्रकार आते है वही गोवा में मुश्किल से 8-10 हजार डेलीगेट और तीन सौ फिल्म पत्रकार। भारत सरकार का भारी भरकम प्रचिनिधि मंडल प्राय: हर साल कान, बर्लिन या वेनिस फिल्म समारोह का अध्ययन करने जाता है। जब तक वह नये विचार प्रस्तावित करता है, सरकार उनका तबादला कर देती है। यह सिलसिला जारी है। दुनिया का कोई भी फिल्म समारोह अच्छी फिल्मों, संजीदा दर्शकों और गंभीर फिल्म समीक्षकों से महत्वपूर्ण बनता है जबकि भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की प्राथमिकताओं में ये नही है। तो क्या समय नही आ गया है कि अब सरकार या तो इसे बंद कर दे क्योंकि अब सारी फिल्में ऑनलाईन उपलब्ध हो जाती है या इसे निजी क्षेत्र को दे दे?
लेखक अजित राय वरिष्ठ पत्रकार हैं.