संजय कुमार सिंह
आज के अखबारों में दो बातें खास हैं, एक तो जैसी उम्मीद थी, सांसद महुआ मोइत्रा के मामले में एथिक्स पैनल की कथित रिपोर्ट के आधार पर अटकलें हैं और सब एक हैं इसलिए आप समझ सकते हैं कि मामला क्या है। दूसरा मामला बिहार विधान सभा में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के कथित बयान का है जिसे वे वापस ले चुके हैं जिसके लिए माफी मांग चुके हैं। महुआ मोइत्रा के मामले में एथिक्स कमेटी की सिफारिश लीक होना भले सामान्य बात हो पर जब बात एथिक्स या नैतिकता की है तो लीक नहीं होनी चाहिये थी पर उसकी परवाह किसे है। लीक रिपोर्ट से यही लगता है कि सरकार, “जो भी सांसद सरकारी सेठ से भिड़ेगा, सदस्यता खोयेगा” के तय और घोषित रास्ते पर चल रही है। वैसे इसपर कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। मैं रिपोर्ट और उसके बाद की कार्रवाई का इंतजार करूंगा।
मेरा मानना है कि आज की रिपोर्ट के बाद सांसद महुआ मोइत्रा से बात की जानी चाहिये थी उनका पक्ष जानने की इच्छा किसी को भी होगी और अखबार का काम है कि यह सब जनता को बताये। लेकिन अखबारों में नीतिश कुमार के बयान या कहिये उसके विरोध को प्राथमिकता मिली है। सबसे दिलचस्प या चौंकाने वाली बात यह है कि इसपर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का पक्ष नवोदय टाइम्स ने फोटो के साथ पहले पन्ने पर बड़ी सी खबर के साथ छापा है। चार कॉलम की मुख्य खबर का शीर्षक है, बेशर्म बोल पर नीतिश ने मांगी माफी। दिलचस्प यह भी है कि विपक्ष इस्तीफे पर अड़ा और भाजपा विधायकों ने विधानसभा परिसर में प्रदर्शन किया। पर सबसे चौंकाने वाला है, प्रधानमंत्री का यह कहना, ‘उन्हें शर्म तक महसूस नहीं हुई’। मुझे लगता है कि मणिपुर में जो हुआ उसपर महीनों चुप्पी साधे रहने और उसके बाद जो हालात बने उसमें चुनाव प्रचार के लिए मिजोरम नहीं जा पाना किसी के लिए भी शर्म की बात होती और वह बाकी देश में चुनाव प्रचार करने में शर्माता लेकिन ऐसा कुछ लगता नहीं है।
दिलचस्प यह भी है कि हिन्दुस्तान टाइम्स ने पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर एक खबर छापी है जिसका शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होगा, चुनाव प्रचार अभियान के दौरान मोदी ने विपक्ष, नीतिश की टिप्पणियों पर हल्ला बोला। नीतिश की टिप्पणी में मुझे कुछ बुरा नहीं लगा। वे जो बोल रहे थे और जिनके लिए बोल रहे थे उन्हें बात समझ में आये इसके लिए वही भाषा सही थी और ऐसा कई लोग कह चुके हैं। इसलिए उसके विसतार में जाने की जरूरत नहीं है। वैसे भी संसद और विधानसभाओं में क्या नहीं कहा गया है और क्या नहीं हुआ है। ऐसे में काम की बात को कहने के तरीके पर विवाद का कोई मतलब नहीं है। मुझे लगता है कि नीतिश को जो कहना था वह उन्होंने अपनी भाषा में कहा (जो कुछ लोगों के लिए खराब, अश्लील हो सकती है) पर जिसके लिए कहा उसे समझ में आ जायेगी। अंधों के लिये बिना बोले इशारों में बताते तो और अश्लील होता, अंग्रेजी में बोलते तो बहुतों को समझ में नहीं आता।
दूसरी ओर, आज के अखबारों में पहले पन्ने पर महुआ मोइत्रा का पक्ष नहीं है जो ट्वीटर (अब एक्स) पर आसानी से उपलब्ध है और कोई भी छाप सकता था। द टेलीग्राफ ने उनसे बात की और पहले पन्ने पर दो कॉलम में छापा है। इसका शीर्षक है, पांच साल तक मुश्किल में रहने के लिए तैयार हूं: महुआ। उन्होंने कहा है, मेरा पास 30 साल का राजनीतिक जीवन बचा हुआ है। अगर उनसे लड़ने के लिए मुझे पांच साल मुश्किल में रहना पड़े तो मैं तैयार हूं। मैं संसद से अपने निष्कासन को सम्मान के एक बैज की तरह मानूंगी। कहने की जरूरत नहीं है कि संसद में सवाल पूछने से रोकने के लिए अपनाये गये सरकारी तरीके पर भी मीडिया में चर्चा होनी चाहिये लेकिन स्थिति ऐसी है कि सुप्रीम कोर्ट में सरकारी सेठ के मामले में सुनवाई टलती जा रही है।
ऐसे में मीडिया और इमरजेंसी या इमरजेंसी में मीडिया की चर्चा भी होती रहती है। मौजूदा स्थिति की तुलना इमरजेंसी से की ही जाती रही है। इमरजेंसी के बहुत सारे विरोधी इसे इमरजेंसी नहीं मानते हैं पर बैंगलोर में रहने वाले अधिवक्ता और लेखक अरविन्द नारायण की किताब, ‘इंडियाज अनडिक्लेयर्ड इमरजेंसी – कांस्टीट्यूशनलिज्म एंड द पॉलिटिक्स ऑफ रेसिसटेंस’ (भारत की अघोषित इमरजेंसी – संवैधानिकता और विरोध की राजनीति) इसी पर है। इससे साबित होता है कि अघोषित इमरजेंसी का मामला यूं ही नहीं है। इसके लिखित और ठोस आधार हैं जो न सिर्फ किसी आम लेखक बल्कि कानून के जानकार के लिखे पुस्तक के रूप में मौजूद हैं और 2021 की दूसरी छमाही में तैयार होकर 2022 से बाजार में है।
न्यूजक्लिक डॉट इन के प्रबीर पुरकायस्थ को तो आप जानते ही होंगे। हाल में उनकी किताब, ‘कीपिंग अप द गुड फाइट’ (अच्छी लड़ाई लड़ते रहना) आई है। यह किताब इमरजेंसी के समय से लेकर अभी तक की कहानी है और एन राम के अनुसार, यह हमले के शिकार एक पत्रकार का समय पर आया संस्मरण है। पुस्तक के पिछले कवर पर तारीखवार तीन घटनाओं का जिक्र है। 25 सितंबर 1975 : नई दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने छात्र यूनियन की एक निर्वाचित कौनसेलर, अशोकलता जैन के निष्कासन पर हड़ताल की अपील की थी। तीन महीने पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी की घोषणा की थी। यह हड़ताल का दूसरा दिन था और कैम्पस में तनाव था। छात्रों के एक समूह के पास एक काली एम्बैसडर कार आकर रुकी। सादे कपड़ों में कुछ पुलिस वाले निकले और उनमें से एक का अपहरण कर लिया। छात्र ने अगला एक साल जेल में गुजारा। (बाद में पता चला और शाह कमीशन को बताया गया कि यह गिरफ्तारी (अपहरण) गलत पहचान पर हुई थी। सही पहचान वाले का कुछ पता चला कि नहीं – किताब पढ़ने पर पता चलेगा। पढ़कर बताउंगा।)
9 फरवरी 2021: ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) के अधिकारियों ने एक ऑनलाइन न्यूज पोर्टल के संस्थापक के घर पर छापा मारा। छापा पांच दिन से ज्यादा 113 घंटे चला। 3 अक्तूबर 2023: दिल्ली पुलिस के अधिकारियों ने न्यूजपोर्टल के संस्थापक और उनके सहकर्मी को डरावने यूएपीए के तहत हिरासत में ले लिया। पुस्तक बताती है कि यह कबीर पुरकायस्थ की कहानी है तो आधी सदी के अंतराल पर दो तानाशाह के शासन में लिखी गई है। यह एक युवक की राजनीतिक परिवपक्वता की कहानी भी है जो हास्य बोध के साथ लिखी गई है। पुस्तक में दशकों के भारत के कुछ सबसे गंभीर, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों से उनके जुड़ाव की भी चर्चा है। आजकल अखबारों से ज्यादा खबरें इधर-उधर मिलती हैं। पुस्तकें इनमें एक हैं। अखबारों से तो यही पता चलता है कि जो भी सरकारी पार्टी का विरो करेगा उसे किसी ना किसी तरह फंसा या जाएगा, बदनाम किया जाएगा। और सरकार का समर्थन करते हैं तो कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।