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सुख-दुख

एक असाधारण लेखक अपना करुण अंतिम अध्याय लिखकर चला गया!

राजेश प्रियदर्शी-

जुगनू जी नहीं रहे, बिहार के औघड़ पत्रकार, कभी समझौता नहीं करने वाले, दोस्ती निभाने वाले लेकिन हमेशा खरी बात करने वाले, जेपी आंदोलन में शामिल रहने की वजह से नीतीश-लालू के निकट रहे लेकिन एक धेले का फ़ायदा न लिया, न दिया.

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वृद्धाश्रम में अंतिम दिन गुज़ारे, खरे-खोटे लेकिन शीशे की तरह साफ़ और बेलाग-लपेट होने की वजह से परिवार से भी दूरी पैदा हो गई, कमाया कम, लुटाया ज्यादा.

उनसे तीन-चार जितनी भी मुलाकातें हुईं, हर बार हतप्रभ कर देने वाली सादगी, बेबाकी और एक गजब की ठसक दिखी जो अब लुप्त हो चुकी है. जुगनू जी शायद पहले पत्रकार थे जिन्होंने हिंदी में काल्पनिक इंटरव्यू की विधा की शुरुआत की, हम धर्मयुग में 1980-90 के दशक में उनका लिखा पढ़कर चमत्कृत होते हुए बड़े हुए.

एक असाधारण लेखक अपना करुण अंतिम अध्याय लिखकर चला गया. ऐसा पढ़ने को मिला कि उनके लिए मदद माँगी गई लेकिन उनके किसी कथित मित्र ने उनकी मदद नहीं की जिनमें कई मंत्री, सांसद और धनपति हैं. विदा जुगनू जी.

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राघवेंद्र दुबे-

जुगनू दादा नहीं रहे। वह देश के समाजवादी आंदोलन के स्वत्व से निर्देशित पत्रकारिता के अग्रणी व्यक्तित्व थे । जेपी आंदोलन के दौरान रघुवीर सहाय जी के संपादकत्व वाले साप्ताहिक ‘ दिनमान ‘ में छपी अपनी धारदार और संदर्भ समृद्ध रपटों से वह देश भर में जाने गये । वह यशस्वी उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु जी के गहरे मित्र थे ।

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मेरी उनसे पहली मुलाकात अपने शुरूवाती राजनीतिक गुरु, शीर्ष समाजवादी उग्रसेन के जरिये 1980 में हुई । मेरे मित्र जिला जज होकर रिटायर और न्यायिक सेवा में आने से पहले पॉलिटिकल एक्टिविस्ट रमेंद्रनाथ राय की भी उनसे मुलाकात रही है । उनका बहुत अच्छा परिचय मेरे गुरु राजनीतिक चिंतक डीपी त्रिपाठी से भी था ।

‘ जन ‘, ‘ दिनमान ‘ , ‘ धर्मयुग ‘ और ‘ रविवार ‘ से पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले जुगनू शारदेय जी और भी कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादन/प्रकाशन से जुड़े रहे । पत्रकारिता संस्थानों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में शिक्षण/प्रशिक्षण भी किया । अपने घुमक्कड़ स्वभाव ने उन्हें जंगलों में भी भटकने के लिए प्रेरित किया । जंगलों के प्रति यह लगाव , सफेद बाघ पर उनकी चर्चित किताब ‘ मोहन प्यारे का सफ़ेद दस्तावेज़ ‘ (रेनबो पब्लिशर्स, 2004) वन्य जीवन पर लिखी अनूठी किताब है । पर्यावरण मंत्रालय से उन्हें इसके लिये 2007 में प्रतिष्ठित “मेदिनी पुरस्कार” से नवाजा ।

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इन दिनों वह अस्वस्थ थे । उनका देहावसान दिल्ली के एक वृद्धआश्रम में हुआ । पता चला कुछ ही महीने पहले जब वह लावारिस भटक रहे थे , दिल्ली के लक्ष्मीनगर मोहल्ले से पुलिस वाले उन्हें वृद्धआश्रम में ले गए थे ।

अपने आखिरी दिनों में वह निहायत अकेले थे । पता नहीं और लोगों को खुद पर शर्म आएगी या नहीं , मैं तो इस बात की शर्म सोख रहा हूं कि हमने उन्हें अकेला छोड़ दिया । हम पत्रकार भी कितना ‘ अनकन्सर्न ‘ जीने लगे हैं । अब अपने ठीक बाजू वाले के बारे में भी न जानना ‘ मध्यवर्गीय फैशन ‘ हो चुका है । पारस्परिक संवाद तो कब के खत्म हो चुके हैं ।

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सतत शोधार्थी , स्कॉलर और नामी पत्रकार कुमार नरेंद्र सिंह कहते हैं – बहुत मामूली और छोटे – छोटे लाभ की तात्कालिकताओं में लटका हमारा समाज जहां जा रहा है , बहुत भयावह स्थिति है । जुगनू शारदेय की मौत हमारे लिये एक सबक है ।

जुगनू दादा जाते हुए , इस दुनिया से बिल्कुल अकेले , नितांत अकेले थे । अब वे नहीं हैं तो बाकी उनका ख्याल ,उनका तस्सवुर । बहुत कुछ है जुगनू शारदेय पर लिखने को , लिखूंगा भी । लेकिन एक सवाल के साथ — हम सब खुद को भी अकेले – अकेले नहीं करते जा रहे हैं क्या ?

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मैं डर गया हूं । वजह मैं और वह कुछ – कुछ हमशक्ल थे । आदतें और फितरत भी मिलती – जुलती सी । दिल्ली में वरिष्ठ लोकधर्मी पत्रकार रविशंकर तिवारी कहते हैं – हालात जितने भी मुखालिफ हों , उनकी रीढ़ अंत तक बनी रही आज के पत्तलकारों वाली लचक उसे छू भी नहीं सकी थी ।


चंचल-

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अलविदा जुगनू! और ज़ोर से कहता , हम ही नही , अनगिनत लोग , अनगिनत झरोखों से झांकते , चिल्लाते – अलविदा जुगनू शारदेय !अलविदा दोस्त ! ! और भीड़ के कंधों पर टिका जुगनू का शव यकीनन जुंबिश खाता , मुस्कुराता और करवट लेकर बुदबुदाता – नाटक बंद करो , अभी चिता जलने के बाद बहुत क़सीदा पढ़ोगे , चलो हटो सब जानता हूँ , देखता आया हूँ , अनगिनत आख़िरी यात्राओं में शरीक रहा हूँ ।

इसी लिए तो इस प्रपंच से दूर , किस प्रहर में किस दिन जुगनू ने मौत का वरण कर लिया , किसी को भनक तक नही मिली ।

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अंतिम यात्रा में भी कोई घर परिवार , बंधु बांधव , कोई नही था ।
ज़िद्दी था जुगनू । ऐसी यात्रा की क़ि सबूत के लिए बस राख भर मिली , वह भी ठंढी । जुगनू की आख़िरी साँस किसी ने नही समझा , जुगनू को शव के रूप में कंधों पर चढ़ कर जाने और अंतिम संस्कार को किसी ने नही देखा । एक भी सबूत नही है ।
जुगनू मरते नही , जलते नहीं , जुगनू तो चमकते हैं , रात जितनी गहरी होगी जुगनू की चमक उतनी ही विस्तार लेगी ।

बहुत याद आओगे दोस्त ।

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निराला बिदेसिया-

जुगनू भइया नहीं रहे. इस नश्वर संसार को अलविदा कर गये. जुगनू भइया यानी जुगनू शारदेय. अपने बिहार के चर्चित पत्रकार. हनक और धमक रहती थी उनकी. हमेशा लोगों के बीच रहनेवाले,लोगों के बीच ही रहने की ख्वाहिश रखनेवाले, बोलते रहनेवाले, जुगनू भइया पिछले कुछ सालों से एकाकी जीवन गुजार रहे थे. बीमारियों के साथ.

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बीमारियों से ज्यादा पीड़ादायी यही था कि उनके जैसा आदमी,एकदम से सबसे कटकर अकेला,अलग-थलग पड़ गया है.इस लिहाज से उनका जाना दुखद खबर नहीं. वरिष्ठ पत्रकार और जुगनू भइया के करीबी साथी Anurag Chaturvedi सर और जुगनूजी को बेपनाह चाहनेवाले उनके मित्र Shree Kant भइया से हमेशा उनकी खबर मिलती थी.

जुगनू भइया हमारे जिला-जवार के थे. औरंगाबाद के. हम जब भी बात करते,मगही में ही बतियाते थे. वे हिंदी में भले ही झारकर, कठोर बोलते हों कभी भी, पर अपनी भाषा मगही में मुलायमियत के साथ बतियाते थे.आमने-सामने की उनसे आखिरी मुलाकात पटने में आयोजित शिवानंद तिवारीजी के उस फंक्शन में हुई थी, जिसका आयोजन उनके सक्रिय संसदीय या चुनावी राजनीति से संन्यास की घोषणा बाद किया गया था. उस दिन भी जुगनू भइया अपने रंग में थे. पूरे रंग में.

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उनसे आखिरी बहस ‘नदिया के पार’ फिल्म को लेकर हुई थी, जिसमें उनके कहे से मैं सहमत नहीं था. वे अपने तर्कों के साथ जिद पर, मैं अपने तथ्यों के साथ जिद पर.ना वे अपनी बात से टकस,मकस कर रहे थे, ना मैं अपनी बात से.

कुछ माह बाद उनका फोन आया कि पटने में हो? मैंने कहा कि नहीं भइया. फिर बोले कि औरंगाबाद में हो? मैंने बोला कि नहीं भइया अभी तो नहीं हैं.उन्होंने कहा कि अगर इधर होता तो मिलते और यह कहते कि तुम जो कह रहे थे, वह सही है. यह विवेक आपके अंदर अनुभव से ही आता है कि किसी जूनियर से अगर किसी विषय पर द्वंद्व या दुविधा हो तो आप जूनियर को अरसे बाद ही सही, यह बताये कि तुम सही हो. इससे जूनियर में आत्मविश्वास का भाव भी आता है और सीनियर के प्रति सम्मान का भाव भी.

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जुगनू भइया के जाने का दुख है. जिस तरह से गये उससे मन दुखी है. पर, यह अच्छा ही हुआ कि वे दुनिया से अपनी ठसक, अपने शान, स्वाभिमान के साथ विदा हुए. बिना समझौता किये.


हरीश पाठक-

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जुगनू शारदेय:मशहूर लेखक की गुमनाम मौत

यह कैसी त्रास-कथा है कि हिंदी का एक मशहूर लेखक राजधानी दिल्ली के एक बृद्धाश्रम में जीवन के अंतिम क्षणों में निपट अकेला होता है।वह हर तरह की तकलीफों का सामना करता है पर पहचान बने अपने स्वाभिमान से अंत तक समझौता नहीं करता।

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तकलीफ,उपेक्षा,अकेलेपन,आर्थिक जर्जरता और अपनों की बेरुखी के बीच उसकी मृत्यु हो जाती है।बृद्धाश्रम का प्रबंधन उसका अंतिम संस्कार भी कर देता है क्योंकि उसे वहाँ पुलिस लावारिस के तौर पर भर्ती करा कर गयी थी।

इस त्रास-कथा का अंतिम सिरा यह है कि जब सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्र रवि उनका हाल लेने उस बृद्धाश्रम पहुँचे तो उन्हें बताया गया कि उनका तो निधन हो गया है।आज गयारह बजे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया है।यह तारीख 14 दिसम्बर थी।यह भी की 13 दिसम्बर को ही उस लेखक ने अपनी उम्र के 72 साल पूरे किए थे।

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बृद्धाश्रम के प्रबंधन की बात पर रवि को यकीन ही नहीं हुआ।उन्होंने उनके पास से मिले कागजात देखे।आधार कार्ड पर लिखा था-जुगनू शारदेय।वे सन्न रह गए।फिर वे श्मशान पहुँचे।अंतिम प्रणाम किया और देर तक सन्नाटे में ही रहे।राजेन्द्र रवि की सूचना पर ही पूरे देश ने जाना कि हिंदी का एक मशहूर लेखक जुगनू शारदेय को नियति के क्रूर पंजे ने अपनी गिरफ्त में लिया और वह दक्ष लेखक,प्रतिबद्ध समाजवादी और निर्भीक पत्रकार बेबसी,लाचारी और निर्धनता के चलते उस खतरनाक पंजे से मुक्त न हो सका।हिंदी समाज सदैव की तरह तटस्थ ही रहा और वैचारिक प्रतिबद्धता से लैस वह रचनाकार धीरे- धीरे खत्म हो गया कुछ सवालों की हम पर बौछार करते हुए।

जुगनू शारदेय हिंदी पत्रकारिता का वह जरूरी कालखण्ड है जहाँ विचार,विचारधारा,अक्खड़पन,निर्भीकता,तटस्थता और हर हाल में अपनी बात कहने की बेबाकी धड़कती है।आप उनसे असहमत हो सकते हैं,उनसे बहस कर सकते हैं पर दबाब या तनाव से उन्हें झुका नहीं सकते।वे तर्कों से,तथ्यों से अपनी बात आपके सामने रखेंगे,रखते थे।आप उन बातों से इत्तफाक न रखें इसकी ताउम्र उन्होंने कभी चिंता की ही नहीं।स्पष्टवादिता और तनी रीढ़ उनकी पहचान थी।उनका यही गुण मुझ सहित तमाम हिंदी पत्रकारों को रिझाता था।वे कभी यह चिंता करते ही नहीं थे कि कौन उन्हें पसंद कर रहा है,कौन नहीं।

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शायद यही वजह थी कि वे फणीश्वरनाथ रेणु के भी बहुत करीब थे और शिखर संपादक रघुवीर सहाय हों,डॉ धर्मवीर भारती,गणेश मंत्री,सुरेन्द्र प्रताप सिंह,विश्वनाथ सचदेव या उदयन शर्मा सभी उन्हें पसंद करते थे। वे सभी के पसंदीदा लेखक थे।लेखन ही उनकी आजीविका का साधन था।फिल्म और वन्य जीव उनके पसंदीदा विषय थे। वन्य जीवन पर उनकी किताब ‘मोहन प्यारे का सफेद दस्तावेज'(2004) उनकी चर्चित और मेदिनी पुरस्कार से सम्मनित कृति है।’सोते रहो’ फिल्म का उन्होंने निर्माण किया पर वह पूरी न हो सकी। जंगल उनकी पहली पसंद थे।बांधवगढ़ व कान्हा नेशनल पार्क वे अक्सर जाते।

राजनीति में समाजवादी विचारधारा उनके करीब थी।वे किशन पटनायक के भी करीब थे,मधु लिमये के भी और मृणाल गोरे से भी उनके रिश्ते थे।झुकना,गिड़गिड़ाना,मांगना , याचक मुद्रा में खड़े रहना उनकी फितरत में नहीं था।

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बिहार की राजनीति के वे ज्ञाता थे।लालूप्रसाद यादव,नीतीश कुमार,सुशील कुमार मोदी,शिवानंद तिवारी,हरिवंश से उनके याराना सम्बन्ध थे पर इन रिश्तों को कभी उन्होंने भुनाया नहीं जबकि चाहते तो वे ऐसा कर सकते थे।

उनकी बेबाकी मुझे बहुत पसंद आती थी।उनकी ‘दिनमान’ की रपटें मुझे बहुत प्रिय थीं। 1986 में मैं वाया दिल्ली मुम्बई ‘धर्मयुग’ में आ गया।वे जब भी टाइम्स भवन आते सीधे सम्पादक से मिलते फिर वे डॉ धर्मवीर भारती हों या गणेश मंत्री या विनोद तिवारी।बीच की कोई धारा नहीं।

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वह साल 1987 था।मैं पहली बार प्रेस क्लब चुनाव जीता।अरसे बाद अंग्रेजी की बाहुल्यतावाले उस क्लब में हिंदी की आहट थी। लगभग रोज मैं वहां जाता।एक दिन क्लब में वे मेरे पास आये और बोले,”मेरा नाम जुगनू शारदेय है।मैं क्लब का मेम्बर नहीं हूँ।आप गेस्ट के तौर पर मेरी एंट्री करवा दें। पैसों की चिंता न करें।यह व्यवस्था हो सके तो आगे भी जारी करवा दे क्योंकि मैं लगभग रोज यहाँ आता हूँ।।आप पदाधिकारी हैं यह करवा सकते हैं।”

यह मेरी उनसे पहली मुलाकात थी जो बाद में गहरी आत्मीयता में तब्दील हो गयी।उनसे लगभग रोज क्लब में मुलाकात होती। कभी सुदीप जी साथ होते,कभी कोई और।उनकी बातें साफ सुथरी।विचारों में स्पष्ट और ज्यादातर राजनीतिक।मैंने उन्हें हिंदी पत्रकार संघ का सदस्य भी बनाया।तब मैं उसका महासचिव था।वे सक्रिय भी रहे।चुनाव से ले कर कार्यक्रमों तक में।

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एक बार वे मेरे पास आ कर बोले,”क्या क्लब में सत्तू रखवाया जा सकता है ताकि बिहार के लोग यहां सत्तू खा सकें?”पर कार्यकारिणी ने इसकी इजाजत नहीं दी।

2008 में मैं पटना में ‘राष्ट्रीय सहारा ‘का स्थानीय संपादक बन कर पहुँचा।उनका फोन आया।वे बोले,” आप एकरेडियेशन कमेटी के सदस्य हैं।वे बार बार मेरा फॉर्म रिजेक्ट कर देते हैं कुछ करवा दीजिए।” मीटिंग में जब उनका फार्म आया तो सूचना अधिकारी ने कहा,”ये बार बार मांगने पर भी कोई प्रमाण नहीं दे रहे।”

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मैं खड़ा हो गया।मैंने कहा,”जुगनू शारदेय वरिष्ठ पत्रकार हैं।हम सब उन्हें जानते हैं।आप क्या प्रमाण उनसे चाहते हैं?” मेरे समर्थन में अरुण कुमार पांडेय ओर प्रवीण बागी भी खड़े हो गये।उनका एकरेडिएशन हो गया।दफ्तर आ कर मैंने उन्हें यह सूचना दी।

वे कुछ देर चुप रहे फिर अचानक जोर से बोले,”क्या करूं?नीतीश कुमार के हाथ जोड़कर उन्हें धन्यवाद दूं?” मैं सन्नाटे में आ गया।मैंने कहा,”वे बीच में कहाँ हैं? आपने कहा,हो गया। सूचित कर रहा हूं”।मेरी समझ में यह बात अब तक नहीं आयी कि अचानक नीतीश कुमार पर वे क्यों चिल्ला रहे थे?

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पर वे जुगनू शारदेय थे।अलग कर देना उनकी पहचान थी।

अब खत्म हो रही है पत्रकारों की यह पीढ़ी।देर तक और दिनों तक याद आते रहेंगे जुगनू शारदेय।उनकी चमक कभी कमजोर नहीं पड़ेगी।आखिर जुगनू की चमक कमजोर कैसे पड़ सकती है?

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शिशिर सोनी-

बिहार के प्रखर पत्रकार जुगनू शारदेय जी के ब्रह्मालीन होने के बाद अपने अपने darwing room में बैठे सजावटी लोग श्रद्धांजलि दे रहे हैं। जब तक वो जिंदा थे दर दर की ठोकरें खाते रहे। तब फेसबुक पर श्रद्धांजलि सभा करने वाले कोई दिखाई नहीं दिये। संसार में अकेले, बिना शादी के बौराने वाले फक्कड़ जुगनू जी कभी पटना रहे, कभी दिल्ली तो कभी मुंबई। जहाँ पनाह मिला, उम्र की इस बेला में वही ठहर लिए।

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मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है जुगनू जी की लावारिस मौत। मेरा परिचय दैनिक भास्कर में उनके लगातार लिखने, दफ्तर आने जाने के क्रम में हुआ। अंतिम नौकरी उन्होंने राम बहादुर राय के सानिध्य में हिंदुस्तान समाचार की पत्रिका में की। वहाँ से विदा हुए तो मानो पैदल हो गए। दिल्ली छूटा। पटना पहुंचे। हम सभी पत्रकारों के कंधे पे कोई नेता हाथ रख दे तो हम उसे अपना खैर ख़्वाह मानने की भूल करते हैं। लगातार करते हैं। फलां हमारा मित्र है, अभी फोन करता हूँ, काम हो जायेगा… ऐसी हवा बनाते हैं। बुलबुले को हकीकत समझते हैं। हकीकत में नेता किसी के नहीं होते। जुगनू जी भी खुद को नितीश का मित्र बताते थे। बुरा वक़्त आया तो खुद को अकेला पाया। न नेता, न अभिनेता। न पत्रकार, न फनकार। परिवार में कौन है, पता नहीं। न वो जिक्र करते थे, न मैं पूछता था।

दिल्ली छोड़ जब वो पटना गए, किसी के आसरे गए होंगे। सहारा नहीं मिला तो पटना सिटी के गुलजारबाग स्थित वृद्ध आश्रम में रहे। वहीं से उन्होंने फोन कर सारी आपबीती बताई। पता नहीं क्यों मुझ से वो खूब बतियाते थे। बताया कैसे ये आश्रम नहीं पागलखाना है। यहाँ ज्यादा रहा तो पागल हो जाऊंगा। सुबह एक ही कप चाय मिलती है। पटना सिटी के समाजसेवी Pradeep Kash को फोन कर मैंने उनका ध्यान रखने को कहा। प्रदीप दोस्तों के साथ उनसे मिलने पहुंचे। खूब बातें हुई। कुछ कमी बेसी पूछ ली। पूरी की। अन्य दोस्तों के मार्फत भी ये सिलसिला चलता रहा।

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एक दिन अचानक पटना का वृद्ध आश्रम छोड़ दिल्ली आ गए। फोन कर बताया कि राम बहादुर राय जी की मदद से गांधी प्रतिष्ठान में ठहरा हूँ। उस समय मैं दिल्ली से बाहर था। लौट कर आया तब तक वे गांधी प्रतिष्ठान से जा चुके थे। उनके कुछ calls मैं miss कर गया। अब उनको miss कर रहा हूँ। किस अवस्था में कहाँ उन्होंने अंतिम साँसें ली, कोई जानकारी नहीं।

मगर, हम पत्रकारों की यही व्यथा है। कहने को लोकतंत्र का चौथा खंभा। न कोई सोशल सेकुरिटी है, न नौकरी के बाद गरिमापूर्ण जिंदगी जीने के साधन। हम नून तेल के जुगाड़ में कब अधेड़ हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। कब, कौन सी बीमारी के वाहक हो जाते हैं, इल्म ही नहीं होता।

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हम लोकतंत्र के लावारिस प्रहरी हैं। जिसे टेनी जैसे नेता जब चाहे गरिया दें। जब चाहे मरवा दें। उस पाले में ढेंगरा रहे हमारे पत्रकार मित्र भी खबर दिखाने से बचेंगे। खबर लिखने से बचेंगे। अपनी बारी की प्रतीक्षा करेंगे। खंड खंड में विभक्त रहेंगे। Drawing Room से श्रद्धांजलि देते रहेंगे।

श्री राम नाम सत्य है…

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