“स्वतंत्रता संग्राम के दौर के संपादकों व राजनेताओं ने पूरी शिद्दत के साथ आजादी की लड़ाई लड़ते हुए भी एक संकल्प लिया था कि लड़ाई भले ही अंग्रेजों से हो, भले ही उस पश्चिमी सभ्यता से हो, भले ही उन लोगों से हो जिनके मन में भारत के प्रति या इसकी संस्कृति के प्रति किसी तरह का कोई प्यार नहीं है लेकिन लड़ाई के हथियार के रूप में जो पत्रकारिता होगी वह सत्य पर आधारित होगी, न्याय पर आधारित होगी, तथ्यों पर आधारित होगी. यह संकल्प था और इस संकल्प की कसौटी पर देखें तो उस दौर के सभी पत्रकारों का पूरा का पूरा जीवन एक ऐसे त्याग का प्रतीक था जिसकी ओर पूरा समाज श्रद्धा की निगाह से देखता था, आदर के साथ देखता था. उनके लिखे हुए एक-एक शब्द की कीमत होती थी. यह उस दौर के पत्रकारिता की विशेषता थी.”
उक्त उद्गार माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति पं. अच्युतानंद मिश्र ने व्यक्त किए. वे गाँधी शांति प्रतिष्ठान (नई दिल्ली) की ओर से आयोजित पत्रकारिता एवं लेखन कार्यशाला के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में प्रतिभागियों को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने बताया कि उस दौर में साहित्यिक एवं राजनीतिक दोनों धाराओं के पत्रकारों ने अपनी पूरी शक्ति स्वाधीनता की लडाई में लगाई अर्थात् उस दौर का हर एक नेता पत्रकार था और हर एक संपादक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी था. यह एक पूरक भाव उस दौर की पूरी पत्रकारिता में देखने को मिलता है.
उन्होंने कार्यशाला के प्रतिभागियों को सुझाव देते हुए कहा कि चूंकि आप सब युवा हैं और एक प्रतिबद्ध पत्रकारिता के संकल्प से यहाँ आए हैं अतः आप स्वतंत्रता संग्राम की पत्रकारिता का विशेष अध्ययन करें. यदि आपका संकल्प दृढ़ है, आप सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध हैं तो स्वाधीनता संग्राम के दौर की पत्रकारिता का अध्ययन जरूरी है. दुर्भाग्य से, स्वाधीनता के बाद हमने उस पत्रकारिता के गौरवशाली अध्याय को धीरे-धीरे कमजोर किया है, ओझल किया है. उन्होंने पत्रकारिता के गिरते मूल्यों पर चिंता व्यक्त की और कहा कि जब तक वो संकल्प शक्ति पत्रकारों के अंदर फिर से जागृत नहीं होगी तब तक वह भाव पैदा नहीं होगा.
अनेक अख़बारों के संपादक रह चुके पं. अच्युतानंद मिश्र ने उदत्त मार्तंड व सरस्वती से लेकर हिंदी प्रदीप, बनारस अख़बार, ब्राह्मण, स्वराज्य एवं सैनिक जैसे महत्वपूर्ण पत्रों की पत्रकारिता पर प्रकाश डाला. उन्होंने गणेशशंकर विद्यार्थी, भगत सिंह, पं. मदन मोहन मालवीय, गाँधी, लाल-बाल एवं पाल इत्यादि के पत्रकारिता को रेखांकित किया और यह बताया कि कैसे ‘स्वराज्य’ के आठ संपादकों को काले पानी की सजा हुई थी. मुख्य अतिथि का व्याख्यान भारतीय पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास के प्रेरक पहलू पर केंद्रित रहा.
विशिष्ट अतिथि के रूप में बोलते हुए गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति की निदेशक मणिमाला ने पत्रकारिता के मूल्यों में आई गिरावट की चर्चा करते हुए कहा कि आज के दौर में अख़बार जगत में दिन-प्रतिदिन तकनीक व पूँजी की भूमिका बढ़ती जा रही है और समाज पीछे छूटता जा रहा है. अध्यक्षीय उद्बोधन में गाँधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव सुरेन्द्र कुमार ने प्रतिभागियों से उम्मीद प्रकट करते हुए कहा कि पंद्रह दिन की कार्यशाला में निश्चित रूप से आपके अंदर पत्रकारिता की एक अवधारणा बनेगी और आने वाले दिनों में आप समाज का सही निर्देशन कर सकेंगे, आम जनता के दर्द और पीड़ा को समझ कर उसे उजागर करने के लिए आगे आएंगे. उन्होंने प्रतिभागियों को इस बात के लिए आमंत्रित किया कि वे समाज में आज की पत्रकारिता और मीडिया की भूमिका का मूल्यांकन करें और फिर अपनी दिशा तय करें.
उद्घाटन सत्र आम लोगों के लिए खुला था इसलिए इसमें प्रतिभागियों के अलावा अन्य लेखक-पत्रकार एवं प्राध्यापक भी मौजूद थे. कार्यक्रम की शुरुआत अतिथियों एवं प्रतिभागियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलित करके की गई. उसके बाद कार्यशाला संयोजक अभय प्रताप ने कार्यशाला की पृष्ठभूमि एवं उसके उद्देश्य पर प्रकाश डाला. कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत ने किया.